निर्णायक मोड़ पर किसानों का आंदोलन

किसानों और सरकार के बीच सातवें चक्र की वार्ता कल समाप्त हो गयी। हालांकि पर्यावरण अध्यादेश और बिजली बिल पर सरकार ने नरम रुख दिखाकर ज़रूर कुछ सकारात्मक संकेत दिया है। लेकिन यह सदिच्छा कम उसकी रणनीति का हिस्सा ज्यादा लगता है। जिसमें एक तरफ यह दिखाने की कोशिश है कि सरकार किसानों की मांगों पर हर तरीके से विचार करने के लिए तैयार है लेकिन किसान ही हैं कि अपनी जिद पर अड़े हुए हैं। किसानों की मुख्य मांगों पर सरकार का अपने स्टैंड पर अड़े रहना इसी बात की तरफ इशारा करता है। वरना सरकार सबसे पहले उनकी उन तीन मांगों पर विचार करती जिसके लिए उन्होंने इस हाड़ कंपाने वाली ठंड में भी दिल्ली के बार्डर पर पड़ाव डाल रखा है।

लेकिन चूंकि वो तीनों मांगें ही सरकार के गले की हड्डी बनी हुई हैं लिहाजा वह किसी भी प्रकार से उन पर समझौता करने के लिए तैयार नहीं है। दरअसल ये तीनों मुद्दे सरकार के लिए प्राणवायु बन गए हैं। बीजेपी जिस कारपोरेट के सिलेंडर से धन का आक्सीजन लेती है ये तीनों मांगें उसके हितों से जुड़ गयी हैं। ऐसे में अगर सरकार मांगें मान लेती है तो उसकी वह पाइपलाइन ही कट जाएगी जिससे उसका जीवन चल रहा है।

सरकार ने भले ही चार जनवरी की तारीख दी हो लेकिन होना उस तारीख पर भी कुछ नहीं है। क्योंकि सरकार ने अंदर से यह मन बना लिया है कि वह इस मुद्दे पर पीछे नहीं हटने वाली है। लिहाजा उसने अब नई रणनीति तैयार कर ली है और उस पर काम शुरू कर दिया है। मसलन शुरुआत में इस आंदोलन को कभी ख़ालिस्तानी तो कभी पाकिस्तानी और कभी माओवादी तो कभी चीनी सह पर चलने वाला करार दिया गया। और इस कड़ी में यह कोशिश रही कि किसानों को थका कर बिल्कुल निराश कर दिया जाए। और अंत में वे खुद अपने घरों को लौटने के लिए मजबूर हो जाएं। यही वजह रही कि छह चक्रों की वार्ताएं चलीं लेकिन उनका कोई नतीजा नहीं निकला।

अब सरकार एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जिसमें वह अपनी तरफ से कुछ झुकता हुआ दिखाने की कोशिश करेगी और सामने वाले को जिद्दी साबित करना चाहेगी। और इस तरह से सबसे पहले उसकी कोशिश होगी कि देश में किसानों के प्रति उमड़ी सहानुभूति को कम किया जाए। और फिर इस कड़ी में उनको बिल्कुल अलग-थलग कर दिया जाए। अमूमन जब इस तरह की स्थितियां पैदा हो जाती हैं तो फिर सरकार के लिए कोई भी बड़ा और कड़ा से कड़ा फैसला लेना भी बेहद आसान हो जाता है।

लेकिन उससे पहले जो संकेत मिल रहे हैं वह बताते हैं कि संघ और बीजेपी किसी दूसरे ही रास्ते से इस आंदोलन को निपटाने के मंसूबे पाले हुए हैं। दरअसल संघ और बीजेपी के लिए सांप्रदायिकता का कार्ड सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा विश्वसनीय हथियार रहा है। यह वह हथियार है जिससे उसको वोट भी मिलता है और उसका आधार भी बढ़ता है और उसका अपना जाता भी कुछ नहीं। लेकिन इस बीच किसानों का एजेंडा सामने आ जाने से उसका यह मुद्दा न केवल पीछे जा रहा है बल्कि पिछले सात सालों में नफरत और घृणा के बोये गए मोदी सरकार के बीजों पर भी पलीता लगता हुआ दिख रहा है। ऐसे में उसकी अपनी तात्कालिक जरूरत के हिसाब से और किसानों के इस आंदोलन की धार को कम कर उसे निपटाने के लिहाज से भी इस मुद्दे की जरूरत पड़ गयी है।

