गद्दर: तेलंगाना की विद्रोही पीड़ा की अनंत आवाज

गद्दर तत्कालीन आन्ध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) में पीपुल्स वार ग्रुप के संगठन जननाट्य मंडली के क्रांतिकारी तेलगू कवि, गायक, संगीतकार, नाटककार का छद्म नाम है। उनके अनुसार जीवन और गीत दोनों की जीवन्तता के आह्लाद को मृत्यु के प्रश्न से अलग करके देख सकना संभव नहीं है। समुदाय ही वह जगह है जहां व्यक्ति मृत्यु जनित ‘आतंक का गहनतम अन्धकार’ और ‘आह्लाद का अस्थायी आवेग’ दोनों साझा कर सकता है। 

गद्दर मृत्यु से उसके ठोस संदर्भों में– वास्तविकता के धरातल पर संवाद करते हैं: हिंसक अन्त, अपनों का अचानक ‘गुम’ हो जाना, परिजनों की मृत्यु: सारा कुछ यथार्थ के ठोस धरातल पर घटित होता है। अपनों को खो देना, गुम हो जाना, मृत्यु: गद्दर के गीतों को अपरिहार्य बना देता है: ये गीत कभी नहीं चुकने वाले शोक के वाहक हैं। दूसरी तरफ इन्हीं गीतों में गुमशुदगी या मृत्यु एक नये रेडिकल रूप में लौट कर असंभव परिस्थिति को संभव भी बना देती है। यह अनुपस्थिति-गुमशुदगी ही गद्दर के लिये अनामों के पहचान की जगह बनाती है: वे अदृश्य स्मृति चिह्न, जो गद्दर अपने गीतों के जरिये रचते हैं, इसी अनन्त शोक से जनित होते हैं।

अपने प्रसिद्ध शोक गीत ‘वन्दनालु’ की रचना गद्दर ने भूमिगत दौर में की थी। 1980 के दशक में क्षेत्रीय अभिजात्य सत्ता वर्ग के सत्ता पर काबिज होने के साथ किसी भी तरह की राजनीतिक असहमति और विरोध के प्रति असहिष्णुता और दमन भी चरम पर पहुंचा। राजकीय श्वेत आतंक का कहर ग्रामीण अंचलों और कस्बों में विशेष रूप से बर्बर था। इसी माहौल में गद्दर भूमिगत हुए थे। 1989 में क्षेत्रीय राजनीति में सत्ता परिवर्तन हुआ और नयी सत्ता की दमन की नीति में कुछ ढील आई। इसके बाद पिछले करीब एक दशक के मृत्यु-गुमशुदगी के शोक के साथ गद्दर के गीतों की वापसी हुई।

वन्दनालु एक आख्यान वृत्त है, एक अभिव्यक्ति, समूची पीड़ा से बनी एक अनन्त देह। यह अदृश्य-पीड़ा उन जीवित दैहिकताओं के स्थायी और कभी न लौट सकने वाले अभाव की है, जो राजसत्ता की हिंसा की पीड़ा झेलते हुए अनन्त-अदृश्य हो चुके हैं। यह वह दैहिकता है, जिसने बिना किसी सुनवाई के क्रूरतम-संस्थाबद्ध यातनाओं की पीड़ा झेली है। इसीलिये वन्दनालु शोक का वह विलाप है जिसका कभी कोई अन्त नहीं है। इस गीत का दर्द उस अनुपस्थित की अनुपस्थिति को, जो अब कभी नहीं लौटेगा, हमेशा के लिये आत्मसात करने, अनन्त काल तक इस अनुपस्थिति के साथ जीवन जीने का माध्यम बनता है।

अनन्त-असहनीय पीड़ा की इस संपूर्ण प्रक्रिया को गद्दर, औरत की जुबान से अभिव्यक्त करते हैं। इस गीत के जन्म लेने की प्रक्रिया के बारे में गद्दर बताते हैं: ‘गीत की थीम तो पकड़ में थी मगर इसकी ट्यून का अन्त लम्बे समय तक पकड़ में नहीं आ रहा था। इस ट्यून को पकड़ पाने में अपनी स्नायु-संवेदनाओं को पूरी तरह से झोंके कई दिन गुजर गये। फिर एक दिन, अचानक मैंने कल्पना की: किस तरह गांवों में मांयें अपने मृत्यु के परे हो चुके बच्चों को याद करती हुई, उन्हें वापस बुलाती हुई विलाप करती हैं। और तब मैं खुद मां बन गया।’

इस तरह एक पुरुष गीतकार और नाट्य कलाकार ने कभी नहीं भर सकने वाले खालीपन और अभाव की पीड़ा की वाचिक और भौतिक अभिव्यक्ति के लिये औरत की आत्मा और आवाज को आत्मसात किया। औरत की यही आवाज उनकी अपनी आवाज बन कर उनके लिये विलाप करती है जो अब कभी नहीं लौटेंगे।

