तेज जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े कितने सच और कितने झूठ?

नई दिल्ली। यह एक बेहद उलझाव में डालने वाला प्रश्न है, जिसको लेकर सटीक अनुमान लगा पाना संभव नहीं है। नीति आयोग, आरबीआई और सरकार के अनुमानों पर यकीन करें तो भारत 2024 में भी 7% की विकास दर को छूने जा रहा है, और इस प्रकार दुनिया में जहां चीन का ग्रोथ इंजन फिलहाल सुस्त पड़ता दिख रहा है, भारत सबसे तेज गति से आगे बढ़ेगा।

आईएमएफ, विश्व बैंक सहित तमाम रेटिंग एजेंसियों के लिए भी भारत एक उम्मीद का किरण बना हुआ है, और हाल के वर्षों में अमेरिका के द्वारा चीन को रोकने की नीति पर आगे बढ़ने, चीन के भीतर जारी आंतरिक बदलाव ने कुलमिलाकर विदेशी निवेशकों को भी चीन+1 की नीति पर अन्य विकल्पों की तलाश में डाल दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसे भारत का समय कहते हैं, और विदेशी निवेश को आमंत्रित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं।

लेकिन क्या भारत के पास वास्तव में तेज विकास दर को बनाये रखने के लिए पर्याप्त कारक मौजूद हैं? आइये इस बारे में कुछ स्थूल तथ्यों के माध्यम से आकलन करने की कोशिश करते हैं-

मनी कंट्रोल की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2023-23 में घरेलू खपत जीडीपी के 57% को कवर करती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि खायेगा इंडिया, तो तेज जीडीपी ग्रोथ भी संभव है। लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले वर्ष खपत में 7.5% की वृद्धि दर की तुलना में यह तीन वर्ष के सबसे निचले 4.4% तक ही रहने वाली है।

गोल्डमैन सैक्स की हालिया रिपोर्ट को आधार मानें तो भारत में लगभग 10 करोड़ लोग 2027 तक प्रति वर्ष 10,000 डॉलर (8 लाख रुपये) से अधिक कमाएंगे। इसी प्रकार मैकिन्से एंड कंपनी के अभिषेक मल्होत्रा के अनुसार, देश में विवेकाधीन खर्च बढ़ने के साथ, यात्रा, आभूषण, बाहर खाने-पीने सहित अन्य चीजों पर खर्च करने की इच्छा तेजी से बलवती हो रही है।

वर्ष 2023 तक ऐसे लोगों की संख्या मात्र 6 करोड़ या कुल आबादी का 4% है जो प्रतिमाह 70,000 रुपये या इससे अधिक कमा रहे हैं। मान लेते हैं कि अगले 4 वर्षों में यह संख्या 6 करोड़ से बढ़कर 10 करोड़ हो जायेगी, और भारत में मध्य वर्ग का विस्तार होगा। 40% वृद्धि खपत को आगे बढ़ाने का काम कर सकती है, लेकिन क्या हम सिक्के के दूसरे पहलू को पूरी तरह से अनदेखा कर सकते हैं?

आज हो यह रहा है कि हर चमकदार पहलू की जमकर चर्चा की जा रही है। भूखे, बेरोजगार और बेहद कम सैलरी पर काम करने वाले लोगों की तादाद तेजी से बढ़ी है। 2000-2011 तक देश में तीव्र विकास दर ने अपेक्षाकृत बड़ी संख्या में करोड़ों भारतीयों को निम्न मध्य वर्ग से मध्य वर्ग तक का सफर तय कराया था।

2012 से 2016 तक भारत मंदी, वित्तीय आरोपों और यूपीए से एनडीए संक्रमणकाल का शिकार बना रहा। 2016 से 2019 के कालखंड में आर्थिक दुश्चक्र के दुष्परिणाम सामने आने लगे, जब नोटबंदी और जीएसटी के चलते बड़ी संख्या में एमएसएमई और नकदी पर आधारित रोजगार और व्यवसायों पर सीधी चोट पड़ने लगी थी।

45 वर्षों में रिकॉर्ड बेरोजगारी के आंकड़े और एमएमसीजी उद्योग ने चिप्स, बिस्किट के पैकेट्स के आकार को छोटा कर दाम स्थिर रख, अपनी बिक्री को बरकरार रखने का भरसक प्रयास किया।

2020 में कोविड-19 महामारी एक प्राकृतिक आपदा बनकर सामने आई, जिसने अर्थव्यस्था में बचा-खुचा कसबल भी निकालकर रख दिया था। लेकिन इसी के साथ एक चीज और भी हुई, जिसपर देश ने फिर कभी ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। वह था, अमीर और गरीब की खाई तेजी से चौड़ी होने की प्रक्रिया।

