तीस्ता सीतलवाड़ जमानत मामले में गुजरात हाईकोर्ट का फैसला विकृत और विरोधाभासी: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को 2002 के दंगों के मामलों में कथित तौर पर सबूतों को गढ़ने के गुजरात पुलिस मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को नियमित जमानत दे दी। सुनवाई के दौरान, कोर्ट ने गुजरात हाईकोर्ट के जमानत न देने वाले आदेश पर सवाल उठाया और इसे “विकृत” और “विरोधाभासी” बताया।

सोशल एक्टिविस्ट और एनजीओ ‘सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस’ की सचिव तीस्ता सीतलवाड़ पर गुजरात दंगों की साजिश के मामले में कथित तौर पर सबूत गढ़ने और झूठी कार्रवाई शुरू करने के आरोप में जांच चल रही है। शीर्ष अदालत द्वारा 2002 के गुजरात दंगों के दौरान एक बड़ी साजिश का आरोप लगाने वाली जकिया एहसान जाफरी द्वारा दायर याचिका को खारिज करने के एक दिन बाद, साल 2022 में सीतलवाड के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज की गई थी। 

इस याचिका में तीस्ता सीतलवाड़ ने जकिया एहसान जाफरी के साथ एक विशेष जांच दल (एसआईटी) द्वारा दायर क्लोजर रिपोर्ट को चुनौती दी थी, जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री और अब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और 63 अन्य लोगों सहित, राज्य के उच्च पदाधिकारियों द्वारा सांप्रदायिक हिंसा में बड़ी साजिश के आरोपों को खारिज कर दिया गया था। यह सांप्रदायिक हिंसा, गुजरात में, फरवरी 2002 में भड़क उठी थी।

न्यायमूर्ति एएम खानविलकर की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि याचिका ‘बर्तन को उबलने देने’ यानी येन केन प्रकारेण, मामले को जिंदा रखने के पोशीदा मकसद’ से दायर की गई थी। शीर्ष अदालत ने आगे कहा कि कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। अपने आदेश में अदालत ने यह भी कहा कि “गुजरात के असंतुष्ट अधिकारियों और अन्य लोगों का एक साथ ‘मिलकर प्रयास’ करने का उद्देश्य, झूठे सनसनीखेज खुलासे करना था, जिसे गुजरात एसआईटी ने अपनी जांच में ‘उजागर’ कर दिया।” 

पीठ ने टिप्पणी की थी, “आश्चर्यजनक रूप से, वर्तमान कार्रवाई पिछले 16 वर्षों से, बर्तन को उबलते रहने के लिए चल रही है।”

अदालत ने अंग्रेजी का शब्द, to keep pot boiling का प्रयोग किया है। बर्तन को उबालते रहने के लिए, जाहिर तौर पर बाहरी डिजाइन या किसी और द्वारा निर्देशित उद्देश्य के लिए यह सब किया गया, जिसे अदालत ने माना। अदालत ने कहा, “वास्तव में, प्रक्रिया के ऐसे दुरुपयोग में शामिल सभी लोगों को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए और कानून के अनुसार आगे बढ़ना चाहिए।”

फैसले में की गई इन टिप्पणियों के अनुसार, गुजरात के सेवानिवृत्त डीजीपी आरबी श्रीकुमार, तीस्ता सीतलवाड़ और पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत आपराधिक साजिश, जालसाजी और अन्य अपराधों के आरोप में एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी। संबंधित एफआईआर में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का बड़े पैमाने पर हवाला दिया गया है।

25 जून को गुजरात पुलिस के आतंकवाद निरोधक दस्ते ने तीस्ता सीतलवाड़ को मुंबई स्थित उनके आवास से हिरासत में ले लिया था। उनकी जमानत याचिका 30 जुलाई को अहमदाबाद की एक निचली अदालत ने खारिज कर दी, जिसे गुजरात उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। जब इस मामले की अपील सुप्रीम कोर्ट में की गई तो मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने पिछले साल सितंबर में तीस्ता सीतलवाड़ को अंतरिम जमानत इस आधार पर दे दी थी, कि वह दो महीने से हिरासत में थीं और जांच एजेंसी को हिरासत में पूछताछ का लाभ सात दिनों तक मिल चुका था। 

