अद्भुत है ‘टाइम’ में जीते-जी मनमाफ़िक छवि का सृजन!

भगवा कुलभूषण अब बहुत ख़ुश हैं, पुलकित हैं, आह्लादित हैं, भाव-विभोर हैं क्योंकि टाइम मैगज़ीन ने चौथी बार उन्हें विश्व के सौ प्रभावशाली लोगों में शामिल किया है। उनके लिए इससे भी ज़्यादा सन्तोष की बात तो ये है कि ‘टाइम’ ने उनकी जैसी-जैसी विशेषताएँ बतायी हैं, बिल्कुल वैसी ही छवि बनाने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्र और मानवता को समर्पित कर दिया, इसकी आहुति दे दी। सार्वजनिक जीवन में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जिनकी वैसी ही छवि बनी हो, जैसा कि वो ख़ुद चाहते हैं। जीते-जी ऐसी मनमाफ़िक छवि का सृजन ही अपने आप में अद्भुत उपलब्धि है! हरेक उपलब्धि से ऊपर है। यही उपलब्धि उन्हें इतिहास में अमरत्व प्रदान करेगी!

सावरकर और गोडसे की रूहों या भटकती आत्माओं को अब ज़रूर चैन मिला होगा, ज़रूर चिर-शान्ति का अहसास हो रहा होगा कि उनके विद्रूप ख़ानदान में आख़िर एक नौनिहाल तो ऐसा पैदा हुआ जो कुल-ख़ानदान की धर्म-ध्वजा को आसमान से भी ऊपर ले गया! मनुष्य के रूप में जन्म लेकर जीते-जी देवत्व प्राप्त करने के लिए जितने भी वीभत्स कर्मों की सम्भावना हो सकती है, इन्होंने अल्पकाल में ही वो सब करके दिखाया है, जिसे ‘टाइम’ ने लिखा है। वैसे अभी तो इनके स्वर्ण काल में क़रीब साढ़े तीन वर्ष और शेष हैं। तब तक भारतवर्ष को ये ऐसी जगह तक पहुँचा देंगे जहाँ से वापस आने में सदियाँ लगेंगी!

देशद्रोही किसान?

उधर, ताज़ा कृषि क़ानूनों को लेकर गरमायी सियासत के तहत अब पंजाब और हरियाणा के ‘बड़ी जोत वाले किसानों’ पर देशद्रोहियों का ठप्पा लगा दिया गया है, क्योंकि वो देश भर के अपनी किसान बिरादरी के हितों के ख़िलाफ़ जाकर विपक्षियों की कठपुतली बन गये हैं। शाहीन बाग़ वालों की तरह बरगलाये और ग़ुमराह किये जा चुके हैं। दरअसल, मोदी सरकार ये साबित करना चाहती है कि पंजाब और हरियाणा के किसान बुद्धू हैं, मूर्ख हैं, नासमझ हैं, दिग्भ्रमित हैं। जबकि बाक़ी देश के किसान ख़ुश और गदगद हैं कि ‘मोदी जी ने एक और चमत्कार कर दिखाया है। किसानों की आमदनी दोगुनी तो पहले ही हो चुकी थी, अब चौगुनी होने वाली है।’ 

तो क्या हम ये मानें कि पंजाब और हरियाणा के आन्दोलनकारी किसान जागरूक, समझदार और दूरदर्शी हैं? उन्होंने नोटबन्दी, कैशलेस लेन-देन, जियो क्रान्ति, स्टार्ट अप इंडिया, मेक इन इंडिया, इंक्रेडिबल इंडिया, आरोग्य सेतु, ताली-थाली, दीया-पटाखा, पुष्प वर्षा, कोरोना पैकेज़ और आत्मनिर्भर भारत के चमत्कारी जुमलों के अंज़ाम को क़रीब से देखा है। इसी ख़ुशी में हरसिमरत कौर बादल ने कैबिनेट मंत्री की कुर्सी पर लात मार दी। उनकी भी आँख खुल गयी कि मोदी सरकार अब खेती-किसानी को भी अपने चहेतों के हाथों बेचने पर आमादा है। इन्हें भी साफ़ दिखने लगा कि मोदी युग में जिस मुस्तैदी से सरकारी सम्पदा को बेचने-ख़रीदने और औने-पौने दाम पर निजीकरण करने की जो बयार बह रही उसमें शिरोमणि अकाली दल का बह जाना तय है?