वास्तव में पीएम मोदी के शब्दों में कोविड काल को व्यवसाइयों को ‘आपदा में अवसर’ यूं ही नहीं कहा गया। देश के बड़े कॉर्पोरेट ने इस अवधि में वास्तव में इसे साकार किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि फार्मा उद्योग ही नहीं अपितु सभी प्रमुख क्षेत्रों में बड़े कॉर्पोरेट समूह का एकाधिकार लगभग पूरा हो गया। कम उत्पादन और लाभ को दुगुना करने के लिए बड़े घरानों की कार्टेलिंग ने भारत ही नहीं दुनियाभर में बड़ी पूंजी को लगभग अपराजेय की स्थिति में ला दिया है।

इसलिए भी आर्थिक विशेषज्ञों द्वारा महामारी बाद की भारतीय अर्थव्यस्था को ‘K-shaped’ अर्थव्यस्था के तौर पर परिभाषित किया जाने लगा है। इसका नेतृत्व आर्थिक रूप से उच्च वर्ग के हाथ में है, जिसे आम भारतीय उत्पादों के स्थान पर प्रीमियम गुड्स की चाहत जोर पकड़ती जा रही है।

हाल के वर्षों में भारत में एंड्राइड फोन के दाम बढ़े हैं, डेटा महंगा हुआ है (चुनाव के बाद तत्काल बड़ी बढ़ोत्तरी के संकेत लगातार आ रहे हैं), लेकिन टू-व्हीलर, ट्रैक्टर्स सहित मारुति कार के बेसिक मॉडल की मांग में लगातार तेज गिरावट का रुख बना हुआ है।

फ्रिज, टीवी और औसत आय वर्ग के द्वारा मकान की खरीद में भारी गिरावट आई है। दूसरी तरफ महंगी एसयूवी गाड़ियां, 1.5 लाख रुपये दाम के फ्रिज, टीवी और 1.5 करोड़ या उससे अधिक के मकानों की मांग में तेजी आई है।

असल में यही वह सेगेमेंट है, जिसे भारत सरकार बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रही है, और विदेशी कंपनियों एवं वित्तीय संस्थाओं के लिए मतलब के लोग हैं। यही छोटा सा वर्ग बड़ी मात्रा में पेट्रोल, डीजल भी खरीद रहा है, और साथ ही रिकॉर्ड स्तर पर सोने के आयात के लिए देश को विदेशी मुद्रा भंडार खर्च करने के लिए मजबूर भी कर रहा है।

इसी के लिए मुंबई से नवी मुंबई जाने के लिए नया सी-लिंक ब्रिज को तैयार किया गया है, जिसका मासिक टोल 12,000 रुपये है, जबकि न्यूनतम दैनिक मजदूरी की दर पिछले 5 वर्षों से 178 रुपये पर अटकी हुई है।  

हालांकि भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य आर्थिक सलाहकार, सौम्य कांति घोष खपत में गिरावट को नकारते हुए ज़ोमैटो के लगातार बढ़ते उपभोक्ता वर्ग का उदाहरण पेश करते हुए आम लोगों के बदतर होते आर्थिक हालात की बात को सिरे से खारिज करते देखे जा सकते हैं। 

ज़ोमैटो के अनुसार, उसके द्वारा मेट्रो, शहरी एवं अर्ध-शहरी क्षेत्रों में करीब 1.4 करोड़ सक्रिय उपयोगकर्ताओं को अपनी सेवाएं प्रदान की जा रही हैं। इसमें से करीब 44 लाख सक्रिय उपयोगकर्ता तो केवल अर्ध-शहरी क्षेत्र से हैं।

लेकिन ये आर्थिक सलाहकार सिक्के का सिर्फ एक पहलू देखते हैं, और कई बार जानबूझकर बढ़ती आर्थिक विषमताओं को अनदेखा करने का सायास प्रयास करते हैं। इनके लिए तस्वीर के चमकदार पहलू को ही दिखाते रहने में ही अपनी और कंपनी की कामयाबी छिपी है, जिसे सरकारी एजेंसियों द्वारा बढ़-चढ़कर दिखा अपनी सफलता के कसीदे पढ़े जाते हैं। अर्थव्यस्था के वास्तविक आंकड़े तो वैसे भी पिछले कुछ वर्षों से सरकार द्वारा रिलीज नहीं किये जा रहे हैं, जो गहरी अनिश्चितता को ही बढ़ा रहा है।

भारत में ज़ोमैटो, एसयूवी वाहनों या आईफोन की खरीद में तेज वृद्धि के आंकड़ों के आधार पर जीडीपी का सटीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि भारत में बड़ी संख्या में युवाओं का आंतरिक विस्थापन जारी है। बेंगलुरु, पुणे, हैदराबाद, मुंबई और गुरुग्राम जैसे शहरों में लाखों की संख्या में इनका जमावड़ा ज़ोमैटो, आईफोन की खरीद को बढ़ावा दे रहा है।