इसके बाद तीस्ता ने गुजरात हाईकोर्ट में जमानत के लिए अपील की। नवंबर 2022 में गुजरात हाईकोर्ट के एक जज जस्टिस समीर जे दवे ने इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया था।

1 जुलाई को गुजरात हाईकोर्ट ने तीस्ता सीतलवाड़ की नियमित जमानत की अर्जी खारिज कर दी, और उन्हें तुरंत आत्मसमर्पण करने का निर्देश दे दिया। यह आदेश न्यायमूर्ति निर्जर एस देसाई की एकल न्यायाधीश पीठ द्वारा पारित किया गया था। उच्च न्यायालय ने पाया कि सामाजिक कार्यकर्ता का इरादा “तत्कालीन मुख्यमंत्री (नरेंद्र मोदी) की छवि को खराब करने और इस तरह उन्हें जेल भेजने और इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने का था” और उन पर एक विशेष समुदाय के लोगों का ध्रुवीकरण करने का आरोप लगाया।”

गुजरात हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने टिप्पणी की, “उन्होंने सिटीज़न फ़ॉर जस्टिस एंड पीस के नाम से एक एनजीओ बनाया, लेकिन उन्होंने न्याय और शांति हासिल करने की दिशा में कभी काम नहीं किया…उन्होंने एक विशेष समुदाय के लोगों का ध्रुवीकरण किया।”

सुप्रीम कोर्ट ने उसी दिन शाम 6:30 बजे उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ एक तत्काल अपील पर सुनवाई की, जिसके दौरान न्यायमूर्ति ओका ने कई बार जोर दिया कि यह उचित होगा यदि आरोपी को उसकी जमानत खारिज होने के बाद आत्मसमर्पण करने के लिए ‘सांस लेने का समय’ दिया जाए। सप्ताह के अंत में उच्च न्यायालय द्वारा, विशेषकर इसलिए क्योंकि अंतरिम जमानत की शर्तों का कोई उल्लंघन नहीं हुआ था।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के इस तर्क पर अड़े रहने के बाद कि, “अदालत को उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील को खारिज कर देना चाहिए,”खंडपीठ ने अंततः इसे मुख्य न्यायाधीश के पास भेज दिया ताकि दोनों पक्षों के बीच आम सहमति की कमी को देखते हुए इसे एक बड़ी पीठ के समक्ष रखा जा सके।

तीस्ता सीतलवाड़ को जमानत दी जानी चाहिए या नहीं, इस सवाल के संबंध में दो न्यायाधीशों की बैठक हुई। कुछ ही घंटों के भीतर, छोटी पीठ द्वारा संदर्भित अपील पर फैसला करने के लिए न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना और दीपांकर दत्ता की तीन-न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया गया और शनिवार रात को एक विशेष बैठक में उक्त पीठ ने सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता को अंतरिम राहत दे दी। एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ दिए गए, गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने एक सप्ताह की अवधि के लिए रोक लगा दी।

यह देखते हुए कि पिछली पीठ ने स्वीकार किया था कि याचिकाकर्ता- एक महिला होने के नाते- आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 437 के तहत विशेष सुरक्षा की हकदार थी, न्यायमूर्ति गवई की अगुवाई वाली पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय की एकल पीठ को यह कानूनी राहत देना चाहिए था।

पीठ ने कहा: “मामले के उस दृष्टिकोण में, मामले की योग्यता पर कुछ भी विचार किए बिना, यह पाते हुए कि विद्वान एकल न्यायाधीश कुछ भी सुरक्षा देने में सही नहीं थे, हम एक सप्ताह की अवधि के लिए उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश पर रोक लगाते हैं।”

