हाल में संपन्न राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम के विधानसभा चुनावों में कई कारणों से पूरे देश की भारी दिलचस्पी थी। भाजपा पिछले दस सालों से केंद्र में सत्ता में है और उसने जो नीतियां लागू की हैं, उनका देश पर भयावह प्रभाव पड़ा है। चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी हो या रातोंरात लागू किया गया कोरोना लॉकडाउन– सबसे आम जनता की खासी फजीहत हुई।
देश में सरकारें और ज्यादा तानाशाह होती जा रही हैं और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं पर तरह-तरह की रोकें लगाई जा रही हैं। हंगर इंडेक्स में देश की गिरती हुई स्थिति और लोगों की बढ़ती परेशानियां बहुत कुछ बता रही हैं। भाजपा सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 को कश्मीर से हटा दिया है। हमें बताया गया था कि इससे अतिवाद कम होगा। मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
देश भर में मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर हमले जारी हैं और अलग-अलग स्थानों पर ईसाइयों के खिलाफ भी हिंसा हो रही है। इस पृष्ठभूमि में विपक्षी पार्टियों ने इंडिया गठबंधन का गठन किया। ऐसा कहा जा रहा था कि यह गठबंधन हमारे संविधान में निहित ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ को संरक्षित रखने का प्रयास करेगा। सन 2024 के लोकसभा चुनाव के सिलसिले में इस गठबंधन से बहुत उम्मीदें थीं।
मगर ऐसा लगता है कि विधानसभा चुनावों के नतीजों ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। कांग्रेस के राज्य-स्तरीय नेतृत्वों ने मनमानी करते हुए गठबंधन के अन्य दलों की उपेक्षा की। इससे दूसरी पार्टियां काफी नाराज़ हो गईं और गठबंधन के और मज़बूत होने की राह बाधित हो गयी।
कांग्रेस केवल तेलंगाना में जीत हासिल कर सकी और हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में उसे हार का सामना करना पड़ा। ये नतीजे चौंकाने वाले हैं क्योंकि अधिकांश एग्जिट पोल्स ने भविष्यवाणी की थी कि इन राज्यों में कांग्रेस का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहेगा। इसलिए, कांग्रेस की हार एक पहेली बन गयी है।
यह सही है कि यदि कांग्रेस का अन्य राष्ट्रीय एवं छोटे दलों के साथ गठबंधन होता तो उसका प्रदर्शन बेहतर होता। फिर भी, इन राज्यों में उसकी हार का तर्कसंगत स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता। लोकसभा चुनाव के लिए अपनी रणनीति बनाते समय इस पहलू पर इंडिया गठबंधन के सदस्यों को ध्यान देना होगा।
इन परिणामों का एक पक्ष यह भी है कि अधिकांश दक्षिण भारत भाजपा मुक्त हो गया है। कुछ टिप्पणीकारों का तर्क है कि भाजपा की हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति के प्रति समर्थन मुख्यतः हिन्दी-भाषी राज्यों या काऊ बेल्ट तक सीमित है। कांग्रेस और अन्य दलों को इस तथ्य की ओर भी ध्यान देना चाहिए कि उसके तमाम दावों के बावजूद भाजपा की स्थिति बहुत मजबूत नहीं है।
यदि हम इन पांच राज्यों में डाले गए कुल वोटों की बात करें तो कांग्रेस को 4.92 करोड़ वोट मिले हैं जबकि भाजपा को 4.81 करोड वोट ही हासिल हुए हैं। इसके अलावा मिजोरम, जहां अभी तक एनडीए गठबंधन की सरकार थी, भी उसके हाथ से निकल गया है।
कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटने के बारे में भी कयास लगाए जा रहे हैं। यह कार्यकर्ताओं की त्वरित प्रतिक्रिया हो सकती है। लेकिन समय बीतने के साथ पार्टी कार्यकता, तेलंगाना की जीत और प्रतिद्वंद्वी भाजपा की तुलना में अच्छे खासे अधिक वोट हासिल करने को लेकर दुबारा जोश में आ सकते हैं।
