पिछले 10 वर्षों में आप कितने गरीब या अमीर हुए?

नई दिल्ली। बचपन में आपने भी मेरी तरह यह कहावत अवश्य सुनी होगी कि ‘मरा हाथी भी सवा लाख का तो होता ही है” और साथ ही साथ यह भी कहावत पूर्वांचल के जिलों में प्रसिद्ध रही है कि “मूस मोटाये, लोढ़ा होए”। इन दोनों कहावतों का एक ठोस संदर्भ है, और वह है पश्चिमी देशों के साथ होड़ का सब्जबाग दिखाते विश्वगुरु भारत की भ्रामक छवि से।

हाल के वर्षों में कोविड-19 महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध की छाया में अक्सर यह सुनने को मिल रहा है कि पश्चिमी अमीर देशों में लोग महंगाई की मार से तेजी से गरीब होते जा रहे हैं। इसी वर्ष क्रिसमस के मौके पर इंग्लैंड में रिकॉर्ड संख्या में शराब की दुकानें बंद होने की खबरें छाई हुई थीं। देश का लिबरल खेमा देखकर मन ही मन मुदित था कि हम पर राज करने वालों के देखो कैसे दिन आ गये हैं, जबकि भारत देश तेजी से विश्वगुरु बनने की राह पर अग्रसर है।

लेकिन मरा हाथी तो शराब या चाकलेट छोड़ रहा है, अभी उसके वे दुर्दिन नहीं आये हैं कि वह 5 किलो अनाज के लिए लाइन में लगे। अक्सर आसपास की कड़वी सच्चाई नजर नहीं आती, और जब आती है तब तक दुनिया लुट चुकी होती है। इस बात को समझने के लिए हमें श्रीलंका के आम लोगों से तफसील में समझने की जरूरत है।

बहरहाल, इस तथ्य को हम देश में जारी होने वाले सरकारी आंकड़ों से भी समझ सकते हैं। हालाँकि इसे समझने के लिए थोड़ी माथापच्ची अवश्य करनी होगी, जिसे न सरकार और न ही कथित देशभक्त (राष्ट्रवादी) मीडिया बताना चाहता है। 12 जनवरी 2023 को भारत सरकार के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के द्वारा दिसंबर 2023 में खुदरा महंगाई की दर की घोषणा की गई है। इसमें सरकार की ओर से स्वीकार किया गया है कि तमाम कोशिशों के बावजूद दिसंबर माह में मुद्रास्फीति की दर 5.69% दर्ज की गई है।

प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो के इस प्रेस नोट से पता चलता है कि देश में 2012 के मूल्य (100 रुपये) के आधार पर दिसंबर 2023 तक खुदरा मुद्रास्फीति (सीपीआई) किस मुकाम तक पहुंच चुकी है, जिससे देश का आम आदमी अपनी जेब का अंदाजा भी लगा सकता है।

प्रेस नोट में स्पष्ट किया गया है कि इसे सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को कवर करने के लिए कुल 1114 शहरी बाजारों और 1181 गांवों से मूल्य डेटा एकत्र किया जाता है। दिसंबर 2023 के महीने के दौरान, एनएसओ ने 99।9% गांवों और 98.6% शहरी बाजारों से कीमतों के आंकड़े एकत्र किये जाते हैं।

इसी को आधार बनाते हुए अंग्रेजी के अखबार द इंडियन एक्सप्रेस में आर्थिकी मामलों का विश्लेषण करने वाले आर्थिक विशेषज्ञ, उदित मिश्र 2014-15 से दिसंबर 2024 तक के आंकड़ों का हवाला देते हुए अपने पाठकों के साथ जानकारी साझा करते हुए सवाल कर रहे हैं कि पिछले 10 वर्षों में उनकी आर्थिक स्थिति कितनी बेहतर हुई है, या खराब हुई है?

आइये पहले इंडियन एक्सप्रेस में दिए गये आंकड़ों के हवाले से आम भारतीय की आर्थिक स्थिति के बारे में कुछ जरूरी सवालों से दो-चार होने की कोशिश करते हैं-

वर्ष 2014-15 से 2023-24 के काल को मोदी युग के नाम से कह सकते हैं, जिसमें हर वर्ष मुद्रास्फीति की दर और मूल्य सूचकांक की दर को दर्शाया गया है। इस हिसाब से हम देखते हैं कि वर्ष 2014-15 में जिस वस्तु का दाम 100 रुपये था, उसे खरीदने के लिए ग्राहक को दिसंबर 2023 में 164 रूपये चुकाने पड़ रहे हैं। 