जब ग्रीष्मावकाश के बाद मामला फिर से उठाया गया, तो 5 जुलाई को शीर्ष अदालत ने नोटिस जारी किया और तीस्ता को दी गई अंतरिम सुरक्षा अगले आदेश तक बढ़ा दी।

गुजरात हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में लिखा है कि, “हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि विद्वान न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश अध्ययन, एक दिलचस्प शोध का विषय हो सकता है। एक तरफ, विद्वान न्यायाधीश ने यह देखने के लिए पन्ने खर्च कर दिए कि, जमानत के इस चरण में इस बात पर विचार करना न तो आवश्यक है और न ही स्वीकार्य और प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं।”

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में आगे लिखा कि, “विद्वान न्यायाधीश ने एक बड़ी दिलचस्प बात कही है कि चूंकि याचिकाकर्ता ने न तो सीआरपीसी की धारा 482 या संविधान की धारा 226 या 32 के तहत एफआईआर या आरोप पत्र को चुनौती दी है, इसलिए उसके लिए यह कहना स्वीकार्य नहीं है कि प्रथम दृष्टया मामला है, नहीं बनाया गया है। हमें कानून की जो सीमित समझ है, उसके अनुसार, जमानत देने के लिए जिन बातों पर विचार करना आवश्यक है, वे हैं (1) प्रथम दृष्टया मामला, (2) आरोपी द्वारा सबूतों से छेड़छाड़ करने या प्रभावित करने की संभावना तथा  गवाह, (3) न्याय यानी ट्रायल से जानबूझकर दूर भागना। साथ ही, अन्य विचार, जिसमें अपराध की गंभीरता भी है।”

सुप्रीम कोर्ट आगे कहता है, “यदि विद्वान न्यायाधीश की टिप्पणी को स्वीकार किया जाए, तो जमानत के लिए कोई भी आवेदन तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जब तक कि आरोपी कार्रवाई को रद्द करने के लिए आवेदन दायर नहीं कर देता… कम से कम कहने के लिए, गुजरात हाईकोर्ट का यह निष्कर्ष पूरी तरह से विकृत है। दूसरी ओर विद्वान न्यायाधीश कुछ गवाहों के बयानों पर चर्चा करते हैं और पाते हैं कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है। कम से कम यह तो कहा जा सकता है कि निष्कर्ष पूरी तरह से विरोधाभासी हैं।”

शीर्ष कोर्ट ने कहा कि “याचिकाकर्ता से हिरासत में पूछताछ जरूरी नहीं है, क्योंकि मामले में आरोप पत्र पहले ही दायर किया जा चुका है।” ऐसा कहते हुए, शीर्ष अदालत ने गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और तीस्ता सीतलवाड़ को, इस शर्त पर जमानत दे दी कि वह गवाहों को प्रभावित करने या डराने-धमकाने का प्रयास नहीं करेंगी।

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ के समक्ष तीस्ता की ओर से कपिल सिब्बल की ने यह कहकर बहस की शुरुआत की कि, “जकिया जाफरी बनाम गुजरात राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ कोई निष्कर्ष नहीं निकला।”

उन्होंने दलील दी कि,

० एसआईटी ने तीस्ता के खिलाफ भी कोई सुबूत या तर्क नहीं दिए हैं। 

० यह तर्क कि तीस्ता ने गवाहों को समझाया पढ़ाया था, गुजरात राज्य की ओर से सॉलिसिटर जनरल द्वारा दिया गया था। 

० जकिया जाफरी फैसले के अगले ही दिन 25 जून 2022 को एफआईआर दर्ज की गई। 

सिब्बल ने आश्चर्य जताया कि यह आज तक स्पष्ट नहीं है कि, किस जांच के आधार पर एफआईआर दर्ज की गई। उन्होंने कहा, “किसी को तो यह कहना चाहिए कि, दस्तावेज़ मनगढ़ंत थे। क्या कोई जांच हुई है?”

