विचारधाराओं का संघर्ष न हो तो राजनीति कैसी?

विचारधाराओं का द्वंद्व, इससे उत्पन्न होने वाला सच, इस सच से एक नई सिंथेसिस का जन्म और फिर से एक बड़े सच के लिए संघर्ष। क्या ऐसे रचनात्मक संघर्ष के बगैर राजनीति का कोई महत्व है भी? क्या इसके बगैर राजनीति में समाज के विभिन्न वर्गों के हितों का सही प्रतिनिधित्व संभव है भी? क्या भारतीय राजनीति में विचाधाराओं का महत्व समाप्त हो चुका है? आम तौर पर समूचे राजनीतिक परिदृश्य और ख़ास तौर पर महाराष्ट्र का महानाटक देखने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हमारी राजनीति जा किस दिशा में रही है।

विचारधारा का महिमामंडन करने वाली कई पार्टियां दिखती तो हैं। नेता भी विचारधारा की दुहाई देते सुनाई देते हैं। कुछ वर्ष पहले आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति में एक नई उम्मीद लेकर आई थी। भ्रष्टाचार से मुक्त सरकार की बातें पार्टी ने इतनी जोर देकर कही थीं कि लोगों का उस पर अच्छा खासा भरोसा जमने लगा था। पर इस तरह के वादे करना और बाद में मुफ्त की रेवड़ियां बांट देना काफी नहीं होता। यह सब प्रगतिशील विचारधारा का हिस्सा नहीं होता। दफ्तरों की दीवारों पर क्रांतिकारी भगत सिंह और संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर की तस्वीरें भर लगाना काफी नहीं होता। यह भी एक बड़ा सच है, जो अब लोगों के सामने आ रहा है।

महाराष्ट्र में तो शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस जैसे अपने राजनीतिक शत्रुओं के साथ मिलकर ही सरकार बना डाली। बाद में तीन में से दो टूट गए और उनके अधिकांश विधायक भाजपा में मिल गए। बंगाल में पंचायत के चुनाव हुए और मेरे एक ख़ास मित्र ने, जो बंगाल के गांव से ताल्लुक रखते हैं, बताया कि उसके परिवार के लोगों को बूथ तक जाने भी नहीं दिया गया। दूर से लौटा दिया गया, यह कहते हुए कि आपके वोट पड़ चुके हैं। ऐसे कई लोग होंगे, यह काम बंगाल की राजनीतिक परंपरा का हिस्सा बरसों से रहा है। बाकी वहां की हिंसा तो अलग कहानी कह ही रही है।

इस तरह की कई घटनाओं को देखकर लगता है कि विचारधारा का कोई महत्व नहीं रहा भारतीय राजनीति में। जिनके पास विचारधारा और उसके प्रति पर्याप्त ईमानदारी है, उनके पास सत्ता नहीं, जैसे कि कम्युनिस्ट पार्टियां। इसमें सबसे विचित्र बात जो उभर कर आती है वह यह है कि विचारधारा की अहमियत वहां कम हो गई है जहां होनी चाहिए, पर यदि कोई पार्टी विचारधारा को लेकर वास्तव में ईमानदार है और जी-जान से उस पर अडिग है, तो वह भाजपा ही है।

भले ही उसकी विचारधारा से प्रगतिशील वर्ग और वामपंथियों को एलर्जी हो, हो सकता है उसे लोग विचारधारा मानने के लिए तैयार ही न हों। पर विचारधारा प्रतिक्रियावादी भी हो सकती है। जरूरी नहीं कि वह प्रगतिशील ही हो। आयेगी तो वह विचारधारा की श्रेणी में ही। लोग भाजपा की विचारधारा से चिढ सकते हैं, उससे नफरत कर सकते हैं, पर सच तो यही है कि भाजपा अपनी विचारधारा पर अडिग रही है। जैसे-जैसे सत्ता में उसका समय बीतता जा रहा है, वैसे वैसे। उसे मानों यह भरोसा हो चुका है कि धर्म और राष्ट्रवाद का मिश्रण भारतीय सामूहिक मन का स्पर्श करता है, उसके मस्तिष्क को उद्वेलित करता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसके लिए यह वोटों में तब्दील होता है।

पिछले दो लोकसभा चुनावों के दौरान वोटर स्पष्ट रूप से यह सवाल पूछने लगा: आखिर मुझे इस चुनाव से क्या फायदा होगा? वह अधिक व्यक्ति-केन्द्रित हो गया है। न कहीं ऐसा लगता है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी ने बाकी दलों से बेहतर इस प्रश्न के निहितार्थ को अच्छी तरह समझ लिया है। इस सवाल का जवाब देने की कोशिश के साथ ही भाजपा ने उसमें राष्ट्रवाद और धर्म का तड़का भी लगा दिया है।

युवा मन पर इसका असर देखने के लिए आप को महाकाल मंदिर और काशी विश्वनाथ मंदिर में उस समय जाना होगा जब वहां आरती होती है। धर्म देश के युवाओं में कितनी ऊर्जा पैदा कर देता है, यह देख कर आश्चर्य होता है। कैसे एक इतना ऊर्जावान वर्ग अपनी ज़मीनी समस्याओं को भूल कर शयन आरती और भस्म आरती जैसे कार्यकर्मों में शामिल होता है यह किसी भी समाजशास्त्री और राजनीति के अध्येता के लिए भी बड़ा रुचिकर होगा।