किस्सा-ए-बोलिविया

सारे घटनाक्रम को देखकर लगता है कि किसी ने पंजाब और हरियाणा के किसानों को लैटिन अमेरिकी देश बोलिविया का 20 साल पुराना किस्सा सुना दिया है। वैसे ये किस्सा एनसीईआरटी की कक्षा-9 के पाठ्यक्रम में भी है। हुआ यूँ कि दशकों के फ़ौजी शासन के बाद 1982 में बोलिविया में राजनीतिक सत्ता बहाल हुई। फिर अर्थव्यवस्था इतनी चरमराई कि अगले 15 साल में महँगाई 25 हज़ार गुना तक बढ़ गयी। तब विश्व बैंक की सलाह पर वहाँ की सरकार ने अपने रेलवे, संचार, पेट्रोलियम, उड्डयन जैसे बुनियादी क्षेत्रों का निजीकरण शुरू हुआ। इसी सिलसिले में 1999 में देश के चौथे बड़े शहर कोचाबांबा की जलापूर्ति व्यवस्था का निजीकरण का फ़ैसला लिया गया।

निजी कम्पनी को शहर की जलापूर्ति सुधारने के लिए एक बाँध बनाना था। इसके लिए धन जुटाने के नाम पर पानी का दाम चार गुना बढ़ा दिया गया। इससे ऐसा हाहाकार मचा कि पाँच हज़ार रुपये महीना औसत कमाई वाले परिवारों को एक हज़ार रुपये का पानी का बिल मिलने लगा। ख़र्च घटाने के लिए जब लोग नदी और नहरों से पानी लाने लगे तो वहाँ पहरा बिठा दिया गया। कुछ लोगों ने बारिश का पानी जमा करके अपना काम चलाना चाहा तो आदेश आया कि बारिश का पानी इकठ्ठा करने पर चोरी का केस दर्ज़ होगा, क्योंकि वो पानी भी निजी कम्पनी का है। इससे ऐसा जनाक्रोश फूटा कि पुलिस और सेना को भी सड़कों पर उतारने के बावजूद बात नहीं बनी। आख़िरकार, छह महीने के उग्र विद्रोह के बाद सरकार को फ़ैसला वापस लेना पड़ा। निजीकरण से पहले शहर की 80 प्रतिशत आबादी को स्थानीय संस्था से बिजली और अन्य ख़र्च को जोड़कर पर्याप्त पानी मिल जाता था। लेकिन निजीकरण की ख़ातिर इस संस्था को भ्रष्ट और लुटेरा करार दिया गया।

सर्वहारा बना भिखमंगा 

दरअसल, बोलिविया की तरह भारत में भी पूँजीवाद और बाज़ारवाद ने दशकों की मेहनत से ये ‘नैरेटिव’ यानी धारणा बनायी है कि सरकारी तंत्र, सरकारी कम्पनियाँ और सरकारी ताना-बाना निहायत घटिया और भ्रष्ट है। इसे निजीकरण के बग़ैर नहीं सुधारा जा सकता। भारत में इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि देश के ज़्यादातर नेता और अफ़सर देखते-देखते सम्पन्न लोगों की ऐसी जमात का हिस्सा बन चुके हैं जो पब्लिक या जनता और ख़ासकर ग़रीबों, मज़दूरों और सर्वहारा वर्ग को चोर और भिखमंगा समझते हैं। इन्हें इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सामाजिक व्यवस्थाएँ निजी हाथों में हैं या सरकारों के।