उन्होंने पूछा, “ऐसी क्या जल्दी थी कि, आपने सॉलिसिटर जनरल के बयान के आधार पर फैसले के अगले दिन ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया?”

इसके बाद तीस्ता सीतलवाड़ के वकील कपिल सिब्बल ने पीठ को अवगत कराया कि, “तीस्ता को 2 सितंबर, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम जमानत दी थी और आरोप पत्र 20 सितंबर को दायर किया गया था। उन्होंने कहा कि तीस्ता से न्यायिक हिरासत में पूछताछ नहीं की गई थी और जांच अब पूरी हो गई है। उन्होंने जमानत की किसी शर्त का भी उल्लंघन नहीं किया है। लगाए गए अपराधों में से केवल धारा 468 और 194 आईपीसी गैर-जमानती हैं।”

सिब्बल ने कहा कि “आरोप यह है कि, गलत हलफनामा दाखिल किया गया। अगर ऐसा है तो केवल सीतलवाड़ को ही क्यों गिरफ्तार किया गया है और जिन लोगों ने वास्तव में हलफनामा दायर किया था, उन्हें क्यों छोड़ दिया गया?”

कपिल सिब्बल ने तथ्यों को रखते हुए कहा, “हुआ यह कि, बेस्ट बेकरी मामले में सुनवाई चल रही थी। तब जाहिरा शेख तीस्ता सीतलवाड़ के पास आईं और कहा कि उन्होंने मुझसे एक हलफनामे पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला। तीस्ता सीतलवाड़ ने मानवाधिकार आयोग में शिकायत दर्ज की। तब तीस्ता ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि सभी मामलों को गुजरात से बाहर स्थानांतरित किया जाए। पीड़ितों द्वारा यह हलफनामा हमें दिया गया था।”

सिब्बल ने कहा, “एक विशेष मामले को छोड़कर सभी मामलों में सजा हुई है। और मेरे (तीस्ता के) हलफनामे के आधार पर नहीं, बल्कि प्रत्यक्षदर्शी के बयानों के आधार पर। वे भी इन हलफनामों पर कायम हैं। 20 साल से इन हलफनामे के बारे में कोई शिकायत तक नहीं हुई है।”

उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि “गुजरात उच्च न्यायालय ने एक “अजीब तर्क” अपनाया है कि कथित अपराधों को स्वीकार किया जाना चाहिए क्योंकि याचिकाकर्ता ने आरोप पत्र को रद्द करने के लिए कोई कार्रवाई शुरू नहीं की है।”

उन्होंने कहा, “यह कौन सा कानून है? यह कौन सा तर्क है? ऐसा माना जाता है कि मैंने स्वीकार कर लिया है क्योंकि मैंने धारा 482 सीआरपीसी को कार्रवाई में चुनौती नहीं दी थी? यह पूरे न्यायशास्त्र को उल्टा कर दे रहा है।”

उन्होंने कहा, “यह मुद्दा अदालतों में दायर किए गए हलफनामों से संबंधित है; लेकिन जिन लोगों ने हलफनामे दाखिल किए हैं, उनमें से कोई भी पिछले बीस वर्षों में यह कहने के लिए आगे नहीं आया है कि वे मनगढ़ंत हैं। केवल गुजरात पुलिस कह रही है कि हलफनामे मनगढ़ंत हैं। यदि मामला न्यायालय में दायर झूठे हलफनामे से संबंधित था, तो कार्रवाई शुरू करना न्यायालय का काम है और पुलिस एफआईआर उचित उपाय नहीं है।”

