अलोकप्रियता के डर से मोदी करेंगे ‘प्रतीकात्मक रैली’ या राहुल हैं वजह?

पीएम नरेंद्र मोदी की ओर से प्रतीकात्मक महाकुंभ की सफल अपील के बाद बीजेपी ने पश्चिम बंगाल के चुनावी महाकुंभ में ‘प्रतीकात्मक रैली’ की घोषणा कर दी है। दोनों ही आयोजनों से कोरोना के खिलाफ लड़ाई में बीजेपी और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश ही नहीं दुनिया में आलोचनाओं का सामना कर रहे थे। क्या अलोकप्रिय होने के डर ने प्रतीकात्मक शैली पर नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी को चलने को विवश कर दिया? अगर ऐसा था तो इसकी चिंता पहले क्यों नहीं की गयी?

महाकुंभ को प्रतीकात्मक बनाने का फैसला तब लिया गया जब महामंडलेश्वर की कोरोना से मौत हो गयी और सैकड़ों की तादाद में साधु-संत बीमार हो गये। पीएम मोदी ने एक तरह से महाकुंभ के आयोजकों को बच निकलने का रास्ता मुहैया कराया। देखने में भले ही महाकुंभ के आयोजक साधु-संत रहे हों, लेकिन कहा जाता है कि 2022 में निश्चित समय से एक साल पहले महाकुंभ के आयोजन के पीछे यूपी और उत्तराखण्ड का विधानसभा चुनाव अहम वजह रही थी। ऐसे में जब साधु-संत संकट में पड़े तो पीएम मोदी का ‘संकटमोचक’ बनकर सामने आना परम धर्म बन गया।

संकटमोचककहलाएंगे मोदी?
अगर नरेंद्र मोदी प्रतीकात्मक महाकुंभ का विचार लेकर सामने नहीं आते तो साधुओं के संक्रमण और देश भर में लौटते श्रद्धालुओं के ‘कोरोना बम’ बनकर फूट पड़ने के लिए सिर्फ और सिर्फ मोदी सरकार को ही जिम्मेदार ठहराया जाता। भारत अगर दुनिया में सबसे तेज कोरोना संक्रमण की चपेट में आया है तो इसमें महाकुंभ की महती भूमिका है। मगर, नरेंद्र मोदी ने ‘प्रतीकात्मक महाकुंभ’ की पहल इसलिए की ताकि उनकी छवि अलग ढंग से गढ़ी जा सके और ‘संकटमोचक’ के तौर पर उन्हें याद किए जाने का मार्ग प्रशस्त हो। इसी कोशिश में बाधा थी पश्चिम बंगाल में चल रहा चुनावी अभियान।

देश भर में कोरोना संकट के बीच ‘दो गज की दूरी मास्क है जरूरी’ की अपील और मौका पड़ते ही चुनावी रैलियों में भीड़ देखकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आह्लादित होना- इस विरोधाभास को जनता पचा नहीं पा रही थी। 8 में से 5 चरण चुनाव के बीत चुके थे। बीजेपी चाहती तो एक और चरण बिता देने के बाद ‘प्रतीकात्मक महाकुंभ’ की शैली पर बंगाल में लौटती। मगर, कोरोना विस्फोट के बीच श्मशान-कब्रिस्तान में लाशों की कतारें, ऑक्सीजन की कमी, रेमेडिसविर की कालाबाजारी जैसी स्थितियों के बीच बढ़ती लोकप्रियता जहां दबाव बना रही थी, वहीं राहुल गांधी ने बंगाल में चुनावी रैली नहीं करने का एलान कर इस दबाव को बढ़ा दिया।

राहुल-ममता ने पीएम मोदी पर बढ़ाया दबाव!
बीजेपी ने जरूर यह कहकर राहुल गांधी का मजाक उड़ाया कि रैली नहीं करने के फैसले के पीछे की असली वजह उनकी सभा में भीड़ का नहीं जुटना था, मगर जब ममता बनर्जी ने भी कोलकाता में आगे कोई रैली नहीं करने और बची हुई रैलियों को संक्षिप्त करने की घोषणा की तो पीएम मोदी पर दबाव और बढ़ गया। बीजेपी की ओर से महज 500 लोगों के साथ रैली करने की घोषणा से पहले ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस्तीफे की मांग कर डाली। देश में कोरोना विस्फोट का जिम्मेदार ठहराते हुए पीएम मोदी को प्रशासनिक और योजना के स्तर पर पूरी तरह से विफल करार दिया।