उदाहरण के लिए यदि वर्ष 2014 में राहुल कुमार की सैलरी 10,000 रुपये थी, और अपनी तनख्वाह से यदि वे X वस्तुएं खरीद पाते थे, तो उतने ही वस्तु की खरीद के लिए दिसंबर 2023 में उन्हें 16,400 रुपये हर माह मिलने चाहिए। यदि राहुल कुमार की सैलरी में इन 10 वर्षों में मात्र 50% की वृद्धि हुई है, तो उन्हें आज 15,000 रुपये मासिक तनख्वाह के तौर पर मिल रहे होंगे। जाहिर है, उन्हें अपनी जरूरतों में से कुछ चीजों में कटौती करनी पड़ रही होगी।

हां, यदि वे आज 20,000 रुपये प्रतिमाह कमा रहे हैं, तो कहा जा सकता है कि वे और उनका परिवार मुद्रास्फीति का मुकाबला करने में सक्षम है, और अपनी तनख्वाह में वे कुछ और वस्तु या सेवा को हासिल कर पाने में सक्षम होंगे, या बचत या निवेश भी कर पा रहे होंगे।

लेख में 2018-19 से भी तुलना की गई है, और उसके हिसाब से भी मुद्रास्फीति में 32 फीसदी का इजाफा हो गया है। इसकी मदद से आप पिछले 5 वर्षों में अपनी आय और महंगाई का तुलनात्मक अध्ययन कर वास्तविक स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि आम लोगों के जीवन स्तर में लगातार कमी देखने को मिल रही है। दूध, फल और विटामिन-प्रोटीन युक्त भोजन में कमी आई है।

अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के द्वारा भारतीयों के स्वास्थ्य एवं बच्चों में कुपोषण की बढ़ती मात्रा पर आंकड़े प्रकाशित किये जाते हैं, जिसे भारत की सबल सरकार के द्वारा भारत के खिलाफ कुप्रचार बताकर सिरे से ख़ारिज करने का सिलसिला हाल के वर्षों में लगातार बढ़ा है।

लेकिन अगर देश में न्यूनतम मजदूरी के आंकड़ों पर भी गौर करें तो हालात कितने भयानक हो चुके हैं, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है:

2019 से न्यूनतम मजदूरी की दर में इजाफा नहीं हुआ

वर्ष 2014-14 के दौरान भारत में न्यूनतम मजदूरी की दर 137 रुपये आंकी गई थी, जो 2015-16 और अगले वर्ष 160 रूपये हो चुकी थी। 2017 और 2018 में यह दर बढ़कर 176 रूपये हो चुकी थी। वर्ष 2019-20 में 178 रूपये के बाद 5 वर्ष बीत जाने के बावजूद न्यूनतम मजदूरी 178 रूपये से आगे नहीं खिसक सकी है। है न हैरानी की बात! लेकिन क्या किसी भी विपक्षी दल ने इस प्रश्न पर देश को सड़क पर आने के लिए मजबूर किया?

जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस के लेख में 2018-19 से 2023 तक मुद्रास्फीति को लेकर बताया गया है कि इन 5 वर्षों में महंगाई 32% तक बढ़ चुकी है, उस हिसाब से देखें तो न्यूनतम मजदूरी 176 रूपये से मात्र 2 रूपये बढ़कर 2019 में जो 178 रूपये हुई थी, वह आज भी जड़वत बनी हुई है।

एक कामगार के लिए 2023 में बगैर किसी अतिरिक्त बढ़ोत्तरी के वर्ष 2018 की हालत में जिंदा रहने के लिए न्यूनतम मजदूरी की दर कम से कम 232 रूपये होनी चाहिए थी। इसका मतलब तो यह हुआ कि उस व्यक्ति को अपने जीवनयापन के लिए पहले की तुलना में और भी अधिक संघर्ष से दो-चार होना पड़ रहा होगा?     