इसके बाद सिब्बल ने गुजरात पुलिस मामले के गवाह रईस खान की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि “खान पहले, तीस्ता सीतलवाड़ का कर्मचारी था, जो जनवरी 2008 में उसकी सेवा समाप्त होने के बाद असंतुष्ट हो गया और तब से उसने सीतलवाड़ के खिलाफ कई झूठे मामले दायर किए। सीतलवाड़ द्वारा रईस खान के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया गया था जिसमें उनके खिलाफ डिक्री पारित की गई है।” 

सिब्बल ने आगे कहा कि “इस व्यक्ति को पुलिस ने “स्टार गवाह” के रूप में पेश किया है, जो अब कहता है कि अहमद पटेल ने गुजरात सरकार को अस्थिर करने के लिए 2002 में तीस्ता सीतलवाड़ को 30 लाख रुपये दिए थे। लेकिन अहमद पटेल, जो अब नहीं रहे, का संदर्भ रईस खान द्वारा दायर पिछली किसी भी शिकायत में नहीं था। और न्यायाधीश ने इस आदमी पर विश्वास करना मुनासिब समझा!”

इसके बाद सिब्बल ने उच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों पर सवाल उठाया कि याचिकाकर्ता की रिहाई से “सांप्रदायिक ध्रुवीकरण” हो सकता है और साथ ही उसके एनजीओ ‘सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस’ के खिलाफ की गई टिप्पणियों पर भी सवाल उठाया।

सिब्बल ने यह भी कहा कि जकिया जाफरी मामले में की गई टिप्पणियां तीस्ता सीतलवाड़ को सुने बिना की गई थीं। उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने तीस्ता के कहने पर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था, क्योंकि सॉलिसिटर जनरल ने उनके अधिकार क्षेत्र पर आपत्ति जताई थी और केवल जकिया की याचिका पर सुनवाई की गई थी। इसलिए प्रतिकूल टिप्पणियां अनुचित हैं।

गुजरात राज्य के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एस. राजू ने पीठ के समक्ष अपना पक्ष रखा। उन्होंने कहा, “याचिकाकर्ता ने गुजरात दंगों के मामलों में राज्य के उच्च पदाधिकारियों को फंसाने के लिए सबूत गढ़े थे और गवाहों को सिखाया पढ़ाया था और उसने निर्वाचित सरकार को अस्थिर करने के लिए विपक्षी दलों से भी पैसे लिए थे।”

इस पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ के जस्टिस गवई ने कहा कि, “उच्च न्यायालय के आदेश में “स्व-विरोधाभास” है। क्योंकि उच्च न्यायालय ने यह कहने के बावजूद कि वह जमानत पर फैसला करते समय आरोपों की दृढ़ता पर विचार नहीं कर सकता है, लगभग अपराध के निष्कर्ष में प्रवेश कर गया है।”

न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि, “यह तय करना कि क्या प्रथम दृष्टया मामला बनता है, सीआरपीसी की धारा 439 के तहत उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। दूसरी ओर, वह कहते हैं कि रईस खान और अन्य गवाहों के हलफनामे हैं और वे यह कहते हैं कि, वह दोषी हैं। यह आदेश में व्याप्त आत्म-विरोधाभास है। एक तरफ वह कहते हैं कि वह विचार नहीं करेंगे। लेकिन दूसरी तरफ..”।

गुजरात राज्य की तरफ से जब एएसजी ने कहा कि, “फैसले में अन्य निष्कर्षों को भी ध्यान में रखा जा सकता है”, तो पीठ ने पूछा कि “वह आदेश के एक हिस्से को नजरअंदाज कैसे कर सकते हैं और केवल अन्य हिस्सों पर विचार कर सकते हैं।”

न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “हम इसे कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं? हमें एक हिस्से पर विचार करने और दूसरे को नजरअंदाज करने के लिए कैसे कहा जा सकता है? कानून का हर छात्र जानता है कि जमानत के लिए प्रासंगिक विचार क्या हैं। आपको यह देखना होगा कि, क्या प्रथम दृष्टया मामला बनता है… अगर भागने का खतरा है, और यदि व्यक्ति सबूतों से छेड़छाड़ कर सकता है..”,

न्यायमूर्ति गवई ने आगे पूछा, “आप 2022 तक क्या कर रहे थे?” 

