अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के चार साल: सूचनाओं के रेगिस्तान से गुजर रहा कश्मीर

चार साल पहले यानी आज के दिन भारतीय जनता पार्टी ने अपने स्कूल यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का एक बहुत बड़ा सपना पूरा किया था। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 और धारा 35-ए को निरस्त करने का। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में अपने संक्षिप्त भाषण अथवा नोट के जरिए आकस्मिक रूप से यह घोषणा की थी। विपक्ष को तो क्या होनी थी; सत्ता पक्ष के भी वरिष्ठ नेताओं को पहले इसकी भनक तक नहीं लगने दी गई। शाम लगभग पांच बजे तक सोशल मीडिया के जरिए पूरी दुनिया ने जाना कि भारत सरकार ने इतना बड़ा फैसला लिया है। इसके नागवार और मुफीद मायनों को समझे बगैर दक्षिणपंथियों ने समूचे देश में जश्न मनाए और मिठाइयां बांटीं।

यह संकीर्ण सोच का ही नतीजा हो सकता है कि एक बनी-बनाई बड़ी व्यवस्था को भंग करके जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाकर संघवाद और लोकतंत्र पर खुलेआम कुठाराघात किया गया। लद्दाख को संपूर्ण अलग सूबे का दर्जा दिया गया। लागू बेशक यह सब अचानक किया गया लेकिन इसके पीछे की कवायद बरसों पुरानी है। यह बहुत कम लोगों ने सोचा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार लोकसभा या राज्यसभा में बहस कराए बगैर इतना बड़ा कदम उठा लेगी और केंद्रीय गृहमंत्री चंद मिनटों में फैसले से देश और दुनिया को अवगत करा देंगे।

5 अगस्त, 2019 को कश्मीरियों को उनकी मूल पहचान से एकाएक अलहदा कर दिया गया। इससे पहले अमरनाथ यात्रा रोकी गई और भारी संख्या में फौज और अर्ध सैनिक बलों के जवानों के वाहन जम्मू-कश्मीर की ओर जाने वालीं सड़कों पर नजर आने लगे। आम राय थी कि यह किसी सामरिक ऑपरेशन का हिस्सा है। कोई नहीं जानता था कि असल में क्या होने जा रहा है।

पीडीएफ अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती

अनुच्छेद-370 को रद्द करना कोई मामूली सरकारी कार्रवाई नहीं थी। सरकार जानती थी कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसका नोटिस लिया जाएगा। दुनिया भर का मीडिया कश्मीर में पड़ाव डालेगा और स्थानीय बाशिंदे सड़कों पर आकर विरोध- प्रदर्शन कर सकते हैं। आखिर कश्मीरियों से उनकी असली शिनाख्त छीन ली गई थी। उनकी अस्मिता एकबारगी खत्म हो गई थी और ऐसा होने से पहले उन्हें इसका इल्म नहीं था।

केंद्र ने अनुच्छेद निरस्त करने की घोषणा तो चंद मिनटों में कर दी लेकिन असर बेहद दूरगामी होना था। लिहाजा जम्मू-कश्मीर और लद्दाख खित्ते में अब तक का सबसे सख्त लॉकडाउन और बेमियादी कर्फ्यू लगा दिया गया। इंटरनेट अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया और लैंडलाइन की सुविधा भी। प्रसंगवश, तत्कालीन इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार ने जून 1984 में ऐसा किया था। भाजपा सरकार की सख्ती उससे भी कहीं आगे की थी। वादी की हर गली के मोड़-नुक्कड़ पर बंकर बनाकर अर्धसैनिक बल मुस्तैद हो गए। कई घरों के दरवाजों को तो बाहर से बंद कर दिया गया। कश्मीरी अपनी पहचान के कत्ल का मातम मना रहे थे और सरकारी पाबंदियां उनके जख्मों पर नमक छिड़क रहीं थीं।

एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक हजारों लोगों को बगैर किसी वारंट अथवा नोटिस के हथियारों के बल पर गिरफ्तार कर लिया गया। कश्मीर की पूरी लीडरशिप गिरफ्त में थी और उन्हें उनके घरों में नजरबंद कर दिया गया। महबूबा मुफ्ती सईद भाजपा के साथ गठबंधन में सरकार की मुखिया रही हैं। सख्ती का आलम यह था कि उनके साथ भी बदतमीजी की गई। नजरबंद कश्मीर की पॉलिटिकल लीडरशिप को अपने ही घरों में साधारण कैदियों की तरह रखा गया। फोन लाइनें पहले ही काट दी गई थीं। राशन-रसद की आपूर्ति तक के लिए परेशान किया गया। बड़े नेताओं के साथ यह सब हुआ तो आम लोगों के साथ कैसा बर्ताव हुआ होगा, सोचा जा सकता है।

जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट बंदी

कश्मीर में पंजाब से मीट-मुर्गे की थोक सप्लाई होती है। उन दिनों इस पत्रकार ने तथ्यात्मक रिपोर्ट की थी कि वह सप्लाई कई महीनों तक बंद रही। पंजाब और जम्मू-कश्मीर, दोनों राज्यों के व्यापारियों और आम दुकानदारों को करोड़ों रुपए का नुकसान उठाना पड़ा। कश्मीर में तो अंडा भी पंजाब से जाता है तथा खाने-पीने का अन्य सामान भी। यहां से इस सबका न जाना बताता था कि सरकार की मंशा कश्मीरियों को सबक सिखाने की है। दरअसल, घाटी के लोग खाद्य पदार्थों को कई महीनों के लिए स्टोर रखते हैं। उसी से उनका काम चला और बाद में कर्फ्यू में थोड़ी ढील ने कुछ राहत दी। भुखमरी से लोग बीमार हुए और अंततः मौत के हवाले।

पत्रकार अनुराधा भसीन ने प्रेस की स्वतंत्रता, मानवाधिकारों और कश्मीर में संचारबंदी के लिए लंबी लड़ाई लड़ी है। इंटरनेट बंद करने के मामले को वह सुप्रीम कोर्ट तक लेकर गईं हैं। वह जम्मू-कश्मीर के सबसे पुराने अंग्रेजी अखबार दैनिक कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक रही हैं। संचारबंदी बाधित होने के चलते जम्मू-कश्मीर से छपने वाले अखबार अब प्रकाशित नहीं होते। इसलिए भी कि इनमें से ज्यादातर की निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता को स्वाभाविक रूप से सरकार अपने लिए खतरा मानती है। सो 2019 से ही ‘कश्मीर टाइम्स’ का प्रकाशन बंद है। मीडिया पर जैसी पाबंदियां कश्मीर में हैं, शायद कहीं और नहीं। अनुराधा भसीन ने पिछले दिनों कश्मीर पर बहुचर्चित किताब ‘ए डिस्मेंटल्ड स्टेट:द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ कश्मीर आफ्टर आर्टिकल 370’ नामक बहुचर्चित किताब लिखी है।

पत्रकार अनुराधा भसीन

वह कहती हैं, “1990 के दशक में, ऐसा माना जाता था कि अधिकांश कश्मीरी पंडितों को सरकारी खुफिया एजेंसियों के लिए काम करने के संदेह की वजह से मार दिया जाता था। असलियत यह है कि 1990 में मरने वालों में मुसलमान अधिक थे। 90 का दौर आज से बहुत अलग था। उस वक्त आतंकवाद ने नया-नया सिर उठाया था। पाकिस्तान संलिप्त था। आतंकवाद फैल रहा था और आतंकवादी मस्जिदों और इस्लामी नालों के जरिए जमीनी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे। इससे कश्मीरी पंडितों को खतरा महसूस होने लगा। लक्षित हत्याएं बहुत कम हुईं।

सरकारी प्रचार के विपरीत अधिकतर लोगों को उनकी सांप्रदायिक पहचान के लिए नहीं बल्कि सरकार या राजनीतिक दलों के साथ उनके जुड़ाव के कारण मारा गया। राजनीतिक और आर्थिक संस्थानों का बड़े पैमाने पर पुनर्गठन किया गया है। अगस्त, 2019 के बाद कानूनों में लापरवाही से बदलाव किया गया है और विकास तथा रोजमर्रा की जिंदगी के सभी मुद्दे इससे जुड़े हुए हैं। इससे काफी अनिश्चितता पैदा हो गई है और ऐसे आलम में स्थानीय सरकारें कुछ नहीं कर सकतीं। इसके अलावा सत्ता की बागडोर अब सीधे केंद्र के नियंत्रण में है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि कोई भी नहीं राज्य सरकार (काल्पनिक रूप से) कितनी सीमाओं को पार कर अवाम के असली मसले कितना स्वतंत्र होकर हल करने में सक्षम होगी।”

अनुराधा भसीन का मानना है कि विद्रोह के लिए राजनीतिक जोड़-तोड़ और लोकतंत्र का उल्लंघन सीधे तौर पर जिम्मेदार है। मीडिया को सरकार ने पूरी तरह से बंधक बनाया हुआ है लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि 2019 के बाद आतंकवाद कोई बहुत ज्यादा कम नहीं हुआ। 2019 से पहले, आतंकवादी मुख्य रूप से सुरक्षाबलों और प्रतिष्ठानों को निशाना बनाते थे, नागरिकों को नहीं। यह सच्चाई है कि पाकिस्तान से स्थानीय आतंकवादियों को पहले जितना सहयोग नहीं मिल रहा। विशेष दर्जे के खत्म होने से गरीब कृषक जनता को नुकसान हो रहा है।

