अमरीका में काफी गहरी हैं नस्लवाद की जड़ें

अफ्रीकी-अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड की बेरहम हत्या के बाद न केवल 140 से ज्यादा अमरीकी शहरों में, बल्कि दुनिया भर के देशों के सैकड़ों शहरों में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ उग्र आंदोलन चल रहे हैं। कुछ लोगों को यह लगता है कि यह पुलिस क्रूरता का मामला है इसलिए अपवाद है, और फिर से अमरीका अपने अंतर्निहित ‘महान मूल्यों’ को अंगीकार कर लेगा। लेकिन आज के अमरीका में इन ‘महान मूल्यों’ का भ्रम लगातार नंगा हो रहा है। वाशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार अमरीका में पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने की घटनाएं आए दिन होती रहती हैं।

अखबार द्वारा इन घटनाओं के इकट्ठा किए जा रहे आंकड़े अब तक 4400 तक पहुंच चुके हैं। वहां ब्लैक्स की संख्या मात्र 13 फीसदी है लेकिन पुलिस की गोली से 25 फीसदी ब्लैक मारे जाते हैं। एक श्वेत की तुलना में एक अश्वेत के पुलिस की गोली से मारे जाने की आशंका चार गुना रहती है। एक रिपोर्ट के अनुसार नशे के कारोबार और सेवन में श्वेत और अश्वेत लोगों की संख्या लगभग बराबर है, लेकिन इन मामलों में होने वाली गिरफ्तारियों में अश्वेत के गिरफ्तार होने की आशंका श्वेत की तुलना में 2.7 गुना ज्यादा है। वहां की जेलों में छोटे-मोटे अपराधों से लेकर बड़े अपराधों तक के मामलों में अन्यायपूर्ण तरीक़े से वर्षों से बंद 20 लाख लोगों में ज्यादातर अश्वेत हैं।

‘महान अमरीकी परंपरा’ की चमकीली पैकिंग के भीतर अमरीकी सत्ता-संस्थानों और समाज में घृणा, क्रूरता और तानाशाही की प्रवृत्तियां चुपचाप रिसती रहती हैं। वहां आए दिन स्कूलों में होने वाली गोलीबारी, ग्वांतेनामो की खाड़ी में दशकों से दिन-रात चल रहा सभी मानवाधिकारों से बलात्कार, हिरोशिमा, नागासाकी से लेकर वियतनाम और इराक तक असंख्य बेगुनाहों का संहार, ये सब घटनाएं इन्हीं रिस रही प्रवृत्तियों के क़तरे हैं। एक ऐसा देश जिसकी सेनाएं और सैन्य अड्डे दुनिया में सबसे ज्यादा जगहों पर हैं, जो दुनिया के किसी भी देश में अपनी नापसंद की कोई भी सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकता, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से 2000 ई. के बीच जापान, फिलीपींस, लेबनान सहित दुनिया भर में कम से कम 81 सरकारों के चुनाव की प्रक्रिया में खुले आम या गुप्त रूप से हस्तक्षेप किया, जिसने चिली, क्यूबा, इंडोनेशिया, वेनेजुएला, ब्राजील, मेक्सिको सहित अनेक देशों में चुनी हुई सरकारों के खिलाफ तख्तापलट की साजिशें कीं, जिसने पूरे दक्षिण अमरीका में लोकतंत्र को ध्वस्त करके वहां अपनी कठपुतली सरकारें बैठाईं, जिसने जनसंहार के हथियार होने का झूठा आरोप लगाकर न केवल इराक को तबाह कर दिया बल्कि उसके इर्द-गिर्द की पूरी भू-राजनीति पर लंबे समय तक के लिए ग्रहण लगा दिया, और जहां का समाज पूरी दुनिया में अमरीकी नेतृत्व में कॉरपोरेट पूंजी द्वारा लूटे जा रहे बेशुमार अधिशेष और सुपर प्रॉफिट के टुकड़ों पर ही अपना जीवनयापन कर रहा है, वह अमरीका भला लोकतंत्र के महान मूल्यों का रक्षक कैसे हो सकता है?