समय के साथ निराशा का भाव समाप्त हो जाएगा क्योंकि नेतृत्व स्थिति का सामना करने का हर संभव प्रयास कर रहा है। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ इस दिशा में एक बड़ा कदम थी। पर्दे के पीछे कई कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा किए जा रहे कार्यों और जोश पुनर्जीवित होने से पार्टी के उत्साह पर सकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशा की जा सकती है।
महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि क्या वे सभी दल, जो इंडिया गठबंधन में शामिल थे, एक बार फिर गठबंधन के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करेंगे? चुनाव के नतीजों से इंडिया गठबंधन को धक्का लगा है। इन तीन बड़े राज्यों में कांग्रेस की हार से कांग्रेस नेतृत्व चिंतन करेगा और उन गलतियों को सुधारने का प्रयास करेगा जिनके चलते गठबंधन के अन्य सदस्य नाराज हैं।
विपक्षी दल यह अच्छी तरह जानते हैं कि वे अलग-अलग रहकर भाजपा की विशालकाय चुनावी मशीनरी का मुकाबला नहीं कर सकते। भाजपा के पास मानव संसाधन और धन प्रचुर मात्रा में हैं और उसमें दादागिरी करने की भी बहुत क्षमता है। मीडिया भी केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी के चरणों में नतमस्तक है।
विपक्षी दलों को यह एहसास भी है कि भाजपा अकेली नहीं है। उसे आरएसएस के प्रचारकों और स्वयंसेवकों की पूरी सहायता उपलब्ध है। वे यह भी जानते हैं कि आरएसएस के सहयोगी संगठन वीएचपी, एबीवीपी, बजरंग दल, वनवासी कल्याण आश्रम और उससे जुड़ी अन्य संस्थाएं हर चुनाव में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
चुनावी बांडों से प्राप्त अकूत धन, हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा को एनआरआई का समर्थन और बड़े उद्योग समूह, जिन्हें भाजपा बहुत तरह की छूटें दे रही हैं, सब भाजपा के मददगार हैं। इस तथ्य से भी वे अवगत हैं।
विपक्षी दलों को यह अहसास भी है कि भाजपा देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की ओर ले जाना चाहती है। वह खुलकर और दबे-छुपे ढंग से भारतीय संविधान के मूल्यों को कमजोर कर रही है। ईडी, आयकर विभाग व सीबीआई का विपक्षी पार्टियों के नेताओं को प्रताड़ित करने में जिस तरह दुरुपयोग किया जा रहा है, वह भी इन पार्टियों को एक साथ लाने में मददगार होगा। हां, सभी को कुछ खोने और कुछ पाने के लिए तैयार रहना होगा।
कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व, विशेषकर राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खडगे, मिलकर चुनाव लड़ने के लिए ज़रूरी त्याग करने के लिए तैयार हैं। विधानसभा चुनावों में वे भले ही राज्य स्तरीय नेतृत्व को सभी पार्टियों के साथ सहयोग करने के लिए राजी न कर पाए हों लेकिन लोकसभा चुनाव में ऐसा नहीं होगा। राहुल गांधी ने कहा है कि विपक्ष को एक रखने के लिए कांग्रेस कोई भी त्याग करने के लिए तैयार है। उन्होंने बिलकुल ठीक कहा है कि आने वाला आम चुनाव केवल चुनाव न होकर वैचारिक युद्ध होगा।
अभी ऐसा लग सकता है कि विभिन्न विपक्षी दल अलग-अलग दिशा में भाग रहे हैं। मगर सम्भावना यही है कि लोकसभा चुनाव की औपचारिक घोषणा से पहले ही इंडिया गठबंधन की मज़बूत बना लिया जायेगा और वह भाजपा-आरएसएस की विघटनकारी राजनीति से मुकाबला करने में सक्षम हो जायेगा।
बहुसंख्यकवादी राजनीति द्वारा जिस ढंग की नफरत फैलाई जा रही है वह प्रजातंत्र को लम्बे समय तक जीवित नहीं रहने देगी। विपक्ष को यह समझना चाहिए कि शैक्षणिक संस्थाओं सहित राज्य तंत्र की विभिन्न संस्थाओं में हिन्दू राष्ट्रवादियों की घुसपैठ गंभीर चिंता का विषय है।
इन सारे मुद्दों पर विचार कर विपक्ष एक होगा, हम यह मान सकते हैं। और अगर वह एक हो गया तो चुनाव जीतना उसके लिए बहुत मुश्किल नहीं होगा। चुनाव में विजय, देश को हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडा के चंगुल से निकलने की दिशा में पहला कदम होगा।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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