इस पर एएसजी ने जवाब दिया कि चूंकि, मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, इसलिए राज्य इसमें देरी नहीं करना चाहता।

न्यायमूर्ति गवई ने आगे पूछा, “24 घंटे के भीतर उसे गिरफ्तार करने के लिए आपने 24 जून से 25 जून तक क्या जांच की?” 

एएसजी ने जवाब दिया कि “एफआईआर एसआईटी के निष्कर्षों पर आधारित थी।”

न्यायमूर्ति गवई ने यह भी बताया कि “जकिया जाफरी मामले में तीस्ता सीतलवाड़ को सुने बिना सुप्रीम कोर्ट द्वारा टिप्पणियां की गईं और यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ था। एक याचिका में, जिसमें वह (तीस्ता सीतलवाड़) हस्तक्षेप करना चाहती थीं, और उसके अनुरोध को खारिज कर दिया गया था। कानून के शासन में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत भी शामिल हैं… उनके आरोपों का जवाब देने की अनुमति दिए बिना ही, टिप्पणियां की गईं…।”

एएसजी ने जवाब दिया कि, “उन टिप्पणियों की वैधता इस मामले में कोई मुद्दा नहीं है और उन्हें चुनौती नहीं दी गई है।”

न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “आप हमें बताएं कि अब आपको उसकी हिरासत की आवश्यकता क्यों है?”

एएसजी ने जवाब दिया कि “आईपीसी की धारा 194 के तहत अपराध बहुत गंभीर और जघन्य है।”

इस पर न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “हमारे विचार में केवल धारा 193 ही लागू हो सकती है। लेकिन उस अपराध के लिए सजा केवल तीन साल है।”

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने पूछा कि, “क्या कथित झूठे हलफनामे के किसी भी गवाह के खिलाफ कार्रवाई की गई है।”

न्यायमूर्ति गवई ने एएसजी को चेतावनी देते हुए कहा, “मिस्टर एएसजी हम आपको सतर्क कर रहे हैं। यदि आप इसमें और गहराई तक जाएंगे, तो हम धारा 194 के दायरे की व्याख्या करने और टिप्पणियां करने के लिए मजबूर हो जाएंगे।”

न्यायमूर्ति दत्ता ने पूछा, “शुरुआत में हमें लग रहा था कि धारा 194 के तहत मामला बनता है। लेकिन अब 194 भी संदिग्ध है। इसके लिए आप एक व्यक्ति को विचाराधीन रखना चाहते हैं?”

जब एएसजी ने कहा कि “याचिकाकर्ता का आपराधिक इतिहास है”,

तो न्यायमूर्ति गवई ने पूछा कि “क्या वह किसी 302 आईपीसी (हत्या) के मामले में शामिल थी।”

जैसे ही पीठ जमानत देने का आदेश पारित करने को इच्छुक थी, एएसजी ने अनुरोध किया कि, यदि जमानत देनी ही है तो, इस आधार पर जमानत दी जाय कि, वह एक महिला है।”

लेकिन पीठ ने कहा कि, गुण-दोष के आधार पर विचार करने के बाद अदालत इस तरह का आदेश पारित नहीं कर सकती है।

न्यायमूर्ति गवई ने बताया कि, पहले दिन उन्होंने सॉलिसिटर जनरल से पूछा था कि क्या वह कोई रियायत दे रहे हैं और इससे उन्होंने इनकार कर दिया गया था। तब महिला का बिंदु क्यों नहीं उठाया गया?

(विजय शंकर सिंह पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं।)

विजय शंकर सिंह

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  • ये सुप्रिम कोर्ट भी ज्यादा ही बोलने लगा है सब के सब जज देश विरोधियों के साथ देते हैं

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विजय शंकर सिंह