पूरे वन्दनालु के दस छन्दों में कहीं भी मृत्यु का उल्लेख प्रत्यक्ष रूप से नहीं आता। अदृश्य अन्तरालों और अपरोक्ष के माध्यम से उस सर्वथा अपूरणीय क्षति का भान कराया जाता है। मृत्यु के किसी भी प्रत्यक्ष संकेत अथवा अभिव्यक्ति के स्थान पर गीत में उस हमेशा के लिये चले गये की विभिन्न रूपों में वापसी की ललक भरी कामना प्रतिध्वनित होती रहती है। हर छन्द अपने आप में एक सूक्ष्म धारावाहिकता को अभिव्यक्त करता है। हर छन्द भिन्न-भिन्न प्रतीकात्मकताओं के माध्यम से जीवन की मौलिक धारावाहिकता-अनन्तता को सामने लाता है-

जीवन के आने और जाने का क्रम, गायब हो जाने और लौट आने का क्रम। हर छन्द में एक आकांक्षी मातृत्व सतत विद्यमान है: प्रतीक्षारत मां या गर्भवती स्त्री। यह आकांक्षी मातृत्व सामुदायिक जीवन के गैर-मानवीय स्वरूपों में निरूपित होता है: पक्षी (कौवा, मुर्गी), पशु (गाय), ज्वार की फसल, तारे, सूरज। वन्दनालु में मां अपने प्रिय अनुपस्थित को संबोधित करती हुई कहीं भी ‘खो जाने’ की चर्चा नहीं करती, बल्कि मातृत्व को सामने लाती है। यह मातृत्व अनुपस्थित को, एक ऐसे प्रारम्भ को सामने लाता है जिसका भविष्य अनिश्चित-अनुपस्थित है।

गद्दर अपनी रचनाओं को यथार्थ की सपाट रिपोर्टिंग के दायरे में नहीं रखते। रचना उस ‘खो जाने’ की भरपायी कर ही नहीं सकती जिसका वह विलाप कर रही होती है। यह ‘खो जाने’ की छति अपने आप में इतनी अतल गहराई लिये हुए है कि इससे पैदा होने वाला शोक किसी गीत में पूरी तरह समा ही नहीं सकता। इसलिये शोक और गीत दोनों ही अनन्त हो जाते हैं- इन्हें खत्म किया ही नहीं जा सकता। रचना और पीड़ा: ‘खो जाने’ की अनुभूति के बीच का अन्तर कभी पाटा ही नहीं जा सकता।

अस्सी के दशक की शुरुआत से ही गद्दर ने अपने गीतों को न सिर्फ औरत की आवाज में, बल्कि औरत के सवालों के इर्द-गिर्द भी बुनना शुरू कर दिया था- स्त्री के अस्तित्व को मिटा देने की कोशिशों के सवाल, शिशु कन्या हत्या के जरिये मातृत्व के अस्तित्व को मिटा देने की कोशिशों के सवाल…। इन सवालों को खड़ा करते हुए गद्दर कोई अकादमिक लड़ाई नहीं लड़ रहे होते और न ही किसी ‘सबआल्टर्निटी’ की पैरोकारी कर रहे होते हैं। गद्दर की रचनाशीलताके साधन-संसाधन-उद्गम सब कहीं हैं: ‘अगर जनता की आकांक्षायें और प्रतिरोध कहीं जिन्दा हैं तो वे औरतों की आवाजों में जिन्दा हैं।’

गद्दर के गीतों और नाट्य अभिव्यक्तियों में औरत अनन्त रूपों और आवेगों के साथ मौजूद है। औरत के अनन्त रूप और आवेग प्रतीकात्मकताओं, स्वर के उतार-चढ़ाव, लय, थीम, क्रिया-प्रतिक्रिया के बदलावों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। गद्दर की हर नाट्य अभिव्यक्तिमें यह अद्भुत विशेषता दिखती है। आवाज कांपती है, टूटती है, धीमी पड़ती है, हाव-भाव-भंगिमा आवाज का स्थान ले लेती है।

गद्दर की एक विशिष्ट भावव्यंजना उनकी मातृत्व की अभिव्यक्ति थी: वह एक लाल रूमाल को अपनी बांहों में इतनी मृदुता और ममता से लेकर दुलारते-झुलाते हैं मानो वह कोई नवजात शिशु हो। गद्दर की रचनाओं में औरत सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम बन कर नहीं, बल्कि सवाल और ताकत बन कर आती है।

गद्दर पूछते हैं: “उनके पास है ही क्या, हमारे समाज ने उन्हें दिया ही क्या है, सिवाय आंसुओं के।’ और फिर गद्दर औरत को ‘दूर पर्वत शिखर पर जलती हुई आग’ की ओर दिखाते हुए ‘हंसुओं पर धार देने का समय’ आ चुकने का इशारा करते हैं। गद्दर के गीतों में शोक विलाप और मातृत्व औरत के इसी कार्यभार का हिस्सा बन कर गूंजता है।

गद्दर अमर हो चुके हैं । गद्दर की स्मृतियों को लाल सलाम ।

(वीके सिंह, लेखक हैं और बनारस में रहते हैं)

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