हिंदी की किसी पहली लेखिका को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार

नई दिल्ली। लेखिका गीतांजलि श्री को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से नवाजा गया है। वह हिंदी की पहली लेखिका हो गयी हैं जिन्हें यह पुरस्कार मिला है। हालांकि यह पुरस्कार उन्हें उनकी किताब ‘रेत समाधि’ के अनुवाद ‘टांब ऑफ सैंड’ के लिए मिला है। जिसका अनुवाद डेजी रॉकवेल ने किया है। लिहाजा पुरस्कार की राशि संयुक्त रूप से गीतांजलि श्री और डेजी रॉकवेल के बीच विभाजित की जाएगी। श्री और रॉकवेल को 50 हजार पाउंड मिलेंगे।

लेकिन यह बात अपने आप में महत्वपूर्ण है कि पहली बार हिंदी में लिखी गयी किसी किताब को बुकर पुरस्कार से नवाजा गया है। ‘रेत समाधि’ 80 साल की एक बुजुर्ग महिला की कहानी है जो अपने पति की मौत के बाद गहरे अवसाद में चली जाती है। और फिर उससे उबर कर एक नई जिंदगी शुरू करती है। विभाजन के दौरान अपने बचपन के बुरे अनुभवों से निकलने की कोशिश के तहत महिला पाकिस्तान की यात्रा करती है। और एक मां, एक बेटी, एक महिला और एक स्त्रीवादी के लिए उसका क्या मतलब हो सकता है उसका फिर से मूल्यांकन करती है।

इस साल के लिए जजों के पैनल की अध्यक्षता करने वाले और पहले अनुवादक जिन्होंने इसकी अध्यक्षता की, फ्रैंक वाइन ने किताब को ‘अभूतपूर्व रूप से दिलचस्प’ करार दिया। उन्होंने कहा कि “विभिन्न विषयों के साथ डील करने के बावजूद बेहद दिलकश, आकर्षक और मजेदार और हल्की……एक पुख्ता रूप से किसी के लिए भी समुद्र के किनारे पढ़ने लायक किताब।”

जजों के पैनल में लेखक और एकैडमिशियन मर्व इमरे; लेखक और एडवोकेट पेटिना गापाह; लेखक, कामेडियन और टीवी, रेडियो और पोडाकास्ट प्रेजेंटर विव ग्रोसकोप और अनुवादक तथा लेखक जर्मी तियांग शामिल थे। वाइन का कहना था कि जजों के पैनल में तमाम किताबों पर बहस हुई। लेकिन जब इसकी बारी आयी तो इसको सभी ने एक सुर में पसंद किया।

गीतांजलि श्री ने तीन उपन्यास और कई कहानियां लिखी हैं हालांकि ‘रेत समाधि’ उनकी पहली किताब है जो लंदन में प्रकाशित हुई। रॉकवेल एक पेंटर, लेखिका और अनुवादक हैं जो अमेरिका के वरमौंट में रहती हैं। उन्होंने हिंदी और उर्दू से जुड़े कई कामों का अनुवाद किया है।

‘रेत समाधि’ एक छोटे स्वतंत्र प्रकाशक एक्सिस प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया है। वाइन ने कहा कि वह आशा करते हैं कि रेत समाधि इस तरह के दूसरे गैर यूरोपीय भाषाओं की किताबों के अनुवाद के लिए लोगों को प्रेरित करेगी। वाइन का कहना था कि इस बात की सच्चाई के बावजूद कि ब्रिटेन का भारतीय उपमहाद्वीप से बहुत लंबा रिश्ता रहा है लेकिन हिंदी, उर्दू, मलयालम, बंगाली जैसी भारतीय भाषाओं से बहुत कम किताबों का अनुवाद हुआ है।

उन्होंने कहा कि यह सचमुच में निराशाजनक है। और इसका एक छोटा कारण यह भी है कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि भारतीय लेखकों का एक छोटा हिस्सा अंग्रेजी में भी लिखता है और शायद हम ऐसा महसूस करते हैं कि हमारी जरूरत के लेखक पहले ही हमारे पास हैं लेकिन दुर्भाग्य से बहुत सारे भारतीय लेखक ऐसे हैं जिनके बारे में हम इसलिए कुछ नहीं जानते क्योंकि उनके कामों का अनुवाद नहीं हुआ है।

इस साल जजों ने कुल 135 किताबों पर विचार किया था। कहा जा रहा है कि यह रिकॉर्ड स्तर की प्रविष्टियां थीं।

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