मोदी के प्रवक्ता बन गए हरिवंश! चाहते हैं सारे नियमों-कानूनों को ताक पर रखकर झारखंड कर दे केंद्र के सामने समर्पण

वास्तव में कोयले के भंडारों को बेचने की साजिश का यह पूरा षड्यंत्र झारखण्ड और उड़ीसा के कोयले के भंडार को समाप्त करने और केंद्र सरकार को चलाने तथा फिजूलखर्ची को चालू रखने के लिए पैसे उगाही की कवायद है। पैसे के बल पर केंद्र सरकार ने अब तक देश की सारी संवैधानिक संस्थाओं पर नियंत्रण बनाकर उन्हें बंद कर रखा है और यह नियंत्रण आगे भी बना रहे इसके लिए केन्द्र सरकार को पैसे चाहिए। पर इतना कहना पर्याप्त नहीं है। यह राज्यों की सम्प्रभुता और आर्थिक स्वतंत्रता पर बहुत बड़ा हमला है। झारखण्ड के मुख्यमंत्री इस बात को समझ गए और सर्वोच्च न्यायालय में चले गए इस फैसले के खिलाफ।

झारखंड ने अपनी याचिका में संघवाद, पर्यावरण संरक्षण और जनजातीय अधिकारों का एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है। झारखण्ड के बाद महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ ने भी केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ आवाज उठाया है। झारखंड में नौ कोयला ब्लॉक 10 जिलों के 47.55 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इनमें से चार कोल ब्लॉक लातेहार जिले में हैं, और एक-एक दुमका, पाकुड़, पलामू, गिरिडीह, हजारीबाग और बोकारो में हैं।

केंद्र सरकार और राज्य सभा के उपसभापति रहे हरिवंश के फर्जीवाड़े से इतर बिजली उत्पादन और कोयले का आयात और उसका उत्पादन एक बेहद गंभीर मसला है। हम बिजली की सकल मांग/ उपभोग का केवल दो तिहाई ही भारत में पैदा करते हैं। सकल बिजली के उत्पादन का दो तिहाई बिजली कोयले से चलने वाले बिजली के ताप संयंत्रों में पैदा होती है। इन संयंत्रों को चलाने के लिए जो कोयला हम इस्तेमाल करते हैं उसमें दो तिहाई कोयला भारत में पैदा करते हैं जो वास्तव में इस्तेमाल के लायक नहीं है। यह भी सही है कि सरकार चाहे किसी की हो उस पर बिजली की जरूरत के लिए आत्मनिर्भर होने का दबाव हमेशा बना रहेगा। तब भारत के लिए रास्ता क्या है? इस पर लौटने से पहले और संविधान की खासतौर पर संघवाद की चर्चा करने से पूर्व प्रदूषण के कुछ आंकड़े और प्रदूषण का अर्थशास्त्र और विज्ञान समझ लें।  

पूर्वी ओहियो में 2006 में किये गए एक अध्ययन में बताया गया कि वहां की बारिश में मौजूद पारा में 70% हिस्सा कोयला दहन का था। उसी क्षेत्र में, गर्मियों में एकत्र किए गए बारिश के नमूनों में 42% पारा की मौजूदगी के लिए एक मील दूर स्थित कोयला आधारित बिजली संयंत्र को जिम्मेदार ठहराया गया था। अम्लीय वृष्टि के लिए कोयला जलने से उत्पन्न होने वाले हाइड्रोजन क्लोराइड और हाइड्रोजन फ्लोराइड कारक होते हैं। कोयले के जलने से निकलने वाला एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन मनुष्यों के तंत्रिका तंत्र को बर्बाद करता है।

कोयले के जलने से Aldehyde, Tetrachlorodioxine, Radium, Naphthalene, Arsenic, Cadmium, Chromium, Nickel, Silenium, Manganese आदि कैंसर कारक हैं। Lead तंत्रिका तंत्र को बर्बाद करता हैं। Methyl Mercury मस्तिष्क को क्षति पहुँचाता है, तंत्रिका तंत्र को बर्बाद करता है, किडनी और जिगर को नुकसान पहुँचता है। 