आज की अमरीकी राजनीति ने केवल मुखौटा हटाया है। उसे चुनने वाले निर्वाचक मंडल ने अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुरूप ही अपना प्रतिनिधि चुना है, और इस प्रतिनिधि ने अपनी सहज भद्दगी को ढकना और अभिनय करना बंद कर दिया है। अमरीकी समाज में गहराई तक जड़ जमाए हुए घृणा और अलोकतांत्रिकता की पड़ताल करने के लिए हमें अमरीकी इतिहास पर एक सरसरी निगाह डालना जरूरी है।

अमरीकी ऐश्वर्य की चकाचौंध की पृष्ठभूमि में इस स्वघोषित महान सभ्यता की आत्मा पर वहां के स्थानीय मूल निवासियों की सिसकियों, आहों, कराहों, चीत्कारों, लहू और लाशों का बेहिसाब कर्ज है। 12 अक्टूबर 1492 को इस धरती पर पड़े क्रिस्टोफर कोलंबस के कदमों ने जहां युद्धों से जर्जर और फटेहाल यूरोप में समृद्धि और इसी समृद्धि पर आधारित औद्योगिक क्रांति की नींव डाली, वहीं इन्हीं कदमों ने इस धरती के मूल निवासियों के साथ ही अफ्रीका महाद्वीप के लोगों पर भी बेहद अमानवीय दमन, उत्पीड़न और यातनाओं के एक दीर्घकालिक सिलसिले की शुरुआत कर दी। चूंकि कोलंबस ने पहले इस क्षेत्र को ही इंडिया समझा था अतः यहां के मूल निवासियों को उनकी त्वचा के तांबई रंग के कारण ‘रेड इंडियन’ कहा जाने लगा। धीरे-धीरे इस उच्चारण में घृणा का पुट बढ़ता गया। कोलंबस जब पहली बार स्पेन वापस लौटा था तब वहां के राजा द्वारा उसके सम्मान में आयोजित जुलूस में वहां से गुलाम बना कर लाए गए छह मूल निवासियों का भी प्रदर्शन किया गया था।

फिर भी मूलतः खानाबदोश प्रकृति के इन मूल निवासियों को गुलाम बनाकर इनसे तंबाकू और कपास के फार्मों तथा खदानों में काम कराना आसान नहीं था। अमरीका के पूर्वी तटों पर लगातार विकसित हो रहे यूरोपीय उपनिवेशों के चलते उपनिवेशों और इन मूल निवासियों के बीच संघर्ष बढ़ता गया। अमरीकी उपनिवेशों ने इन मूल निवासियों के खिलाफ आधिकारिक तौर पर घोषित लगभग 1500 युद्ध लड़े। इतिहास में इन्हें ‘इंडियन वॉर्स’ कहा जाता है। दुनिया भर में औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा मूल निवासियों के खिलाफ इतने युद्ध इतिहास में कहीं और दर्ज नहीं हैं। बड़ी संख्या में इनका संहार हुआ और इनको अमरीका के दक्षिण-पश्चिम इलाक़ों तक सिमट कर रह जाना पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक सोलहवीं सदी के आरंभ में यहां के मूल निवासियों की संख्या लगभग 10 से 15 करोड़ के बीच थी, जो 19 वीं सदी के अंत तक घटकर मात्र 2 लाख 38 हजार रह गई। नस्लवाद की जड़ों की पड़ताल इन आंकड़ों के बिना नहीं की जा सकती।

A group of freed African American slaves along a wharf during the United States Civil War.