कह सकते हैं कि जो पहल राहुल गांधी ने की वह वक्त की जरूरत थी, जिसे ममता बनर्जी ने भी समझा और बाद में बीजेपी ने भी। चूंकि खुद राहुल गांधी पश्चिम बंगाल में चुनाव अभियान से दूर रहे और उसकी वजह राजनीतिक और रणनीतिक थी, इसलिए उनके रैली नहीं करने के फैसले में कोई अपील नहीं थी। सवाल यह है कि अगर अपील नहीं थी तो ममता और मोदी दोनों उसी राह पर क्यों चले? इसका जवाब यह है कि रणनीतिक तौर पर राहुल-ममता एक ओर थे और रैली नहीं करने या इसे प्रतीकात्मक बनाने के बाद बीजेपी पर वह दबाव बढ़ गया जो कोरोना काल में नरेंद्र मोदी के रैली करने से उनकी बढ़ रही अलोकप्रियता के रूप में बन रहा था। नरेंद्र मोदी को बंगाल में नुकसान का डर नहीं था, बल्कि पूरे देश में अपने अलोकप्रिय होने से बीजेपी को स्थायी रूप से नुकसान होने का डर सताने लगा था।

प्रतीकात्मक रैली के पीछे असली वजह अलोकप्रिय होने का डर!
जिस तरह से महामंडलेश्वर की मौत महाकुंभ को प्रतीकात्मक बनाने की पहल की फौरी वजह बन गयी थी उसी तरह से राहुल-ममता के रैली नहीं करने का फैसला पश्चिम बंगाल में बीजेपी के फैसले की फौरी वजह बन गया। मगर, असली वजह उस अलोकप्रियता से बीजेपी को अपना बचाव करना था जिसकी आशंका पैदा हो गयी थी। पश्चिम बंगाल के चुनाव में भी दो उम्मीदवार कोरोना से मौत की भेंट चढ़ चुके थे और बीजेपी के बड़े-बड़े नेता लगातार कोरोना से संक्रमित हो रहे थे। ऐसे नेताओं में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल हैं।

पश्चिम बंगाल में प्रतीकात्मक रैली के पीछे बड़ी वजह यह भी है कि पांच चरण का चुनाव बीत जाने के बाद बाकी बचे तीन चरणों में बीजेपी का बहुत कुछ दांव पर बचा नहीं है। कांग्रेस के लिए यह दौर वास्तव में महत्वपूर्ण है, जहां मुर्शिदाबाद, माल्दा जैसे इलाकों में कांग्रेस की अच्छी मौजूदगी रही है। इस लिहाज से राहुल का फैसला भावनात्मक लगता है। वहीं ममता बनर्जी कहीं से भी मैदान छोड़ती नज़र नहीं आयीं। उन्होंने न रैली की संख्या और न ही भीड़ छोटी करने की बात कही, केवल समय कम करने का एलान किया। ऐसा इसलिए कि ये तीनों चरण टीएमसी के राजनीतिक भविष्य के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण और अनुकूल चरण हैं।


चुनाव आयोग ने अपनी गरिमा गिरायी
एक महत्वपूर्ण बात और है कि जिस तरह से साधु-संतों की गरिमा का ख्याल प्रधानमंत्री ने महाकुंभ को प्रतीकात्मक बनाने की सलाह देते हुए किया, वैसी गरिमा का ख्याल चुनाव आयोग के लिए नहीं किया गया। हालांकि दूसरे फैसले में खुद प्रधानमंत्री ने नहीं, बीजेपी ने निर्णय लिया है। फिर भी, चुनाव आयोग ने भी अगर अपनी गरिमा को बचाने के बारे में सोचा होता तो राहुल गांधी के फैसले के तत्काल बाद ही उसे जग जाना चाहिए था। इतिहास यही याद रखेगा कि राजनीतिक दलों ने चुनाव अभियान को प्रतीकात्मक बनाने के बारे में सोचा और पहल की, लेकिन चुनाव आयोग ने इसकी जरूरत नहीं समझी। वास्तव में राजनीतिक दलों के प्रतीकात्मक चुनाव अभियान के इन फैसलों ने चुनाव आयोग को मूर्ख साबित किया है। सही मायने में चुनाव आयोग ने अपनी निष्क्रियता से खुद अपनी गरिमा गिरायी है।

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

प्रेम कुमार
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