दूसरी तरफ वनों के नुकसान का बहुत बड़ा खतरा है। झारखण्ड की स्थिति देख लें। झारखंड में जैव विविधता संपन्न वन भूमि में कई कोयला ब्लॉक हैं। उदाहरण के लिए, चकला ब्लॉक में 55% वन कवर है और दामोदर और बकरी जैसी प्रमुख नदियों के लिए जल निकासी के रूप में कार्य करता है। झारखंड के चेरितांड तिलैया में भी 50% क्षेत्र में वन हैं, जबकि सेरगहा ब्लॉक में 40% वन हैं। अब तक झारखण्ड में होने वाले खनन से लगभग 5 लाख हेक्टेयर वनों का सत्यानाश हो चुका है।

झारखंड सरकार की वेबसाइट का कहना है कि झारखंड में वन लगभग 29 हैं। राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का बड़ा प्रतिशत देश की खनिजों की अतृप्त भूख ने राज्य पर अपना कब्जा कर लिया है- दशकों से बड़े पैमाने पर खनन चालू है। बंजर भूमि में जंगलों का बड़ा हिस्सा ’80 के दशक के दौरान कोयला कंपनियों ने अधिग्रहीत कर लिया। दामोदर घाटी में खनन कार्य के लिए झारखंड में हजारों हेक्टेयर जंगल और सिंहभूम जिले में लौह अयस्क निकालने के लिए वन भूमि की भारी तबाही हुई।

1997 में प्रकाशित भारतीय वन राज्य की रिपोर्ट के वन सर्वेक्षण के अनुसार झारखंड में 2.6 मिलियन हेक्टेयर जंगल था। 1999 में, यह 2.2 मिलियन हेक्टेयर था। दो वर्षों में ही वन आच्छादन से 4,00,000 हेक्टेयर भूमि की हानि हो गई। दामोदर घाटी कोयला क्षेत्र में जंगल का आवरण, एक समय 65 प्रतिशत था आज केवल 0.05 प्रतिशत पर खड़ा है। सारंडा, एक समय इतना घना था कि यहां तक कि सूर्य की किरणें भी इसमें प्रवेश नहीं कर सकतीं थी। एशिया की सबसे बड़ी साल (शोरिया रोबस्टा) वन है और यह एक महत्वपूर्ण हाथी निवास स्थान है। आज, लौह अयस्क के लिए अनियंत्रित खनन, कानूनी और अवैध दोनों न केवल जंगल को नष्ट कर रहा है, बल्कि यह वन्यजीव, स्थानीय आदिवासी समुदायों की आजीविका पर भी बुरा प्रभाव डाल रहा है।  

झारखण्ड में वन महत्वपूर्ण रहे हैं। वन रिपोर्टों की स्थिति के अनुसार, 1997 और 1999 के बीच में, सिंहभूम क्षेत्र में लगभग 3,200 हेक्टेयर जंगल खत्म हो गए। 2001 और के बीच 2003 पूर्व और पश्चिमी सिंहभूम जिलों में घने जंगलों में से 7,900 हेक्टेयर जंगल खो गए। सारंडा प्रभावित हुआ है, और आगे की गिरावट के गंभीर परिणाम होंगे इसकी काफी जैव विविधता के लिए।

बहुत से जानकारों का मानना है कि झारखण्ड से कोयले का खनन बंद करने से न केवल वनों को बचाया जा सकेगा बल्कि इन क्षेत्रों में ये वन फिर से उग आएंगे प्राकृतिक तरीके से। बशर्ते कि खनन वाली जगह निमयानुसार मिट्टी से भर दिया जाए। इसका तो अनुभव जन्य साक्ष्य है कि अगर झारखंड में खनन बंद कर दिया गया तो केवल वन उपज से और उस पर आधारित कुटीर उद्योगों से खनन क्षेत्र के मुकाबले झारखण्ड में दस गुना ज्यादा रोजगार पैदा किया जा सकेगा। 