अब गुलामों के बारे में बात करते हैं। यूं तो यूरोप में पंद्रहवीं सदी में भी अफ्रीकी लोगों को गुलाम बना कर काम कराया जाता था और इसे धार्मिक संस्थाएं भी उनके गैर-ईसाई होने के नाम पर जायज ठहराती थीं। लेकिन अमरीका में विकसित हो रहे नए उपनिवेशों के लिए बड़ी संख्या में गुलामों की जरूरत बढ़ने के के बाद तो गुलाम-व्यापार में अभूतपूर्व तेजी आ गई। 1510 ई. के आस-पास यह नए सिरे से शुरू हो चुका था, लेकिन 1518 ई. में स्पेन के राजा चार्ल्स प्रथम द्वारा इसे मान्यता दे देने के बाद तो कुख्यात ‘त्रिकोणीय व्यापार’ ने बेखौफ रफ्तार पकड़ लिया। अटलांटिक महासागर के इस व्यापार त्रिभुज में यूरोप से शराब और हथियारों से भरे हुए जहाज अफ्रीका के पश्चिमी तट पर पहुंचते थे। इस शराब और हथियारों के बल पर यूरोपियनों द्वारा अफ्रीका में पाले-पोषे गए दलाल सरदारों द्वारा स्थानीय लोगों को पकड़ा जाता था। अफ्रीका से सबसे तंदुरुस्त और मजबूत लोगों को पकड़ कर, हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़ कर जहाजों के तंग केबिनों में ठूंस दिया जाता था।

अफ्रीकी समुद्र तटों से अमरीकी तटों तक की यह यात्रा इतनी नारकीय होती थी कि इन केबिनों में सांस लेने भर की भी पर्याप्त हवा नहीं होती थी। मल-मूत्र और समुद्र-यात्रा के दौरान होने वाली उल्टियों से इनमें गंदगी का अंबार लग जाता था। कई बार इनके बीच हैजा फैल जाता था। यात्रा पूरी होते-होते कई लोग अपनी बेबसी से तंग आकर आत्महत्या तक कर लेते थे और कुछ लोग भुखमरी और बीमारियों का शिकार होकर रास्ते में ही मर जाते थे। कई बार रास्ते में मर जाने वालों की संख्या 25 फीसदी तक हो जाती थी। जो बचते थे, उन्हें वहां के गुलाम बाजार में बेचा जाता था। इनसे बेहद बर्बरतापूर्ण तरीक़ों से काम कराया जाता था और इस तरह उत्पादों को लूट के माल की तरह लगभग मुफ्त में इन्हीं जहाजों में भर कर यूरोप भेजा जाता था। इस तरह यूरोप की औद्योगिक क्रांति की नींव इन दो महाद्वीपों के प्राकृतिक, आर्थिक और मानवीय संसाधनों की इस खुली लूट के आधार पर पड़ी।

अश्वेतों के उत्पीड़न की याद में बना एक मेमोरियल।

यह अमानवीयता आगे सैकड़ों वर्षों तक चलती रही। हालांकि अमरीका के उत्तरी उपनिवेशों में छोटे फॉर्मों और अलग तरह की खेती के कारण गुलामों की जरूरत कम थी। इस वजह से वहां का जनमानस आम तौर पर दक्षिणी प्रांतों की गुलामी की प्रथा के विरुद्ध था। ऐसी कई घटनाएं हुईं जिनमें दक्षिण से जान बचाकर भागे हुए गुलामों को उत्तरी उपनिवेशों में प्रश्रय मिला। मुक्ति के लिए छटपटाते गुलामों के कुछ प्रयास सफल भी हो जाते थे लेकिन असफल प्रयासों का हश्र बहुत ही भयानक होता था। ऐसे ही एक असफल प्रयास से प्रेरित हैरिएट बीचर स्टो के 1852 ई. में प्रकाशित उपन्यास ‘अंकल टॉम्स केबिन’ ने गुलामी की अमानवीय और बर्बर प्रथा को दुनिया के सामने लाने और अमरीकियों की भी संवेदनाओं को झकझोरने में अहम भूमिका निभाई।