इससे भी रोचक तथ्य ये है कि ऐसे लोगों को ये मुग़ालता होता है कि वो शिक्षित, देशभक्त और क्रान्तिकारी हैं, जबकि वास्तव में वही समाज का सबसे भ्रष्ट तबका होते हैं। तमाम सरकारी लूट की बन्दरबाट भी यही समुदाय करता है। सार्वजनिक क्षेत्र की लूट-खसोट में शामिल ये तबका अपने घरों के ड्रॉइंग रूम में अपने ही जैसे लोगों के बीच परिचर्चाएँ करता है और निजी शिक्षण संस्थाओं, अस्पतालों, म्यूनिस्पैलिटी, पुलिस, कोर्ट, चुनाव प्रक्रिया और आरक्षण को कोसते हुए उस निजीकरण की पैरोकारी करता है जिससे देश लगातार और तबाह हो रहा है।

प्राइवेट के लिए मरेगा सरकारी

अर्थशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो निजी क्षेत्र के विस्तार में कोई बुराई नहीं है। बशर्ते, इसमें सरकारी क्षेत्र को मिटाकर पनपने से रोकने की व्यवस्था हो। मसलन, देश में ऑटोमोबाइल सेक्टर की तरक्की निजी क्षेत्र या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बदौलत ही हुई है। लेकिन ऐसा अन्य सेक्टरों में नहीं हुआ। दरअसल, मोटे तौर पर दो तरह की व्यवस्थाएँ होती हैं – सरकारी या सहकारी और प्राइवेट। आदर्श स्थिति में दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए। लेकिन यदि एक की कामयाबी के लिए दूसरे का मरना ज़रूरी होगा, तो निजीकरण दैत्य और राक्षस बन जाएगा। बड़ी पूँजी, छोटी पूँजी को खा जाएगी क्योंकि प्राइवेट की बुनियाद ही मुनाफ़ाख़ोरी है, जबकि सरकारी तंत्र को सियासत के प्रति संवेदनशील रहते हुए व्यावसायिक हितों को साधना पड़ता है। यही इसकी ख़ामी भी है और ख़ूबी भी।

भारत में सरकारी शिक्षा, स्वास्थ्य, दूरसंचार और उड्डयन क्षेत्र के डूबने का भरपूर उदाहरण हमारे सामने है। सरकारी क्षेत्र में कमियाँ होती हैं, लेकिन प्राइवेट के आने से पहले और बाद में इन्हें और बढ़ाया जाता है। क्योंकि सरकारी व्यवस्था ठीक रहेगी तो प्राइवेट में कौन जाएगा? मुनाफ़ाख़ोरी कैसे होगी? इसीलिए सरकारी तंत्र की जड़ों में मट्ठा डाला जाता है। सरकारी कम्पनियों को बीमार बनाया जाता है। ताकि प्राइवेट पूँजी लहलहा सके। शुरुआती पीढ़ी वाले काँग्रेसियों ने सैकड़ों सरकारी कम्पनियाँ स्थापित कीं। कई तरह के राष्ट्रीयकरण किये। लेकिन इनकी ही अगली पीढ़ियों ने तमाम किस्म की लूट-खसोट करके सरकारी तंत्र को खोखला करने की प्रथा भी स्थापित की।

अरबों का माल करोड़ों में

बीजेपी में काँग्रेस वाली अच्छाईयाँ भले ही न हों, लेकिन काँग्रेस वाली ख़ामियों के लिहाज़ से भगवा उससे हज़ार दर्ज़ा आगे निकल चुका है। सरकारी कम्पनियों को बेचने या निजीकरण के मोर्चों पर तो ये ख़ूब हुआ। इनका नया रचने में कोई ख़ास यक़ीन नहीं है। लेकिन बेचने में इनके जैसी तेज़ी और किसी में नहीं। वाजपेयी ने विनिवेश मंत्रालय बनाकर अरुण शौरी को सरकारी सम्पदा बेचने का ज़िम्मा सौंपा। इन्होंने भी अरबों का माल करोड़ों में बेचने का काम बहुत बहादुरी से किया। अब मुक़दमे की गाज़ गिरी है। शायद, इसलिए क्योंकि अब वो मोदी राज के आलोचक हैं। फिर भी कहना मुश्किल है कि इसका अंज़ाम क्या निकलेगा?

