फासीवादी ताकतें बिना ‘जनयुद्ध’ के राजसत्ता से बेदखल नहीं होती हैं

इतिहास की गवाही है कि अभी की सहस्त्राब्दी की किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में फासीवादी ताकतें किसी भी देश की ‘राजसत्ता’ पर चुनावों के जरिए ही काबिज होती हैं। किसी भी देश की राजसत्ता में कार्यपालिका, उसकी सावधिक रूप से निर्वाचित विधायिका, हर तरह की सरकारी-गैर सरकारी मीडिया और न्यायपालिका भी है। फासीवादी ताकतें बिना ‘पीपुल्स वार’ यानि जनयुद्ध के राजसत्ता से बेदखल नहीं होती हैं। जनयुद्ध हर तरह के सैन्ययुद्ध से भिन्न कम्युनिस्ट अवधारणा और हकीकत है।

व्लादिमीर इलिच उल्यानोव ‘लेनिन’ (22 अप्रैल 1870- 21 जनवरी 1934) की अक्टूबर-नवंबर 1917 की बोल्शेविक क्रांति से लेकर एडोल्फ हिटलर (20 अप्रैल 1889- 30 अप्रैल 1945) की ‘नाजी’ जर्मनी (1933-1945), इटली के बेनितो मुसोलिनी (29 जुलाई 1883- 28 अप्रैल 1945) की तथाकथित ‘नेशनल फासिस्ट पार्टी’ की हुकूमत, जापान के राजशाही-सैन्य तानाशाही के खिलाफ दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान रूस के जोसेफ स्टालिन (18 दिसंबर 1878- 5 मार्च 1953 ) आदि लोकतांत्रिक देशों के ‘एलाइड पॉवर’ (मित्र शक्ति) की जंग, इटली और आसपास अवामी लड़ाई, चीन में माओ त्से तुंग (26 दिसंबर 1893-9 सितंबर 1976) की अगुवाई में किसानों का लॉन्ग मार्च (1934-1935) और चीन के पहली अक्टूबर 1949 को पीपुल्स रिवोल्यूशन यानि जनक्रांति इसकी गवाही देती हैं।

वियतनाम में अमेरिकी साम्राज्यवादियों की एक नवंबर 1955 से 30 अपैल 1975 तक युद्धक विमानों से की गई कारपेट बॉम्बिंग के विरुद्ध हो ची मिन्ह (10 मई 1890- 2 सितंबर 1969) की अगुवाई में सशक्त प्रतिरोध भी इसकी गवाही देते हैं।

लैटिन अमेरिकी देशों में से स्पेन में जनरल फ्रंको (4 दिसंबर 1892- 20 नवंबर 1975) की दुनिया में सबसे ज्यादा 52 वर्ष के तानाशाही शासन के खिलाफ लंबे गृहयुद्ध के खिलाफ संघर्ष में अंतोनियो ग्राम्शी (22 जनवरी 1891- 27 अप्रैल 1937) की भूमिका, क्यूबा, अर्जेटिना और अल सल्वाडोर में अमेरिकी एकाधिकार के विरुद्ध फ़िदेल कास्त्रो (13 अगस्त 1926- 25 नवंबर 2016) चे ग्वेरा (14 जून 1928- 9 अक्टूबर 1967) की भागीदारी से सफल क्रांति भी इसकी गवाह हैं।

यह महज संयोग नहीं है कि अंतोनियो ग्राम्शी की क्रांतिकारी भूमिका की बदौलत इटली के पास सान मारिनो द्वीप राष्ट्र में दुनिया की पहली कम्युनिस्ट सरकार लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित हुई थी। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) की स्थापना से भी सौ बरस पहले कायम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के अग्रणी नेता रहे ईएमएस नंबूदरीपाद (13 जून 1909- 19 मार्च 1998) ने केरल में दुनिया की दूसरी कम्युनिस्ट सरकार 1957 में बनाई।

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू (14 नवंबर 1889- 27 मई 1964) के जीवनकाल में ही संयोग से कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित हो गईं इंदिरा गांधी (19 नवंबर 1917- 31 अक्टूबर 1984) के कहने पर और हिन्दुस्तानी टाटा-बिड़ला औद्योगिक घरानों से लेकर अमेरिका के पूंजीपतियों के इशारे पर नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।

मूलतः अधिनायकवादी चरित्र की इंदिरा गांधी को इसके लिए कई बार खामियाजा भी भुगतना पड़ा। केरल में राष्ट्रपति शासन में हुए विधानसभा चुनाव में ईएमएस के ही नेतृव में भारत की अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में लौट आई। यह कांग्रेस के गाल पर तमाचा से कम भी नहीं था। इंदिरा गांधी को अपने पिता के जीते जी कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटना पड़ा था।

लोकनायक जयप्रकाश नारायण (11 अक्टूबर 1902- 8 अक्टूबर 1979) की अगुवाई में पटना के गांधी मैदान से बेरोजगार युवाओं और परेशान छात्रों ने शांतिपूर्ण आंदोलन शुरू किया; ‘इंडिया दैट इज भारत’ के तब के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद (13 मई 1905- 11 फरवरी 1977) ने इंदिरा गांधी की कैबिनेट के निर्णय- 26 जून 1975 से देश में पहला और अब तक का आखिरी आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया।

भारत और चीन के बीच पड़ोसी देश नेपाल में 25 सितंबर 1788 से राजशाही के विरुद्द पहले नेपाली कांग्रेस के समाजवादी बी पी कोयराला (8 सितंबर 1914 – 21 जुलाई 1982) और फिर पुष्प कमाल दहाल ‘प्रचंड’ की जन मुक्ति सेना लंबी लड़ाई के बाद बहाल संसदीय लोकतंत्र भी इसकी गवाह है कि तानाशाही-फासीवादी ताकतों का सफाया सिर्फ चुनावों से नहीं हो सका है।

प्रचंड 11 दिसंबर 1954 को पैदा हुए थे और उनके ही प्रयासों से नेपाल की एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी का गठन हो सका। वह दो बार प्रधानमंत्री रह चुके हैं। नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पढ़े बाबुराम भट्टराई जैसे कम्युनिस्ट नेता नेपाल में राजशाही की समाप्ति के बाद ही 35वें प्रधानमंत्री बन सके। वह गोरखा जिला में 26 मई 1954 को पैदा हुए थे और नेपाल की संविधान सभा के अध्यक्ष रहे। 

(चंद्र प्रकाश झा वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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