अंततः 1860 के दशक में अब्राहम लिंकन के नेतृत्व में उत्तरी प्रांतों ने अमरीकी गृह युद्ध में जीत हासिल की और 1 जनवरी 1863 को ‘मुक्ति का घोषणपत्र’ लागू हुआ जिसने 30 लाख ग़ुलामों को मुक्त घोषित कर दिया। अलग-अलग प्रांतों ने अगले कुछ वर्षों में ग़ुलामों की मुक्ति के अलग-अलग अधिनियम पारित किए। लेकिन मानसिकता में बदलाव अधिनियमों में बदलाव से ज्यादा अहमियत रखता है। इसी ‘श्वेत श्रेष्ठता’ ने 15 अप्रैल 1865 को अब्राहम लिंकन को गोली मार दिया। गोली मारने वालों की विरासत अभी भी मौजूद है और सक्रिय है। अमरीका में अब भी तमाम समूह और संगठन मौजूद हैं जो अन्य रंगों के लोगों के प्रति भयंकर हिकारत का भाव रखते हैं और श्वेतों के उन्नत प्रजाति का होने के दंभ से मगरूर रहते हैं।

किसी भी समस्या को हल करने की शुरुआत तभी से हो जाती है जब हम समस्या की पहचान कर लेते हैं और स्वीकार कर लेते हैं कि हां समस्या है। लेकिन पाखण्ड हमें बहानेबाजी की ओर ले जाता है। अमरीकी मानस को पहले तो यह स्वीकार करने की जरूरत है कि ‘श्वेत लोगों की श्रेष्ठता’, का भाव उनमें काफी गहराई तक बैठा हुआ है। इसी वजह से ‘व्हाइटमेन’स बर्डेन’ (यानि पूरी दुनिया को सभ्य बनाने और सबका उद्धार करने का बोझ श्वेत लोगों के सर पर है), जैसी अभिव्यक्तियां बार-बार आती रहती हैं। अमरीका में ऐसे अधकचरे शोध बार-बार प्रकाशित होते रहते हैं जिनमें श्वेत लोगों और खास करके पुरुषों का दिमाग अश्वेतों और महिलाओं की तुलना में ज्यादा बड़े या विकसित बताए जाते हैं। ऐसी धारणाएं उनमें पहले से ही जड़ जमाए पूर्वाग्रहों से मेल खाती हैं इसलिए काफी लोकप्रिय भी हैं। 

श्रेष्ठता का यह भाव खुद राष्ट्रपति ट्रम्प के उद्गारों में उद्दंडता की हद तक दिखाई पड़ता है। मेक्सिको से आने वाले प्रवासी कामगारों को नशे का कारोबारी, अपराधी और बलात्कारी बताना, ऐसे अपराधों को अफ्रीकी मूल के अमरीकियों के मत्थे मढ़ते रहना जिनमें अदालतें श्वेत अपराधियों को सजा सुना चुकी हैं, सभी विपरीत तथ्यों के बावजूद पूर्व राष्ट्रपति ओबामा पर बार-बार आरोप लगाते रहना कि उनका जन्म अमरीका में नहीं हुआ था, अमरीका में अपराधों तथा श्वेतों की हत्याओं का गुनहगार अफ्रीकी मूल के लोगों को ठहराने के लिए धृष्टतापूर्वक गलत आंकड़े पेश करते रहना, अपने चुनाव प्रचार के दौरान श्वेत कामगारों के मन में अश्वेतों और प्रवासियों से रोजगार की असुरक्षा का भाव भरना, अभी 2019 में डेमोक्रेटिक पार्टी की महिला सांसदों को यह कहना कि वे क्यों नहीं जाकर उन देशों को सुधारती हैं जहां से वे आई हैं, एक संवाददाता सम्मेलन में सीएनएन की अश्वेत संवाददाता एबी फिलिप को यह कहना कि तुम बहुत बेवकूफी भरे सवाल पूछती हो। ये ऐसी असंख्य घटनाओं में से मात्र कुछ उदाहरण हैं।