तो यह तो स्पष्ट है कि अगर भारत को कोयला आधारित ताप बिजली घरों पर ही बिजली उत्पादन के लिए निर्भर रहना है (जब तक कि वैकल्पिक स्रोत बना नहीं लिये जाएं) तो इसे अच्छे कोयले का आयात ही करना पड़ेगा जो न केवल पर्यावरण को बचाएगा बल्कि उससे रोजगार भी बढ़ेगा और यही सही और प्रामाणिक अर्थशास्त्र भी है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार न केवल दक्षता और गुणवत्ता को बढ़ाता है बल्कि यह देशों को आत्मनिर्भर भी बनाता है। ऐसा नहीं होता तो जिस इंग्लैंड के मैनचेस्टर ने भारत के कपड़ा बनाने का चरखा और हैंडलूम को ख़त्म किया उसी इंग्लैंड की कपड़ा बनाने की मशीन बनाने वाली एक कंपनी ने भारत में सबसे पहला कपड़ा बनाने की मिल बॉम्बे स्पिनिंग एंड वीविंग कंपनी भी स्थापित की। 

अब हरिवंश ये भी कह रहे हैं कि नयी व्यवस्था के तहत जिलों को सीधे खनन की रॉयल्टी मिलेगी। ये संविधान के किस अनुच्छेद के तहत मिलेगा? भारत में सचमुच एक राजा का शासन हो गया है? राज्य ख़त्म कर दिए गए? या राज्यों की राजनैतिक सम्प्रभुता और आर्थिक स्वतंत्रता ख़त्म कर दिए गए? हरिवंश यह नहीं बताते हैं कि झारखंड का खनिज की रॉयल्टी का 80,000 करोड़ भारत सरकार ने सालों से क्यों नहीं दिये हैं? 15,000 करोड़ जीएसटी क्यों नहीं दी। मोदी सरकार की सारी अय्याशियां राज्यों के पैसे हड़प कर चल रही हैं। पश्चिम बंगाल के तृणमूल के नेता चिल्ला-चिल्ला कर केन्द्र से अपने 50,000 करोड़ बकाया मांग रहे हैं। तो केन्द्र राज्य को उसका बकाया नहीं देगी पर जिलों को सीधे देगी? झारखंड का सारे मद में 1,00,000 करोड़ से ज्यादा बकाया है। केन्द्र पर यह गंभीर आपराधिक मामला है।

भारत में अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (एफ.आर.ए), पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) के प्रावधान, पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986 और पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अधिसूचना, 2006, भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा एवं पारदर्शिता का अधिकार, सुधार तथा पुनर्वास  अधिनियम, 2013 (एलएआरआर) लागू है। हरिवंश यह नहीं बताते हैं कि नीलामी का फैसला कैसे इन कानूनों के खिलाफ नहीं है?

नीलामी का एकतरफा फैसला सर्वोच्च न्यायालय के भी कई फैसलों का उल्लंघन करता है। इसमें,  

11 जुलाई, 1997 का समता बनाम आंध्र प्रदेश सरकार व अन्य मामले में दिया गया फैसला, जिसमें कहा गया था कि सरकार के साथ-साथ अन्य सभी संस्थाएं “गैर- आदिवासी” हैं और केवल आदिवासी सहकारी समितियों को ही उनकी भूमि पर खनन करने का अधिकार है।

18 अप्रैल, 2013 का ओड़िसा खनन कारपोरेशन लिमिटेड बनाम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (नियमगिरि फैसला) में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अपने आदेश में ग्राम सभा के अधिकार को बरकरार रखा और कहा कि यह ग्राम सभा का अधिकार है कि वह अपने क्षेत्र में खनन की इजाजत दे या नहीं। 

8 जुलाई, थ्रेसिअम्मा जैकब व अन्य बनाम भूवैज्ञानिक, खनन विभाग मामले में सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस आरएम लोढ़ा के नेतृत्व में तीन न्यायाधीशों की खंड पीठ ने कहा कि खनिजों का स्वामित्व भूमि मालिक के अंतर्गत आता है।  

25 अगस्त, 2014 को मनोहर लाल शर्मा बनाम मुख्य सचिव व अन्य (कोलगेट मामला) मामले में तीन न्यायाधीशों की एक खंडपीठ ने कहा कि कोयला राष्ट्रीय सम्पदा है जिसे केवल आम लोगों की भलाई एवं सार्वजनिक हित के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए। 

2014 से पहले यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार और कानूनों की अवहेलना करने का आरोप लगाने वाली भाजपा आज खुलेआम संविधान और कानूनों की धज्जियां उड़ा रही है और भ्रष्टाचार में इसने तो छह साल में ही सत्तर साल के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। 

दूसरे अंक में हरिवंश ने टाटा की तारीफ की और कहा कि टाटा की खानें अच्छी चल रही हैं और टाटा की मैनेजमेंट की तारीफ की। तीसरे अंक और चौथे में अपने फर्जी तर्कों को आगे नहीं बढ़ा सके और बैंकों के राष्ट्रीयकरण और बदहाली के कारणों की कहानी लिखने लगे। राज्य सभा की लिए बोली क्यों लगती है? विधायकों को उनके वोट के लिए करोड़ों रुपये क्यों दिए जाते हैं?

