सुप्रीम कोर्ट की पांच नई नियुक्तियां बताती हैं कि सरकार पड़ गयी कॉलेजियम के आगे नरम

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के पांच नए न्यायाधीशों को संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ दिलायी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की सबसे बड़ी संख्या लगभग दो वर्षों में एक साथ शपथ ली। 2021 में एक बार में नौ जजों को शपथ दिलाई गई थी। सोमवार का शपथ ग्रहण इस बात का भी संकेत है कि कॉलेजियम सिस्टम पर सरकार के लगातार हमलों पर कोर्ट की जीत हुई है।

हालांकि प्रथम दृष्ट्या सुप्रीम कोर्ट ने कानून मंत्री किरण रिजिजू और उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ द्वारा कॉलेजियम के बारे में की गई अपमानजनक सार्वजनिक टिप्पणियों से प्रभावित होकर झुकने से इनकार कर दिया है। इसके बजाय, अदालत ने न्यायिक आदेशों और कॉलेजियम के प्रस्तावों के माध्यम से लंबित नियुक्तियों को निपटाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के अवसर का उपयोग किया था। 

इस प्रक्रिया में, कॉलेजियम ने पारदर्शिता लाने के लिए अपने कामकाज को भी दुरुस्त किया है। अदालत ने न्यायिक नियुक्तियां करते समय सरकार के लिए कुछ जमीनी नियम निर्धारित करने के लिए केंद्र द्वारा शुरू की गई कटुता का भी इस्तेमाल किया है।

एक तो कॉलेजियम ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि सिफारिश किए गए नामों की वरिष्ठता सरकार को बरकरार रखनी चाहिए। केंद्र को एक बैच में अनुशंसित नामों में से एक या दो नामों को नहीं चुनना चाहिए और बाकी को लंबित रखते हुए उन्हें न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करना चाहिए। सरकार ने पांच नामों के मामले में कॉलेजियम की इच्छा का पालन किया है।

31 जनवरी के एक कॉलेजियम के प्रस्ताव में निर्दिष्ट किया गया था कि नए नामों की नियुक्ति जस्टिस पंकज मित्तल, संजय करोल, पीवी संजय कुमार, अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और मनोज मिश्रा के बाद ही की जानी चाहिए, जिनकी सिफारिश पिछले साल 13 दिसंबर को की गई थी। 13 दिसंबर, 2022 को कॉलेजियम द्वारा अपने प्रस्ताव द्वारा अनुशंसित नामों की सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए वर्तमान में अनुशंसित दो नामों पर वरीयता होगी। 13 दिसंबर को अनुशंसित पांच न्यायाधीशों की नियुक्तियों को अलग से अधिसूचित किया जाना चाहिए और इस प्रस्ताव द्वारा अनुशंसित दो न्यायाधीशों के समक्ष पहले समय पर अधिसूचित किया जाना चाहिए।

दूसरा, अदालत ने यह स्पष्ट करते हुए कॉलेजियम के कामकाज में सूक्ष्म लेकिन प्रभावी बदलाव किए हैं कि कॉलेजियम प्रणाली अभी कानून है, और बेहतर लाने के लिए सरकार का स्वागत है।

अब जजों के लिए अनुशंसित नामों की छोटी सूची नहीं है। वे एक बार फिर विस्तृत हो गए हैं। वास्तव में, कॉलेजियम की पारदर्शिता की सीमा ने पारदर्शिता के हिमायती कानून मंत्री, किरेन रिजिजू को प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर कर दिया है कि कुछ चीजें गुप्त रहनी चाहिए।

दरअसल कॉलेजियम ने तीन नामों पर रॉ और आईबी की रिपोर्ट को सार्वजनिक करके मास्टर स्ट्रोक चल दिया जिससे सरकार में खलबली मच गई और यह आशंका उत्पन्न हो गयी कि कहीं अटल सरकार से लेकर अब तक के सभी गोपनीय रिपोर्ट (रॉ और आईबी) कॉलेजियम ने सार्वजनिक कर दिए तो क्या होगा? कितनी किरकिरी होगी? 