लिंच कर अश्वेतों को सजा देते ह्वाइट।

राष्ट्रपति प्रेस कांफ्रेंस में खुले आम नस्लीय और लैंगिक तंज कस रहे हैं और सवालों का जवाब देने से मना कर देते हैं। अभी हाल में ही सीएनएन के अश्वेत रिपोर्टर को विरोध-प्रदर्शनों को कवर करते समय गिरफ्तार कर लिया गया। राष्ट्रपति विरोध-प्रदर्शनों के खिलाफ सेना उतारने की धमकी कई बार दे चुके हैं। अश्वेतों और अल्पसंख्यकों के मामलों में पुलिसिया कार्रवाई का बचाव करना, श्वेत लोगों के वर्चस्व को मानना और एक इतनी महंगी न्याय-प्रणाली जिसका खर्च केवल धनाढ्य लोग वहन कर सकें, यह अमरीका में बिल्कुल सामान्य सी बात है। लेकिन यह सब तथाकथित महानता के पर्दे से ढका रहता है। लेकिन अंतर यह आ गया है कि आज के राजनीतिक परिवेश को इस पर्दे की जरूरत ही नहीं रही। अन्य तानाशाहियों की तरह यहां भी राष्ट्रपति में सैन्यवादी रुझान खूब हैं, सहसा भद्दे और अश्लील तंज भरे घिसे-पिटे मजाक कर देना उनके लिए नई बात नहीं रही और उनके दौर में हिंसा और बल-प्रयोग के संस्थानों ने अपने छिपे हुए नख-दंत दिखाना शुरू कर दिया है।

राष्ट्रपति ट्रम्प केवल एक व्यक्ति नहीं हैं, एक प्रवृत्ति और एक सोच के प्रतिनिधि हैं और उनका चुनाव और उनको भारी समर्थन अमरीकी मानस के उस रुख का द्योतक है कि नफासतों के दिखावे की जरूरत नहीं है, बल्कि अपनी ग़लाज़तों और हिकारतों पर गर्व किया जाना चाहिए। अतः जॉर्ज फ्लायड की हत्या को ‘महान अमरीकी परंपराओं’ के बीच होने वाले इक्का-दुक्का अपवादों की तरह लेने और शुतुरमुर्ग की तरह सिर को रेत में घुसा कर सच्चाई को अस्वीकार कर देने की बजाय आंखों में किरचों की तरह चुभने वाले उन आंकड़ों के आईने में देखा जाना चाहिए जो चीख-चीख कर बता रहे हैं कि अमरीका में श्वेत-श्रेष्ठता और अहंकार, अश्वेतों तथा अन्य लोगों के प्रति कमतर इंसान होने का भाव और अलोकतांत्रिकता काफी गहराई तक व्याप्त है।

बहुत सारे देशों और समाजों ने अतीत के शर्मनाक कृत्यों के लिए माफी मांगी है। अमरीका में भी अतीत में अश्वेत उत्पीड़न तथा नस्लीय हिंसा के शिकार लोगों की याद में दो साल पहले मॉन्टगोमरी में एक स्मारक ‘द नेशनल मेमोरियल फॉर पीस एंड जस्टिस’ बनाया गया है। इसमें 1877 से 1950 ई. के बीच पूरे देश में, और खासकर के दक्षिणी प्रांतों में नस्लीय हिंसा का शिकार हुए 4000 लोगों की जानकारी दर्ज है। इन्हें श्वेत भीड़ द्वारा पीटने, गोली मारने, फांसी पर लटकाने या जिंदा जला देने जैसी घटनाओं को मूर्तियों तथा अन्य रूपों में जीवन्त करने की कोशिश की गई है।

मॉन्टगोमरी में ही ‘सिविल वॉर कॉन्फेडरेसी’ का केंद्र था जो गुलामी प्रथा का समर्थन करती थी, और 1960 के दशक में मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व वाले नागरिक अधिकार आंदोलन की शुरुआत भी यहीं से हुई थी। लेकिन आम मनुष्यों की तरह राष्ट्रों की भी यह विडंबना होती है कि अक्सर ऐसी स्वीकारोक्तियां, अफसोस और क्षमायाचनाएं उनकी विनम्रता की बजाय उनकी ‘महानता’ के पाखण्ड से उपजी होती हैं और इसीलिए वे उसी समस्या को और विषाक्त करती रहती हैं। समस्याओं के हल के लिए स्वीकारोक्तियों के बाद का सबसे आवश्यक पहलू आगे के कार्यभार तय करने और उस पर नेकनीयती और लगन से अमल करने का होता है, जो कि वर्तमान अमरीका में कहीं परिलक्षित नहीं होता।

(इस लेख के लेखक शैलेश हैं।)

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