लाल चौक

सरकार भूमि कानूनों में बदलाव कर रही है, अपने चहेते बाहरी लोगों को व्यवसाय और खनन परियोजनाएं दी जा रही हैं लेकिन ज्यादातर का मन इधर निवेश करने का नहीं है। कश्मीरी आवाम अब इसे लेकर शंकित है कि विशेष दर्जे में बदलाव से जनसांख्यिकीय बदलाव होगा जो उनके वजूद के लिए खतरा खड़ा कर सकता है। सरकारी दावों के विपरीत कश्मीरी पंडितों की असुरक्षा बढ़ गई है। यकीनन मोदी सरकार सन् 2024 के चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए ‘कश्मीर कथा’ का खुला इस्तेमाल कर सकती है। सरकार के इशारे पर गैर- स्थानीय लोगों को भी मतदाता सूची में शामिल करने की कवायद में है। कश्मीरी जनमानस में जनसांख्यिकीय परिवर्तन को लेकर गहरी आशंकाएं हैं जो उन्हें भारतीय राज्य-व्यवस्था से और ज्यादा दूर कर रहे हैं।

गौरतलब है कि पहले हर छोटा-बड़ा राजनैतिक दल कश्मीर को बहुत बड़ी चुनौती के बतौर प्रचारित करता था। अब ऐसा नहीं है। भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में अपना एजेंडा पूरी तानाशाही के साथ लागू किया। अब उसकी चुनौतियों में कई दूसरे मसले-जिनमें कुछ अंतरराष्ट्रीय भी हैं-शामिल हैं। दीगर है कि मणिपुर और नूंह प्रकरण उसे बड़ी चुनौती नहीं लगते।

खालिस्तानी अलगाववादी अमृतपाल सिंह खालसा भी उसके लिए बहुत बड़ी चुनौती नहीं था। था भी इसका प्रचार नहीं किया गया। बावजूद इसके कि केंद्र की तमाम सुरक्षा एजेंसियां वक्त आने पर हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गईं थीं। वह गिरफ्तार हो गया लेकिन पंजाब में जहरवाद के खतरनाक बीज बो गया; जिसकी फसल सुदूर विदेशों तक उग रही है लेकिन भाजपा सहित किसी भी राजनैतिक दल के लिए वह अब बड़ा मसला नहीं है। बेरोजगारी और महंगाई को तो जाने ही दीजिए। नौटंकीबाज भाजपा सरकार का कोई वरिष्ठ नेता तमीज के साथ इन पर बात भी नहीं करना चाहता।

कश्मीर का एक दृश्य

वापिस कश्मीर पर आते हैं। क्या सरकार बताएगी कि 2019 से लेकर अब तक कितने लोगों को वहां हिरासत में लिया गया। दूसरे प्रदेशों की जेलों में तो डाला ही गया, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की कई जगहों को तदर्थ जेलों में तब्दील करके हजारों लोगों को चार साल से बंद रखा हुआ है। पत्थरबाजी की सजा इतनी लंबी होती है? जो कश्मीरी बाहर के प्रदेशों की जेलों में बंद हैं, उनकी कभी अपने घर वालों या वकीलों से बात नहीं हुई। इसलिए भी कि अभी तक यह जाहिर नहीं किया गया कि कितने लोगों की धरपकड़ करके उन्हें बाहर की जेलों की सलाखों के पीछे डाला गया है। यह मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। इसके खिलाफ आवाज भी उठी है लेकिन हर बार सिस्टम और मीडिया के जरिए उसे दबा दिया जाता है। यह सिलसिला कब बंद होगा?

90 फीसदी मीडिया घाटी की जमीनी हकीकत की सही तस्वीर नहीं बताता-दिखाता। कश्मीरी अवाम बेदखली पूर्व इंसाफी की भावना से जूझ रहा है। इस बाबत चार सालों से वहां कुछ नहीं किया गया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक खौफजदा हैं। लाखों लोग आज भी बेरोजगार हैं। ‘विकास’ के वादों-दावों को जमीन निगल गई या आसमान खा गया! युवा पीढ़ी ड्रग्स की अंधी गली में बेतहाशा धंस रही है। घाटी के एक पत्रकार की माने तो नशे बाकायदा सरकार के जरिए मुहैया हो रहे हैं ताकि नई पीढ़ी निष्क्रिय रहे और आतंकवाद से दूर। जो आतंकवाद से दूर हैं, वे सरकारी आतंकवाद की जद में हैं।

लाल चौक पर तिरंगा

इस हकीकत को कौन बताएगा? 5 अप्रैल, 2019 से कश्मीर सूचना के रेगिस्तान से गुजर रहा है और कोई नहीं जानता आगे क्या होगा? जो लोग शारीरिक हिंसा का शिकार नहीं हैं, वे मनोवैज्ञानिक हिंसा का सामना कर रहे हैं!

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पंजाब में रहते हैं।)

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