2019 में पुलवामा और बालाकोट के बाद भाजपा राष्ट्रवाद के गीत को पूरे जोर-शोर के साथ गाने लगी। दूसरी तरफ कांग्रेस राफेल और “चौकीदार चोर है” का अपना नारा लेकर राजनीतिक स्पेस में अपनी जगह ढूंढती रही। एक तरफ राष्ट्रवाद और धर्म का मिश्रण प्रस्तुत करने वाले कामयाब लोग और दूसरी तरफ उन्हें ही ‘चोर’ घोषित करने वाले लोग। जनता को पहले वाले ही रास आये और विचारधाराओं के बीच एक स्वस्थ संघर्ष निर्मित नहीं हो पाया।

जब कांग्रेस जैसी पार्टी इस हालत में आ गई है, तो छोटी क्षेत्रीय पार्टियों की दुविधा तो समझी ही जा सकती है। विपक्षी दलों ने लगातार मुस्लिमों की सुरक्षा की बातें बार-बार दोहराई। बस डीएमके और कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ कर किसी भी पार्टी ने विचारधारा के आधार पर चुनाव नहीं लड़ा। बाकी विपक्ष ने तो मिलजुल कर भाजपा और नरेन्द्र मोदी के लिए जीत को आसान बना दिया।

1989 से ही धर्मनिरपेक्ष राजनीति की जड़ें कमज़ोर पड़ती गई हैं। भाजपा को हराने के लिए विपक्षी दलों ने मुस्लिमों का कल्याण करने की बजाय उनका इस्तेमाल शुरू कर दिया है। इस रवैये से मुस्लिमों को भी कोई खास फायदा होता नहीं दिख रहा। राजनेताओं ने उनके मन में डर पैदा किया और स्वयं को उनका उद्धारक बना पर प्रस्तुत करने की कोशिश की। भाजपा लगातार इस डर को निराधार और काल्पनिक बताती रही है। कुछ वर्षों में ही धर्मनिरपेक्षता की ये बातें विफल होने लगीं और भाजपा को इसका भी फायदा मिला। इसी वजह से भाजपा धर्मनिरपेक्ष वोट को लगातार मुस्लिम वोट का पर्याय साबित करने में लगी रहती है।

इसी बीच भाजपा अपनी राष्ट्रवादी-हिंदूवादी विचारधारा को और अधिक पैना बनाती रही है। उसकी परिभाषा को और तराशती गई है। इसके साथ उसने ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा भी जोड़ दिया है। यह जानते हुए भी कि मुस्लिम आम तौर पर उस पर भरोसा नहीं करते, भाजपा ने एक नया विश्वास जगाने का प्रयास किया। यह कहीं काम आया, और कहीं विफल भी रहा।

केरल और तमिलनानाडु को छोड़ कर, जिनका भाजपा के लिए अधिक महत्व नहीं है, बाकी राज्यों में भाजपा को किसी अकेले नेता या परिवार के इर्द-गिर्द निर्मित पार्टियों से चुनौती मिली। ये चुनौतियां आन्ध्र, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, दिल्ली और महाराष्ट्र में सामने आईं। पर अब इन दलों को भी फिर से सोचने की जरूरत है। परिवार टूट जाया करते हैं, आज के वफादार नेता कल बिक जाया करते हैं, या सरकारी एजेंसियों के भय से विचारधारा और पार्टी त्याग देते हैं।

कमोबेश देश की राजनीति की स्थिति यही है। राजनेताओं के बयानों, उनके हाव-भाव, पहनावे पर बहस करना राजनीति नहीं। यह सब तो बचकाना है। राजनीति का अपना एक झूठ है, और राजनीति का एक सच है। झूठ को एक तरफ सरका कर, उसमें छिपे सच की तरफ बढ़ना, उसकी तलाश में लगे रहना, उस सच के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक धरातलों की पड़ताल ही राजनीति की एक वैज्ञानिक समझ की तरफ ले जाती है।

वह हर पार्टी जो आज भाजपा से लड़ना चाहती है, जो उसे एक ‘दानव’ के रूप में, ‘लोकतंत्र के हत्यारे’ के रूप में प्रक्षेपित करना चाहती है, उसे बहुत ही क्रूर ईमानदारी के साथ यह आत्ममंथन करना पड़ेगा कि आज की परिस्थितियां निर्मित करने में उनका खुद का क्या रहा योगदान हैं। पूरी ऊर्जा के साथ अपनी कमियों और अपने विराट राजनीतिक शत्रु की राजनीतिक खूबियों और त्रुटियों का विश्लेषण करके उसको भी समझना पड़ेगा। और खासकर कांग्रेस को तो एक आधुनिक विचारधारा के साथ सामने आना ही होगा। पुराने राग अलापना बंद करना होगा। शायद तभी हम स्पष्ट रूप से दो भिन्न विचारधाराओं के संघर्ष और उससे उपजे नए राजनीतिक सत्य की दिशा में बढ़ पाएंगे।

बाकी गरिया तो हम किसी को भी सकते हैं। यह तो आसान काम है। विचारधारा से उसका क्या लेना देना।

(चैतन्य नागर लेखक एवं टिप्पणीकार हैं।)

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