दरअसल इसके तहत 18 जनवरी को, कॉलेजियम ने जनता को सौरभ किरपाल की यौनिकता के बारे में सरकार की आपत्तियों के बारे में बताया, जिसकी सिफारिश खुले तौर पर समलैंगिक वकील ने दिल्ली उच्च न्यायालय के लिए की थी। कॉलेजियम ने जवाब दिया था कि हर व्यक्ति यौन अभिविन्यास के आधार पर अपनी गरिमा और व्यक्तित्व बनाए रखने का हकदार है।

दो अन्य कॉलेजियम प्रस्तावों ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए अनुशंसित दो वकीलों के ऑनलाइन स्वतंत्र भाषण के अधिकार को बरकरार रखा था। उनमें से एक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करते हुए एक वेब पोर्टल का लेख साझा किया था। दूसरे उम्मीदवार को “महत्वपूर्ण नीतियों, पहलों और सरकार के निर्देशों” की आलोचना करने वाले उनके सोशल मीडिया पोस्ट के लिए केंद्र द्वारा “अत्यधिक पक्षपाती और विचारों वाला व्यक्ति” कहा गया था।

उच्च न्यायपालिका में कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से जजों की नियुक्तियों के मामले में सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच कुछ दिनों से टकराव बढ़ता जा रहा था। सरकार जहां अपनी हठधर्मिता नहीं छोड़ रही थी तो वहीं सुप्रीम कोर्ट अपने सख्त रूख पर कायम था । इस दौरान सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने कानून मंत्रालय को एक नोट लिखकर भेजा था । इसमें जजों की नियुक्ति पर केंद्र सरकार को आगाह किया गया था । नोट में याद दिलाया गया था कि जज नियुक्त करने के लिए अगर कॉलेजियम नाम की सिफारिश दोहराता है तो सरकार को मंज़ूरी देनी ही होगी। यदि दोनों पक्षों में कोई आम सहमति नहीं बनी तो देश गंभीर संवैधानिक संकट में फंस सकता है।

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम, जिसमें चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ भी शामिल हैं, ने केंद्रीय क़ानून मंत्रालय को एक विस्तृत नोट भेजते हुए कहा था कि जजों के नाम की सिफ़ारिश को लेकर कॉलेजियम के फैसले की फिर से पुष्टि होने के बाद सरकार नियुक्ति अधिसूचित करने के लिए बाध्य है। लेकिन यदि सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया तो इसके क्या दुष्परिणाम होंगे? 

नोट में ‘रेखांकित’ किया गया था कि सरकार की कार्रवाई दूसरे न्यायाधीशों के मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिए गए फैसले में निर्धारित कानून का उल्लंघन करती है। उस मामले में कहा गया था कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मति से एक सिफारिश को दोहराया, तो ‘एक स्वस्थ परंपरा के तौर पर’ नियुक्ति की जानी चाहिए ‘क्योंकि यह सरकार के लिए बाध्यकारी है।

इसने अप्रैल 2021 के एक फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि अगर सरकार को न्यायाधीशों के लिए प्रस्तावित नाम के बारे में कोई आपत्ति है, तो उसे 18 सप्ताह के भीतर कॉलेजियम में वापस जवाब देना चाहिए। 2021 के निर्णय में कहा गया है, ‘अगर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम उपरोक्त सूचनाओं पर विचार करने के बाद भी सर्वसम्मति से सिफारिशों को दोहराता है, तो ऐसी नियुक्ति पर कार्रवाई की जानी चाहिए और नियुक्ति 3 से 4 सप्ताह के भीतर की जानी चाहिए।नवंबर 2022 में सरकार ने कॉलेजियम द्वारा की गई 20 सिफारिशों को वापस भेज दिया। इनमें से नौ शीर्ष अदालत के कॉलेजियम द्वारा दोहराए गए थे।

उल्लेखनीय है कि जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली बीते कुछ समय से केंद्र और न्यायपालिका के बीच गतिरोध का विषय बनी हुई थी। कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कई बार विभिन्न प्रकार की टिप्पणियां की थीं।

इसके बाद दिसंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली इस देश का कानून है और इसके खिलाफ टिप्पणी करना ठीक नहीं है। शीर्ष अदालत ने कहा था कि उसके द्वारा घोषित कोई भी कानून सभी हितधारकों के लिए ‘बाध्यकारी’ है और कॉलेजियम प्रणाली का पालन होना चाहिए।

दिसंबर 2022 में सोनिया गांधी ने कहा था कि मोदी सरकार सुनियोजित ढंग से न्यायपालिका को कमजोर करने का प्रयास कर रही है। इसी महीने में मनीष तिवारी ने पूछा था कि क्या सरकार न्यायपालिका से टकराने का प्रयास कर रही है। वहीं कॉलेजियम सिस्टम का बचाव करते हुए दिसंबर 2022 में ही वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा था कि भले ही कॉलेजियम प्रणाली परफेक्ट नहीं है, लेकिन यह सरकार द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति पर पूर्ण नियंत्रण होने से तो बेहतर है। 

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

जेपी सिंह
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