पुलिस-वकील तकरार मामला: अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकता है केंद्र

दिल्ली में वकीलों और पुलिस के बीच संघर्ष दिखाता है कि इस देश में कानून-व्यवस्था के किसी भी अंग का स्वयं उस कानून-व्यवस्था पर बहुत कम विश्वास है, जिसकी दुहाई या उपदेश दूसरों के मामलों में कानून-व्यवस्था के अंग अक्सरहां देते रहते हैं। अपने पर आए तो हर कोई मामला शारीरिक बल और एकत्रित शारीरिक बल के दम पर ही निपटाना चाहता है।

एक मामूली पार्किंग विवाद से शुरू हुआ मामला इतना फैल गया कि मारपीट, गोली चलाने, आगजनी और पुलिसकर्मियों की हड़ताल तक जा पहुंचा। वकील और पुलिस दोनों ही पक्ष, दूसरे पक्ष की गलतियों इंगित करके स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन पूरे मामले को देखें तो इसमें निर्दोष तो कोई नहीं दिखता, हां इस पर बहस हो सकती है कि कम दोषी कौन है।

विवाद की शुरुआत तीस हजारी अदालत में एक वकील सागर शर्मा और पुलिस कांस्टेबल प्रदीप कुमार के बीच पार्किंग के मसले पर बहस को लेकर हुई। बहस में और बल में भी पुलिस भारी पड़ी और सागर शर्मा को पकड़ कर पुलिस लॉक अप में ले जाया गया। इससे आक्रोशित वकील इकट्ठे हुए और पुलिस के साथ उनकी झड़प हो गयी। इसी झड़प में पुलिस द्वारा गोली चलायी गयी, जो एक वकील को लग गयी। इसके बाद तो मामला और बिगड़ गया। पुलिस बल के सामने वकीलों का संगठित बल भारी पड़ गया।

इस मामले में कुछ सवाल उठते हैं। मान लीजिये कि पुलिस ने वकील के साथ अभद्रता की और उसे लॉक अप में ले गयी। तब भी क्या शारीरिक बल और हिंसा के प्रदर्शन के बजाय वकीलों को कानूनी ताकत का प्रयोग नहीं करना चाहिए था? क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि वकील संगठित हो कर अदालत का रुख करते और उन पुलिस कर्मियों को कानूनी तरीके से कड़ी सजा दिलवाते जिन्होंने वकील के साथ ज्यादती की ?

पुलिस पक्ष और उसके तौर-तरीके पर भी नजर डाल लेते हैं। दिल्ली में पुलिस मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन करते पुलिस कर्मी सवाल कर रहे हैं-क्या उनके मानवाधिकार नहीं हैं ! निश्चित ही पुलिस के मानवाधिकार हैं और उसके साथ मानवीय सलूक होना चाहिए। लेकिन इस पुलिस के प्रदर्शन में एक और पोस्टर है, जो ध्यान आकर्षित करता है। पोस्टर पर लिखा है-दिल्ली हाईकोर्ट तय करे कि पुलिस को कितनी देर पिटने के बाद आपा खोना है ! आखिर आपा खोने की सीमा ही क्यों जानना चाहती है पुलिस ? प्रश्न यह क्यों नहीं है कि कौन सा कानून वकीलों को हाथापाई का अधिकार देता है ? जब पुलिस कर्मी ये कहते हैं कि हम पुलिस में पिटने के लिए थोड़ी भर्ती हुए हैं तो उसमें यह भाव निहित है कि पीटने का अधिकार तो सिर्फ हमारा यानि पुलिस का है !

यह झड़प पुलिस की वकीलों के साथ हुई, इसलिए एक सीमा तक ज़ोर आजमाइश करने के बाद पुलिस ने धरना-प्रदर्शन का रास्ता चुना। फर्ज कीजिये कि किसी और तबके की पुलिस के साथ मामूली हाथापाई भी हुई होती तो पुलिस कैसे प्रतिक्रिया करती ? ऐसे करने वालों पर मुकदमा तो दर्ज होता ही। उस पूरे इलाके में पुलिस घरों के दरवाजे तोड़ने से लेकर दोषी-निर्दोषों का भेद किए बिना क्षमता भर पीटती और ऐसा तांडव वह अपना विशेषाधिकार समझ कर रचती।

यहां किसी भी हिस्से द्वारा पुलिस पर हमले को जायज ठहराना मकसद नहीं बल्कि अलग-अलग मसलों में पुलिस की अलग-अलग  प्रतिक्रिया को रेखांकित करना है। पुलिस धरना-प्रदर्शन पर इसलिए उतरी क्योंकि वकीलों से और ज़ोर-आजमाइश करने की स्थिति में वह नहीं थी।

निश्चित ही पुलिस को बहुत खराब स्थितियों में भी काम करना पड़ता है। अपराध से निपटने में अपराधियों की राजनीतिक हैसियत के अनुसार कार्रवाई करने का दबाव हमेशा ही पुलिस पर रहता है। कार्रवाई कानून के हिसाब से करने के बजाय अपराधी की राजनीतिक पहुँच-पहचान के हिसाब से करने को पुलिस को मजबूर किया जाता है। अगर इसके खिलाफ पुलिस बल समूहिक रूप से उठ खड़ा होता और कहता कि हम कानून और संविधान के दायरे के बाहर जा कर न किसी को बचाएंगे और न बख्शेंगे तो यह कानून-व्यवस्था के लिए भी अच्छा होता और पुलिस के प्रति भी आम जनता की सकारात्मक राय बनती।

प्रतिवाद करने का चुनाव भी लोग विरोधी की शक्ति को देख करने लगे हैं। उत्तर प्रदेश में पुलिस के एक इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को सत्ता पोषित भीड़ पीट-पीट कर मार डालती है पर पुलिस का खून नहीं खौलता। तो क्या उत्तर प्रदेश की पुलिस का खून, दिल्ली पुलिस के मुक़ाबले बर्फ है, जो अपने एक अफसर की मौत पर भी नहीं खौलता ? या कि दिल्ली पुलिस को वकील राजनीतिक रूप से उतने ताकतवर नहीं लगे, जितने ताकतवर राजनीतिक रूप से इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के हत्यारे थे ?  

और सबसे महत्वपूर्ण यह कि राजनीतिक सत्ता कहां है? वकीलों और पुलिस के बीच झड़प के बाद एक आरजक माहौल बना हुआ है और सरकार नाम की चिड़िया और ताकतवर गृह मंत्री का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने ठीक ही लिखा है कि जरा सोचिए कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन पुलिस के बजाय विपक्ष शासित किसी राज्य की पुलिस हड़ताल पर चली गयी होती तो केंद्र सरकार और भाजपा की प्रतिक्रिया, ऐसी ही चुप्पी वाली होती?

(लेखक इंद्रेश मैखुरी उत्तराखंड के लोकप्रिय वामपंथी नेता हैं।)

इंद्रेश मैखुरी
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