पहले दलाल राज्य सभा का चुनाव लड़ते थे अब तो कॉरपोरेट सीधे राज्य सभा के लिए उम्मीदवार तय करने लगे हैं और उनके सारे खर्चे उठाने लगे हैं। नीरा राडिया का मामला उजागर होने के बाद कॉर्पोरेट अब एजेंट नियुक्त नहीं करते हैं एजेंटों को सीधे राज्य सभा में भेज देते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि आज राज्य सभा बड़े कॉरपोरेट घरानों के पूर्ण नियंत्रण में है और 2014 में मोदी की सरकार बनने के बाद उनकी पूरी कैबिनेट इन व्यवसायिक घरानों के इशारों पर काम कर रही है।

खैर इस आलेख पर पूर्ण विराम लगाने से पहले टाटा की एथिक्स की भी जाँच कर लें जिसकी हरिवंश ने तारीफ की। अंग्रेजों ने टाटा को 1919 तक जमशेदपुर में 15725 एकड़ जमीन आदिवासियों से छीन कर दी। आदिवासियों को औने पौने दाम दिए गए। भोले आदिवासी एक वाहियात कानून भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के तहत छीन लिए गए जमीन का प्रतिकार नहीं कर सके। बहरहाल, अंग्रेजों ने ये जमीन टाटा को फैक्ट्री बनाने की लिए दी और उसमें बहुत सारी शर्तें लगाईं। ये जमीन सरकारी अनुदान अधिनियम, 1895 के तहत दिए गए।

उन शर्तों की मुताबिक लगभग 12,500 एकड़ जमीन जो फैक्ट्री बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं हुआ उसे या तो सरकार सार्वजनिक हित में उपयोग करती या  आदिवासियों को वापस करती। पर बिहार के जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह और बिंदेश्वरी दुबे जैसे भ्रष्ट कांग्रेसी नेताओं और भाजपा के अर्जुन मुंडा जैसे भ्रष्ट नेताओं ने टाटा को सरकारी अनुदान अधिनियम, 1895 के तहत दी गयी जमीन को 1984 और 2005 के फर्जी समझौतों द्वारा लीज में बदल दिया और अप्रत्याशित रूप से टाटा को सरकारी भू राजस्व कलेक्टर बना दिया। ऐसा नमूना देश में कहीं नहीं हुआ और यह देश में राज नेताओं द्वारा किये गए  बड़े असंवैधानिक और गैरकानूनी घोटालों और कारनामों में से एक है। 1984 से पहले उस जमीन की कानूनी स्थिति क्या थी?

क्या उसे लीज में बदला जा सकता था? टाटा ने 12,500 एकड़ से अधिक अधिशेष भूमि को कुछ कंपनियों को सब लीज किया और बाकी अपने गुंडों और दलालों को खैरात में बांटे। सर्वोच्च न्यायालय के 1986 में जमशेदपुर में नगर निगम बनाने के दिए गए फैसले को टाटा ने बिहार और झारखण्ड के भ्रष्ट नेताओं के साथ मिलकर लागू नहीं करने दिया। इसी टाटा के लोहे की खान में नंगे पांव और खुले हाथों से काम करती हुई एक 15 वर्षीय आदिवासी लड़की की तस्वीर है जो टाटा की एथिक्स की न केवल धज्जियाँ उड़ाती है बल्कि आदिवासियों के विस्थापन और घोर शोषण की दास्ताँ भी बताती है।  

