जनता से ज्यादा सरकारों के करीब रहे हैं हरिवंश

मौजूदा वक्त में जब देश के तमाम संवैधानिक संस्थान और उनमें शीर्ष पदों पर बैठे लोग अपने पतन की नित-नई इबारतें लिखते हुए खुद को सत्ता के दास के रूप में पेश कर अपने को धन्य मान रहे हों, तब ऐसे माहौल में राज्य सभा के उप सभापति भी कैसे पीछे रह सकते हैं! इसलिए रविवार को राज्य सभा में किसानों से संबंधित बेहद विवादास्पद विधेयकों को पारित कराने के लिए उप सभापति हरिवंश नारायण सिंह ने जो कुछ भी किया वह अभूतपूर्व है, सदन के नियमों के विपरीत भी है और असंवैधानिक भी है, लेकिन चौंकाने वाला कतई नहीं।

हरिवंश नारायण सिंह के बारे में यह आम धारणा है कि वे समाजवादी आंदोलन और 1974 के जेपी आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं, लेकिन इसमें कोई सच्चाई नहीं है। यह वैसा ही प्रचार है, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने स्वयं के बारे में दावा करते हैं कि वे 1974 में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन में सक्रिय थे और आपातकाल के दौरान भूमिगत रह कर आंदोलनात्मक गतिविधियों में सक्रिय थे। 

हरिवंश समाजवादी और जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले पत्रकारों के काफिले में ज़रूर शामिल रहे लेकिन किन्हीं आदर्शों या मूल्यों की वजह से नहीं, बल्कि महज अपना कॅरिअर बनाने के लिए। उसी काफिले में रहते हुए अपने कॅरिअर के पूर्वार्द्ध में उन्होंने जो कथित जनपक्षीय पत्रकारिता की थी, वह बाद में उनकी कामयाबी यानी न्यस्त स्वार्थों की पूर्ति के लिए सीढ़ी ही बनी। 

एक पत्रकार और संपादक के तौर पर हरिवंश के बारे में लंबे समय तक कई लोगों को यह जानकारी नहीं थी कि वे किस जाति-बिरादरी के हैं। उन्होंने भी एक पत्रकार के तौर पर अपने नाम के साथ कोई जाति सूचक उपनाम नहीं लगाया। लेकिन उन्हें नज़दीक से जानने वाले जानते और बताते हैं कि उनके भीतर शुरू से ही जातिवाद के महीन तत्व गहरे तक छुपे बैठे थे, जिसका समय-समय पर उन्होंने बहुत नफ़ासत और चतुराई के साथ इस्तेमाल करते हुए अपना मनोरथ पूरा किया। उन्हें 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का मीडिया सलाहकार बनाने में भी इसी जातीय समीकरण की भूमिका थी। 

छह वर्ष पहले जनता दल (यू) से राज्य सभा का सदस्य बनकर राजनीति में सक्रिय होने से पहले तक हरिवंश नारायण एक पूर्णकालिक पत्रकार थे। उनकी पत्रकारिता मूलत: व्यावसायिक और अवसरवाद पर आधारित थी। अपनी व्यावसायिक पत्रकारिता के बूते ही वे प्रभात खबर अखबार के प्रधान संपादक बने और कहा जाता है कि उसी पत्रकारिता के दम पर बाद में उस अखबार के आंशिक तौर पर मालिक भी बन गए। उसी अखबार का संपादक रहते हुए उन्होंने अखबार के मुख्य मालिक (ऊषा मार्टिन उद्योग समूह) के व्यावसायिक हितों को साधने के लिए झारखंड की लगभग हर सरकार को ब्लैकमेल किया। खूब पेड न्यूज भी अपने अखबार में छापी और नैतिकता का चोला ओढ़कर प्रभाष जोशी के साथ पेड न्यूज के खिलाफ चलाए गए अभियान में शामिल होने का अभिनय भी किया।

अपने अखबारी संस्थान के दीगर कारोबारी हितों और अपनी दमित राजनीतिक वासनाओं की पूर्ति के लिए ही उन्होंने अपने अखबार का पटना संस्करण शुरू किया। उस संस्करण में नियमित रूप से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का प्रशस्ति गान होने लगा। हरिवंश ने खुद लेख लिखकर नीतीश कुमार को आधुनिक चंद्रगुप्त मौर्य बताया। बदले में नीतीश कुमार ने बख्शीश के तौर पर हरिवंश को राज्य सभा में भेज दिया। उन्हें राज्य सभा में भेजने के पीछे नीतीश कुमार के दो मकसद थे। एक तो उनके अखबार को पूरी तरह से अपनी सरकार का मुखपत्र बना लेना और दूसरा सोशल इंजीनियरिंग के तहत राजपूतों को रिझाना। 