इस बीच मध्य प्रदेश में खुलेआम पुलिस के संरक्षण में भगवाधारी गुंडों का जगह-जगह मस्जिदों और मुस्लिम इबादतगाहों पर हमले की जो घटनाएं सामने आ रही हैं वो इसी बात की तरफ संकेत करती हैं। उज्जैन और इंदौर में हिंसक भीड़ द्वारा मस्जिदों के गुंबदों को गिराने के जो वीडियो सामने आए हैं वो हैरतअंगेज हैं। ये सांप्रदायिक काली ताकतें इस काम को उस समय कर रही हैं जब सूबे में विधानसभा का सत्र चल रहा है। ऐसे में किसी के लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि लोकतंत्र की इन बड़ी संस्थाओं को इन ताकतों ने किस घाट लगा दिया। इसी तरह की कुछ सूचनाएं सूबे के ग्रामीण इलाकों से भी आ रही हैं। और उसमें मंदौसर का नाम भी आया है, जहां 2018 में पुलिस ने आंदोलन के दौरान छह किसानों की हत्या कर दी थी।

दरअसल मध्य प्रदेश से भी बड़ी तादाद में किसानों का जत्था आंदोलन में शामिल होने के लिए दिल्ली आ रहा है। लिहाजा संघ और बीजेपी इस बात को समझ गए हैं कि इस रेले को अगर रोकना है और दिल्ली पर जमावड़े को कम करना है तो उन्हें निचले स्तर पर इस तरह के सांप्रदायिक विभाजन की प्रक्रिया को तेज करना होगा। संघ और बीजेपी मंदिर के नाम पर चंदा मांगने के जरिये मध्य प्रदेश में यह प्रयोग कर रहे हैं और अगर यह क्लिक कर गया तो इसे राष्ट्रीय स्तर पर भी विस्तारित किया जा सकता है।

इस बात में कोई शक नहीं कि किसान आंदोलन केंद्र सरकार के गले की फांस बन गया है। बीजेपी और संघ के लिए इससे निकल पाना मुश्किल हो रहा है। दरअसल मोदी और शाह की गिनती राजनीति के शातिर खिलाड़ियों में की जाती है। लिहाजा उनके मन-मस्तिष्क में क्या चल रहा है उसको जान पाना भी किसी के बस की बात नहीं है। दोनों शांत होंगे और कुछ सोच नहीं रहे होंगे यह ख्याल भी बेमानी है। लेकिन उनकी सोच और उसका नतीजा किस रूप में सामने आएगा उसको लेकर कोई कयास लगा पाना भी किसी के लिए मुश्किल है। ऐसे में किसानों समेत पूरे देश को इस तरह की किसी बड़ी घटना वह अनहोनी के शक्ल में भी हो सकती है, के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

इसके कुछ संकेत सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े बुद्धिजीवियों ने भी दिए हैं। जिसमें एक ने सीधे-सीधे आंदोलन को चीन प्रायोजित बताया है तो एक दूसरे लेख में एक सज्जन ने उसे अराजकता फैलाने वाला करार देकर उसे जल्द से जल्द निपटाने का आह्वान किया है। सत्ता के दिमाग के तौर पर काम करने वाले इन बौद्धिकों ने अपने तरीके से आने वाले दिनों में उसके रुख का संकेत दे दिया है।

बहरहाल संघ और बीजेपी फिर से अपने वर्चस्व को स्थापित करने के ख्वाहिशमंद सवर्णों के पतित हिस्से, सत्ता में शामिल और उसके हर लाभ को हासिल करने की हैसियत रखने वाले पिछड़े समुदायों के अगुआ तबकों तथा जमीन से कटे और दिमाग से पैदल मध्य वर्ग के समर्थन पर खड़ी है। इन सारी ताकतों ने कारपोरेट के साथ मिलकर देश के बहुत बड़े हिस्से जिसमें किसान, मजदूर, छात्र, नौजवान, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और कर्मचारी शामिल हैं, को पीछे धकेल दिया है। और उसका राष्ट्र निर्माण में केंद्रीय भूमिका से वंचित कर उन्हें महज कारपोरेट का गुलाम बना देने का लक्ष्य है। इन परिस्थितियों में किसान आंदोलन केवल चंद मांगों के लिए खड़ा होने वाला आंदोलन नहीं है। बल्कि यह देश और समाज के पुनर्रचना का आंदोलन है। यह आंदोलन हारा तो देश हार जाएगा। और जीता तो जनता के राष्ट्र के निर्माण का रास्ता साफ होगा।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

महेंद्र मिश्र
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