1981 में टाटा स्टील में हड़ताल हुई थी तब इसमें 73,000 मजदूर काम करते थे और आज सिर्फ लगभग 13,000 मजदूर। टाटा स्टील के गेट पर हर सुबह ठेकेदार, मजदूरों की बोलियां लगाते हैं जिसमें अमूमन बहुसंख्य आदिवासी मजदूर होते हैं और उसमें भी महिलाएं ज्यादा। पहले टाटा स्टील का नारा था इस्पात भी हम बनाते हैं, आज है इस्पात ही हम बनाते हैं।  क्यों? टाटा ने सारे स्कूल बंद कर दिए। वास्तव में टाटा ने जमशेदपुर में कॉलेज नहीं बनाने दिए थे और बड़ी मशक्कत के बाद जमशेदपुर में कुछ कॉलेज खोले गए थे।

टाटा मोटर्स में नए रंगरुटों को जो प्रशिक्षण दिया जाता हैं उसके पैसे भारत सरकार स्किल इंडिया से भुगतान करती है और इन प्रशिक्षुओं से टाटा मोटर्स उत्पादन करवाती है। 1981 की हड़ताल के 23 साल बाद 649 मजदूरों को सर्वोच्च न्यायालय से लौटने के बाद ट्रिब्यूनल में विजय मिली पर टाटा स्टील ने उन्हें नौकरी में रखने से मना कर दिया। यह मामला अभी रांची उच्च न्यायालय में लंबित है और उन 649 अभागे मजदूरों में से आधे की मौत हो चुकी है।

टाटा स्टील की एक सहायक कंपनी टायो रोल्स लिमिटेड को टाटा स्टील ने ऑडिटेड बैलेंस शीट में फर्जीवाड़ा कर बंद कर दिया जबकि उपयुक्त प्राधिकारी (appropriate authority), झारखण्ड सरकार ने अक्टूबर, 2016 के फैसले में औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत कंपनी बंद करने से मना किया था। इसके 300 मजदूर चार वर्षों से बिना वेतन के दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। भाजपा की सरकार ने कुछ नहीं किया। और तो और, टाटा ने टायो की 350 एकड़ जमीन पर गैरकानूनी ढंग से कब्ज़ा कर लिया।

जमशेदपुर में अंग्रेजों की बनाई एक अच्छी कंपनी इनकैब इंडस्ट्रीज लिमिटेड (Incab Industries Ltd.) जो 2000 में रुग्ण होकर बायफर में चली गयी थी उसकी 177 एकड़ जमीन कब्ज़ा करने के लिए टाटा स्टील ने दिल्ली उच्च न्यायालय में 2007 में झूठा हलफनामा दाखिल किया कि वह Incab Industries Ltd.का अधिग्रहण कर चलाना चाहती है और एक लम्बी लड़ाई के बाद जब दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने 2016 में इसे टेक ओवर करने को कहा तो यह मुकर गयी और इस कंपनी के लगभग 2000 कामगारों और उनके बच्चों की जिंदगियां बर्बाद हो गईं। 

दोनों मामले अभी दिवालिया और दीवानी कानूनों के तहत NCLT, NCLAT, रांची उच्च न्यायालय और कलकत्ता उच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। दोनों मामले सर्वोच्च न्यायालय में कई बार जा चुके हैं और आगे भी शायद कई बार जाने की संभावनाएं हैं। टाटा, जमशेदपुर में बिजली और पानी सबसे महंगे दामों में बेचती है और जब राज्य सरकार ने पानी पर सेस लगाया तो इसने सर्वोच्च न्यायालय में कहा कि पानी पर इसका राईपेरियन राइट है।

यह मामला सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय को वापस भेजा और यह झारखंड उच्च न्यायालय में विचाराधीन है। टाटा पर 1000 करोड़ केवल पानी का बकाया है। टाटा की 11 लाख करोड़ की संपत्ति झारखंड के खनिजों की लूट और आदिवासियों के विस्थापन और शोषण का घटिया इतिहास है। टाटा की एथिक्स और अम्बानी-अडानी जैसे व्यवसायिक घरानों की एथिक्स में कहीं कोई अंतर नहीं हैं। टाटा की शर्मनाक कारगुजारियों पर तो एक बड़ी किताब लिखी जा सकती है।

(अखिलेश श्रीवास्तव कलकत्ता हाईकोर्ट में एडवोकेट हैं। और आजकल कोलकाता और जमशेदपुर दोनों जगहों रहते हैं।)

अखिलेश श्रीवास्तव
Published by
अखिलेश श्रीवास्तव