मैं होता तो पीएमएलए को खारिज कर देता: रिटायर्ड जस्टिस नागेश्वर राव

भारत के 76 वें स्वतंत्रता दिवस पर सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस नागेश्वर राव ने कहा कि उन्होंने धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के प्रावधानों को बरकरार रखने वाले फैसले में शायद एक अलग दृष्टिकोण लिया होता। जस्टिस एल नागेश्वर राव ने कहा कि इस पर उनकी जजों से राय अलग ज़रूर होती, लेकिन उनके फैसले की आलोचना करना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर वह पीठ के जज होते तो कानून को खत्म कर देते। जस्टिस राव द लीफलेट द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में बोल रहे थे, जिसका शीर्षक था लाइफ एंड लिबर्टी: इंडिया एट 75 इयर्स ऑफ इंडिपेंडेंस।

उन्होंने कहा कि सबसे पहले मैं आपको बता दूं कि मैं उन जजों की आलोचना नहीं कर रहा हूं जिन्होंने फैसला लिखा है। अगर मेरी बात करो तो,मेरा एक अलग दृष्टिकोण है।  मैं इस पर बात नहीं करना चाहता कि यह फैसला गलत है या सही। अगर मैं फैसला लिख रहा होता तो निजी तौर पर मेरी राय कुछ और होती।मुझे बहुत स्पष्ट होना चाहिए, मेरा एक अलग दृष्टिकोण हो सकता था। मैंने जजमेंट पढ़ा है और विभिन्न कानूनी विद्वानों और सेवानिवृत्त जजों द्वारा इसकी आलोचना भी पढ़ी है।

जस्टिस राव ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि निकेश शाह के मामले में अदालत का एक पूर्व निर्णय था, जिसमें अदालत ने पीएमएलए अधिनियम की धारा 45 को मनमाना और अनुच्छेद 14 और 21 के उल्लंघन में घोषित किया था। पीएमएलए फैसले में प्रवर्तन मामले की सूचना रिपोर्ट को एफआईआर के बराबर नहीं होने के न्यायालय के निष्कर्ष पर, जस्टिस राव  ने कहा कि जब प्रवर्तन निदेशालय द्वारा व्यक्तियों को पूछताछ के लिए बुलाया जाता है तो वे नहीं जानते कि वे आरोपी हैं या गवाह हैं या उनकी आवश्यकता क्यों है?

जस्टिस राव ने कहा कि कभी-कभी सरकार आलोचनात्मक आवाजों को दबाने या बदनाम करने के लिए चुनिंदा रूप से असंतुष्टों पर मुकदमा चलाती है। उन्होंने कहा कि जांच एजेंसियों की पहले कार्य करने की आदत के परिणामस्वरूप कई एफआईआर सामने आई हैं। पहले कार्रवाई करने और बाद में मामला बनाने की राज्य की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप एफआईआर दर्ज करने और आपराधिक प्रक्रिया की शुरुआत हुई है। कभी-कभी जांच एजेंसियों ने अपने दिमाग को लागू किए बिना, यहां तक कि यह आकलन किए बिना कि क्या कथित अधिनियम आईपीसी या अन्य वास्तविक दंडात्मक कृत्यों के तहत अपराध के न्यूनतम अवयवों को पूरा करता है, आपराधिक प्रक्रिया की शुरुआत की है।

इसके अलावा जस्टिस राव रिटायर्ड जज ने आर्टिकल 14 द्वारा शुरू किए गए एक डेटाबेस पर भी भरोसा किया, जो एक शोध और रिपोर्ताज पहल थी, जिसमें बताया गया था कि 2010-2021 के बीच राजद्रोह के लगभग 13,000 मामले थे और बताया गया कि उनमें से केवल 126 लोगों का ही ट्रायल समाप्त हो पाया और उसमें से 13 को राजद्रोह के द्रोह के आरोप में दोषी ठहराया गया, जो इस तरह के आरोपों का सामना करने वालों का 0.1% है।

जस्टिस राव ने विभिन्न विषयों को छुआ, जिसमें जमानत कैसे नियम है और जेल अपवाद है, धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 को बनाए रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उनका रुख और और न्यायपालिका में उनका विश्वास शामिल है। भारतीय जेलें विचाराधीन कैदियों से भरी पड़ी हैं यह दोहराते हुए कि जमानत नियम है और जेल अपवाद है, जस्टिस राव ने कहा कि यह एक निर्विवाद वास्तविकता है कि भारत में जेलों में विचाराधीन कैदियों की भरमार है।

जस्टिस राव ने कहा कि पीएमएलए के तहत स्वतंत्रता से संबंधित पहलू मुख्य रूप से प्रवर्तन मामले की सूचना रिपोर्ट (ईसीआईआर) से संबंधित था, जो एक प्रथम सूचना रिपोर्ट के बराबर है। उन्होंने दर्शकों से कहा कि मुद्दा यह है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा पूछताछ के लिए बुलाए जाने पर व्यक्तियों को ईसीआईआर नहीं दिया जाता है। वे वास्तव में नहीं जानते कि वे आरोपी हैं या गवाह हैं, और उनसे क्या मांगा जाता है।

जस्टिस राव ने स्वीकार किया कि एक सामान्य भावना है कि पीएमएलए का फैसला व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए एक झटका है। हालांकि आपके सामने ऐसे कई फैसले आएंगे जहां अदालत कह रही है कि स्वतंत्रता की रक्षा की जानी है। दिसंबर 2021 में, एक मामला था जो भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के सामने आया, जहां उन्होंने एक टिप्पणी की कि ईडी द्वारा पीएमएलए में लोगों को अनावश्यक रूप से मामलों में घसीटा जाता है। फिर उन्होंने कहा कि यह प्रक्रिया अपने आप में एक सजा बनती जा रही है।

इस सवाल पर कि क्या फैसले के बाद स्वतंत्रता की अवधारणा में कोई बदलाव आया है, उन्होंने कहा कि मुझे डर नहीं है। स्वतंत्रता की अवधारणा, जो पिछले 75 वर्षों में विकसित हुई है, स्पष्ट रूप से इस प्रभाव के लिए है कि अदालतें किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के पक्ष में हैं।

कुमार अंतिल बनाम सीबीआई की ओर इशारा करते हुए जस्टिस राव ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने जांच एजेंसियों के साथ-साथ अदालतों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 और 41 ए का अनुपालन न करने के निर्देश जारी किए हैं। इसके अलावा उस मामले में कोर्ट ने नोट किया था कि अधिकांश विचाराधीन कैदियों को संज्ञेय अपराध, जिसमें सात साल या उससे कम की सजा हो सकती है, पंजीकरण के बावजूद गिरफ्तार करने की आवश्यकता नहीं है।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई को पीएमएलए के प्रावधानों की वैधता को बरकरार रखा था। फैसले में मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में सख्त जमानत शर्तों को बरकरार रखा गया। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पीएमएलए कानून में किए गए बदलाव ठीक हैं और ईडी की गिरफ्तारी करने की शक्ति भी सही है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अपराध से बनाई गई संपत्ति, उसकी तलाशी और जब्ती, आरोपी की गिरफ्तारी की शक्ति जैसे पीएमएलए के कड़े प्रावधान सही हैं। इस एक्ट के कई प्रावधानों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली 242 याचिकाएं शीर्ष अदालत में दाखिल की गई थीं, जिन पर कोर्ट ने फैसला सुनाया। कुछ लोगों का कहना है कि ये संविधान के अनुच्छेद 20 और 21 द्वारा प्रदान की गई बुनियादी सुरक्षा के खिलाफ है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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