लेकिन हालिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) की बढ़ती धमक ने भारतीय आईटी क्षेत्र में गतिरोध और छंटनी के एक नए ही दौर में प्रवेश करा दिया है। एसयूवी कारों एवं महंगे घरों की खरीद तो फिर भी जारी रह सकती है, क्योंकि इसकी खरीद के लिए एक नया धनाड्य वर्ग भारत में आकार ले चुका है, जिसे आम भारतीय उत्पादों के स्थान पर महंगी और लग्जरी उत्पादों की खपत का चस्का लग चुका है। वह इसे खरीद पाने की सामर्थ्य भी रखता है और उसकी आय में भी निरंतर इजाफा भी हो रहा है।

लेकिन जहां तक खाने-पीने या फैशन/वस्त्रों में भी तीव्र वृद्धि का प्रश्न है, उसके लिए भारत में मध्य वर्ग एवं निम्न मध्य वर्ग की जेब में पर्याप्त रकम की निरंतरता को बनाये रखना होगा, जो कि लगातार अनिश्चत होता जा रहा है।

जहां तक रहा शेष 80% आबादी का तो वह कोविड-19 के बाद उबरने के बजाय और भी बड़े संकट से गुजर रही है। भारतीय अर्थव्यस्था के इस स्याह पक्ष पर शायद ही अब देश के नीति-निर्माताओं, मीडिया और फाइनेंशियल विशेषज्ञों की रूचि बची है।

असल में पूरा फोकस ही अब टॉप-डाउन हो चुका है, जिसके शीर्ष पर करीब 50 बड़े कॉर्पोरेट समूह का एकाधिकार है। भारत का बाजार ही इन 6 करोड़ 70,000 रुपये मासिक या इससे अधिक कमाने वाले लोगों पर केंद्रित हो चुका है, और इन्हीं से 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बनाने की राह तलाशी जा रही है।

ऐसी जीडीपी का क्या हासिल?

मौजूदा वित्त वर्ष में आईफोन के निर्यात के आंकड़े 5 बिलियन डॉलर हैं, जिसे बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है। लेकिन वास्तविकता क्या है? भारत में आईफोन के निर्माण में वैल्यू एडीशन तो 15% के आसपास ही हो रहा है, इसके लिए सभी जरूरी उपकरण तो चीन, ताइवान से ही आ रहे हैं।

इतना ही नहीं भारत सरकार इसके लिए पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) भी जमकर दे रही है। नाम और मुनाफा एप्पल का, कलपुर्जे और बड़े पैमाने पर निर्माण चीन और ताइवान में, लेकिन नाम भारत का हो रहा है। असल में मोदी सरकार के कार्यकाल में अधिकांश विनिर्माण इसी मॉडल पर किया जा रहा है।

इससे सिर्फ जीडीपी के आंकड़े बढ़ते दिखते हैं, और भारत को मेक इन इंडिया की सुखद अनुभूति होती है। इसके लिए पीएलआई स्कीम जैसी भारी कीमत तक चुकाई जा रही है। गुजरात में अमेरिकी कंपनी माइक्रोन का निवेश भी इसी श्रेणी में आता है। अब पीएम मोदी ने एक नया जुमला उछाला है कि जल्द ही भारत में ही बोइंग विमानों का भी निर्माण मेक इन इंडिया की तर्ज पर किया जायेगा।

इन सबसे बाहरी चमक-दमक बनती है, जीडीपी की फिगर देखकर बर्बाद हो रहे करोड़ों लोगों में आशा की किरण बनी रहती है। 2016 से देश की वास्तविक तस्वीर को ढंकने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसे अब लगभग सभी हलकों में स्वीकार्यता मिल चुकी है। यही कारण है कि विकसित भारत संकल्प यात्रा की गाड़ी देशभर में धडल्ले से उन योजनाओं का प्रचार करने में जुटी है, जो वास्तव में 80-100 करोड़ लोगों के लगातार विपन्न और बदहाल सूरत को ही मुंह चिढ़ा रही है।

जीडीपी ग्रोथ और विश्वगुरु बनने की झोंक में अब यूपी, बिहार के भी लाखों लोग डी-मेट अकाउंट खुलवा रहे हैं, और रोजी-रोजगार की गिरी हालत को देख दिन-रात स्टॉक मार्केट में दांव खेल रहे हैं, जिसने पिछले कुछ दिनों से अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है। बचे-खुचे भारतीय मध्य वर्ग के लिए स्टॉक मार्केट की शरण उसे मालामाल करती है या पूरी तरह से बर्बाद करती है, यह तो जल्द ही स्पष्ट होने वाला है।

बुरी खबर यह है कि स्टॉक मार्केट का रिकॉर्ड तो यही बताता है कि इसमें सिर्फ 10% ही बाजी मारते हैं, वह भी 90% का माल समेटकर। फिलहाल करोड़ों नए निवेशकों के लिए यही आखिरी आसरा है, और इसमें ही वे 6 करोड़ संपन्न लोग भी हैं, जिनको लेकर भारत सरकार और विदेशी निवेशक भी टकटकी लगाये हुए हैं।   

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

रविंद्र पटवाल
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