गौरतलब है कि दलित और पिछड़ी जातियों के बाहुल्य वाले बिहार के 17 फीसद सवर्ण मतदाताओं में 5.2 फीसद हिस्सा राजपूत समुदाय का है। माना जाता है कि बिहार की जाति आधारित राजनीति में दो प्रमुख सवर्ण जातियां भूमिहार और राजपूत कभी भी साथ नहीं रहतीं। चूंकि भूमिहार लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं और नीतीश कुमार की पार्टी का भी भाजपा के साथ गठबंधन है, लिहाजा राजपूत समुदाय का समर्थन आमतौर पर लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल को मिलता है। अलबत्ता जहां भाजपा या जनता दल (यू) के राजपूत उम्मीदवार होते हैं वहां ज़रूर राजपूतों के वोट उन्हें मिल जाते हैं।

बहरहाल चूंकि नीतीश कुमार ने हरिवंश को जातीय समीकरण साधने की गरज से राज्य सभा में भेजा था, इसलिए वे राज्य सभा के जरिए सक्रिय राजनीति में आते ही हरिवंश से हरिवंश नारायण सिंह हो गए। वे राज्य सभा में पहुंच कर इतने गदगद हो गए कि उन्होंने नीतीश कुमार की तुलना जेपी और लोहिया से करनी शुरू कर दी। लेकिन इसी के साथ दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी अपनी नजदीकी बढ़ाते रहे और जल्दी ही उनके प्रिय पात्र बन गए। इतने प्रिय कि मोदी ने नीतीश कुमार पर दबाव डाल कर उन्हें उप सभापति बनाने के लिए राजी किया था और नीतीश कुमार ने उन्हें राज्य सभा का दूसरा कार्यकाल भी मोदी की सिफारिश पर ही दिया। जाहिर है कि हरिवंश को दूसरी बार उप सभापति बनाने के लिए नीतीश को मोदी ने ही राजी किया।

उन्हें दोनों ही बार उप सभापति बनाने में बिहार की राजनीति का जातीय समीकरण ही अहम कारक रहा है। गौरतलब है कि इस समय केंद्रीय मंत्रिपरिषद में बिहार के जितने भी मंत्री हैं, उनमें राजपूत जाति से कोई नहीं है। पिछली मोदी सरकार में दो राजपूत मंत्री थे- एक राधामोहन सिंह और दूसरे राजीव प्रताप रूड़ी।

बहरहाल, राज्य सभा में किसान संबंधी विधेयकों को पारित कराने में उप सभापति की हैसियत से हरिवंश नारायण सिंह ने जो कुछ किया, उससे उनकी प्रचलित छवि ही कलंकित नहीं हुई, बल्कि भारत के संसदीय इतिहास में भी एक काला अध्याय जुड़ गया। नियम-कायदों को नजरअंदाज कर मनमानी व्यवस्था देने में उन्होंने सभापति एम. वेंकैया नायडू और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को भी पीछे छोड़ दिया।

संसदीय नियम और परंपरा यह है कि अगर कोई एक सांसद भी किसी विधेयक पर मतदान कराने की मांग करता है तो मतदान होना चाहिए, लेकिन हरिवंश नारायण सिंह ने समूचे विपक्ष की मतदान की मांग को ही नकार दिया। वे नजरें झुकाकर विधेयक से संबंधित दस्तावेज पढ़ने का नाटक करते रहे और नजरें उठाए बगैर ही विधेयक के ध्वनिमत से पारित होने की घोषणा कर दी।

यही नहीं, ध्वनिमत से विधेयक पारित कराते वक्त उनके आदेश पर ही राज्यसभा टीवी ने ऑडियो टेलीकास्ट भी बंद कर दिया। ऐसे में अगर विपक्ष के कुछ सांसदों ने नियम पुस्तिका फाड़ दी और माइक तोड़ दिया तो क्या गलत किया? आखिर किस काम की नियम पुस्तिका, जब सरकार की इच्छा या मनमानी ही नियम बन जाए? वह माइक भी किस काम का, जिसके जरिए सांसदों की आवाज ही जनता तक नहीं पहुंच रही हो।

वैसे सभापति के तौर पर हरिवंश नारायण सिंह का निकृष्टतम रवैया कल पहली बार ही नहीं दिखा। इससे पहले भी वे आमतौर पर विपक्षी सांसदों के भाषण के दौरान अनावश्यक टोका टोकी करते हुए सरकार और सत्तारूढ़ दल के संरक्षक के तौर पर पेश आते दिखते हैं। कुल मिलाकर वे अपने कामकाज और विपक्षी सदस्यों के साथ व्यवहार से उन लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने में कोई कसर नहीं छोड़ते, जिन्होंने इस संवैधानिक और गरिमामय पद के लिए उनका चयन किया है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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