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की 5 जुलाई 2019 की रिपोर्ट में देश में न्यूनतम मजदूरी में भारी अनियमितताओं का हवाला देते हुए बताया गया था कि आर्थिक सर्वेक्षण में देश के विभिन्न राज्यों में श्रम दर बेहद असमान बनी हुई है।

राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम मजदूरी की दर 176 रूपये भले हो, लेकिन नागालैंड, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश में यह जहां क्रमशः 115, 132, 166, 170 और 171 रूपये है, जो राष्ट्रीय औसत से कम या बेहद कम स्तर पर है, वहीँ कुछ ऐसे राज्य भी हैं, जो राष्ट्रीय औसत से बेहतर मजदूरी दे रहे हैं। इनमें चंडीगढ़, लक्षद्वीप, कर्नाटक, अंडमान और दिल्ली जैसे राज्यों में क्रमशः 376, 401, 411, 451 और 538 रूपये न्यूनतम दर थी।

न्यूनतम मजदूरी के लिए 1,915 विभिन्न राज्यों में विभिन्न श्रेणी के कार्यों के लिए अलग-अलग स्तर निर्धारित किये गये थे, जिसे अकुशल, अर्ध-कुशल, कुशल एवं बेहद कुशल श्रम की चार प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत करने की आवश्यकता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार गारंटी स्कीम मनरेगा का ही उदाहरण लें तो द इकोनॉमिक टाइम्स की वर्ष 2016 की रिपोर्ट से पता चलता है कि उस दौरान देश में कुल 26.16 करोड़ श्रमिक मनरेगा में पंजीकृत थे। यह संख्या भारत के 19.6% आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही थी, जिसमें से 10.86 करोड़ श्रमिक सक्रिय थे।

5.35 करोड़ लोगों ने काम के लिए आवेदन दिया था, जिनमें से 4.82 करोड़ लोगों को रोजगार मिल सका था। औसत प्रति दिन की दिहाड़ी 154 रूपये थी। पश्चिम बंगाल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार से पंजीकृत श्रमिकों का आंकड़ा कुल पंजीकरण के 45% हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है।

वर्ष 2017 में नोटबंदी का असर गहराने लगा था, और बड़ी संख्या में एमएसएमई क्षेत्र की बर्बादी का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह जीएसटी और कोविड-19 महामारी के बाद गहराता चला गया। 2017 में ही देश बेरोजगारी में 40 वर्ष के सबसे बड़े स्तर को छू रहा था, जिसे देश आज तक दूर कर पाने में कामयाब नहीं हो पाया है।

बहरहाल महंगाई (मुद्रास्फीति) को लेकर केंद्र सरकार के आंकड़ों में वर्ष 2012 को base year बनाया गया है। उस लिहाज से देखें तो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सामान्य) 185.7 अंक और खाद्य सूचकांक 190.7 के स्तर पर पहुंच चुका है।

सामान्य भाषा में कहें तो 2012 में 100 रूपये में जितनी मात्रा में किसी वस्तु की खरीद की जा सकती थी, उसके लिए दिसंबर 2023 में 190.70 रुपये की आवश्यकता है। इनमें अनाज, मीट और मछली, अंडे, दूध, चीनी, खाद्य तेल, फल, सब्जियां, दालें, मसाले, पेय पदार्थ, रेडीमेड फूड्स, पान तंबाकू, वस्त्र एवं फुटवियर, आवास, ईंधन, स्वास्थ्य, यातायात एवं संचार के साधन सहित मनोरंजन एवं शिक्षा सहित विभिन्न श्रेणियों का आकलन किया जाता है।

हमारे नीति-नियंताओं एवं देश की नौकरशाही को तो बिल्कुल ठीक-ठीक पता है कि देश और देश की अधिसंख्य आबादी की स्थिति क्या है, लेकिन वह इस बात से भी बखूबी वाकिफ हैं कि कैसे एक बड़ी आबादी बड़ी आसानी से धर्म, जाति, क्षेत्रीय विभिन्नताओं को लेकर पिछड़ी सोच से ग्रस्त होने के कारण आसानी से बहकाए जा सकते हैं।

बाकी बचा मध्य वर्ग, जो लगातार अच्छे दिन की आस में हाथ-पांव मार रहा है, तो उसके लिए आये-दिन वन्दे भारत, सड़क उद्घाटन और 5 ट्रिलियन डॉलर इकॉनमी का सपना दिखाकर अब गोलपोस्ट को 2022 से खिसकाकर 2047 पर केंद्रित किया जा सकता है। वैसे भी उसमें से एक हिस्सा विदेशी भूमि पर जाकर अपनी किस्मत संवारने के लिए तेजी से हाथ-पांव मार रहा है, और लाखों की संख्या में अवैध मार्ग से अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय देशों में प्रवेश की जुगत लगा रहा है।

अभी भी भारत सरकार के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आंकड़े काफी हद तक देश की हकीकत बयां कर रहे हैं, जिसे नीति आयोग जल्द ही नए पैरामीटर लाकर पूरी तरह से बदलने की तैयारी में है, लेकिन फिलहाल अभी इसमें कुछ वक्त है।  

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

रविंद्र पटवाल
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