100 से ज्यादा रिटायर्ड नौकरशाहों ने लिखा भारतीयों के नाम खुला पत्र, कहा-देश को CAA,NRC या NPR की कोई जरूरत नहीं

नई दिल्ली। 100 से ज्यादा रिटायर्ड नौकरशाहों के एक समूह ने गुरुवार को भारत के नागरिकों के नाम खुला पत्र जारी कर नागरिकता संशोधन कानून के प्रति अपना विरोध जाहिर किया है। पत्र में विस्तार से लिखा गया है कि देश को सीएए, एनआरसी और एनपीआर की क्यों जरूरत नहीं है।

हस्ताक्षर करने वालों में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन, स्तंभकार और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर और तमाम अन्य समेत दिल्ली के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग शामिल हैं।

पत्र में नौकरशाहों ने लिखा है हालांकि सरकार ने सीएए को एनपीआर और एनआरसी से अलग करने की कोशिश की है लेकिन सच्चाई यह है कि तीनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। और इनका हर तरीके से विरोध होना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने सरकार से सीएए को तत्काल वापस लेने की मांग की है।

पत्र लिखने वाले इन 106 पूर्व नौकरशाहों ने खुद को एक संवैधानिक संचालन समूह के तौर पर एकजुट किया है। उनका कहना है कि उनकी प्राथमिक प्रतिबद्धता भारत के संविधान के प्रति है। उन्होंने बताया कि 2020 में होने वाले एनपीआर का 2021 की जनगणना से कोई रिश्ता नहीं है।  

इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि 2010 के एनपीआर के बरखिलाफ नया संस्करण न केवल माता-पिता का नाम और रिहाइश पूछता है बल्कि उसमें जन्मदिन की तारीख और स्थान दर्ज करने का प्रावधान भी शामिल है। उन्होंने कहा कि “एक शख्स जो अपने और अपने माता-पिता या फिर उसके लिए, या अपने लिए इन विवरणों को नहीं मुहैया करा पाएगा उसे संदिग्ध नागरिक मान लिया जाएगा।”

समूह ने कहा कि पिछले सात दशकों के जनसंख्या के आंकड़े भारत की जनसंख्या में किसी महत्वपूर्ण डेमोग्राफिक परिवर्तन को नहीं दिखाता है इसलिए अवैध प्रवासियों की पहचान करने की कोई जरूरत नहीं है। जैसा कि एनआरसी के तहत प्रस्तावित किया गया है। इसके साथ ही समूह ने कहा कि जबकि ज्यादातर नागरिक आधार कार्ड के तहत रजिस्टर हो गए हैं। तब एनपीआर पर होने वाला खर्च पूरी तरह से गैरजरूरी है।

समूह ने कहा कि हम लोगों को इस बात की आशंका है कि भारतीय नागरिक के स्थानीय रजिस्टर में शामिल करवाने या फिर बाहर करवाने की कवायद में बड़े स्तर पर हेराफेरी हो सकती है। जिसमें स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों के भ्रष्टाचार से लेकर राजनीतिक स्तर पर अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तमाम तरह के अवैध और गैरजरूरी दबाव काम करेंगे।

पूर्व नौकरशाहों ने कहा कि यह पूरा कार्यक्रम एक ऐसे देश में संचालित कर पाना मुश्किल है जहां जन्म का रिकार्ड बहुत कमजोर है। हर तरह के बड़े सर्वे में शामिल करने और निकालने की गलतियां उनकी प्रमुख विशेषताएं रही हैं।

उन्होंने इस सिलसिले में असम का उदाहरण दिया। जहां 19 लाख लोग एनआरसी के रजिस्टर में आने से छूट गए। यह असम की आबादी का 6 फीसदी हिस्सा है। और असम सरकार के लिए इससे ज्यादा अपमानजनक क्या हो सकता है कि वह खुद ही अपने एनआरसी डाटा को खारिज कर रही है। और दिलचस्प बात यह है कि यह राज्य बीजेपी शासित है।

समूह ने लिखा है कि सीएए के प्रावधान के साथ पिछले कुछ सालों में सामने आये सत्तारूढ़ नेताओं के हमलावर बयानों ने भारत के मुस्लिम समुदाय में गहरे अविश्वास को जन्म दिया है। मुस्लिम समुदाय को हाल में पुलिस के भीषण दमन का सामना करना पड़ा है। और यह सब कुछ उन राज्यों में हुआ है जहां बीजेपी का शासन है। उन्होंने कहा कि यह इस बात को साबित करता है कि चुन-चुन कर समुदायों और व्यक्तियों को इसका निशाना बनाया जा सकता है।

हस्ताक्षरकर्ताओं ने सरकार से फारेन ट्रिब्यूनल एमेंडमेंट आर्डर 2019 को वापस लेने की मांग की है। उन्होंने कहा कि यह गैरजरूरी तरीके से इस बात का भय पैदा करता है कि भारत में जिला मजिस्ट्रेट के आर्डर पर फारेन ट्रिब्यूनल बन सकता है और उसको बड़े स्तर पर अवैधा प्रवासियों को पहचान करने का अधिकार होगा।

असम में फारेन ट्रिब्यूनल उन लोगों के लिए बनाया गया था जो एनआरसी से बाहर रह गए थे। असम में इसका अनुभव बेहद खौफनाक रहा है। खासकर ऐसे लोगों के लिए जो इसकी चपेट में आए। उन्होंने कहा कि बहुत सारे लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। या फिर उन्हें डिटेंशन सेंटर भेज दिया गया।

हस्ताक्षरकर्ताओं ने कहा कि मीडिया रिपोर्टों से पता चला है कि केंद्र ने राज्य सरकारों को डिटेंशन कैंप स्थापित करने का निर्देश दिया है। उन्होंने इस बात को भी चिन्हित किया कि पिछले महीने प्रधानमंत्री मोदी का यह बयान कि देश में कोई डिटेंशन कैंप नहीं है की बात झूठ निकली। और विभिन्न राज्यों में उनके निर्माणाधीन होने की रिपोर्ट से वह बयान खारिज हो गया। इसके साथ ही उन्होंने सीएए और एनआरसी को लेकर मोदी तथा अमित शाह के बयानों के अंतरविरोध को भी अपने पत्र में प्रमुख स्थान दिया है।

नौकरशाहों ने कहा कि सीएए का नैतिक तौर पर भी बचाव नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि इससे संबंधित कानून ने जिस तरह से देश में अल्पसंख्य समुदाय के दायरे में आने वाले मुस्लिम धर्म को अपने विचार के दायरे से भी बाहर रखा है वह तमाम आशंकाओं को जन्म दे सकता है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि उत्पीड़ित शब्द कानून के टेक्स्ट में भी मौजूद नहीं है। जबकि सरकार का दावा है कि वह तीन देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देना चाहती है।

और इन सबसे ऊपर उनका कहना था कि इन सारी परिस्थितियों से जो एक खतरा पैदा हुआ है वह यह कि भारत अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी साख को बहुत तेजी से खोता जा रहा है। साथ ही अपने पड़ोसियों को भी अलग-थलग कर दे रहा है। जो इस उप महाद्वीप की सुरक्षा के लिहाज से भी बेहद खतरनाक साबित हो सकता है।

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