धीरुभाई ने जब टेलीकॉम सेक्टर का रुख़ किया तो वाजपेयी ने वीएसएनएल, एमटीएनएल और बीएसएनएल जैसी तीन सरकारी कम्पनियों के हितों की अनदेखी करके रिलायंस कम्युनिकेशन को लॉन्च किया। समारोह में तत्कालीन टेलीकॉम मंत्री प्रमोद महाजन ने मंच संचालन किया। आज सभी देख रहे हैं कि जियो लहलहा रहा है और सरकारी कम्पनियाँ बिकने को हैं। उड्डयन सेक्टर में भी निजी कम्पनियाँ को मुनाफ़ा कमाने वाले रूट थमाये गये। ताकि वो निहाल हो सकें और सरकारी कम्पनी डूबती रहे। रेलवे भी इसी राह पर चल पड़ा है। कई साल से इसका घाटा लगातार बढ़ाया जा रहा है। ताकि ये दलील तैयार हो सके कि रेलवे को बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

कहाँ बनते हैं झाँसे?

रेलवे की ज़मीन बेची जा रही है ताकि चहेतों को और मालामाल बनाया जा सके। बुलेट ट्रेन तो चलने से रही, लिहाज़ा निजी ट्रेनों को ही चलाने की तैयारी हो रही है। जनता के पैसों से बनी पटरियों पर निजी ट्रेन दौड़ेंगी। ठेके पर कर्मचारी तैनात होंगे। जनता दुबली होती जाएगी। नेता और अफ़सर मोटे होते जाएँगे। ट्रेड यूनियनों का सौदा हो चुका है। नीति आयोग के सबसे बड़े कलाकार अमिताभ कान्त लगातार अपने आका के लिए नये झाँसे तैयार करते रहते हैं। इन्हीं का शिग़ूफ़ा है कि निजीकरण से रेलवे में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। किराया कम होगा। जनता को लाभ होगा। भले ही सभी दिहाड़ी मज़दूर बन जाएँ।

अभी युवा बेरोज़गारी से तड़प रहा है। मज़दूर भूख से सिसक रहा है। किसान गिड़गिड़ा रहा है कि बस, इतनी घोषणा कर दीजिए कि मंडी से बाहर भी कोई सौदा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे नहीं होगा। लेकिन कोई सुनवाई नहीं। इन्हीं अमिताभ कान्त ने दिसम्बर 2015 में प्रकाशित नीति आयोग के एक दस्तावेज़ में किसानों की आमदनी को दोगुना करने वाला जुमला पकाया था। इसमें कहा गया था कि ‘एमएसपी से किसानों का भला नहीं हो सकता क्योंकि सरकार सारी उपज नहीं ख़रीद सकती और ना ही उसे ख़रीदना चाहिए’। 

‘काम की बात’ को ढूँढ़ना मुहाल

2016 में नोटबन्दी के बाद इसी अमिताभ कान्त ने कहा था कि दो-तीन साल में अर्थव्यवस्था कैशलेस हो जाएगी। हम देख चुके हैं कि कोरोना की दस्तक से पहले लगातार 16 तिमाहियों तक भारतीय अर्थव्यवस्था गर्त में जाती रही। कोरोना के आंकड़े रोज़ाना आरोग्य सेतु की पोल खोल रहे हैं। यही हाल पीएम केयर्स का है। 5 ट्रिलियन डॉलर भी इनके ही दिमाग़ की ख़ुराफ़ात थी तो ‘स्टार्ट अप इंडिया’ के भी बुनियादी चिन्तक और विचारक यही हैं। 2019 में एक सर्वे में 33 हज़ार स्टार्टअप वालों से पूछा गया कि आख़िर योजना फेल क्यों हुई? जवाब में 80 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें स्टार्टअप इंडिया से कोई फ़ायदा नहीं मिला। 50 प्रतिशत ने बताया कि अधिकारी ही लूट लेते हैं। वर्ष 2016-19 के दौरान सिर्फ़ 88 स्टार्टअप ही टैक्स लाभ लेने के लायक बन सके। 

2014 में शुरू हुआ ‘मेक इन इंडिया’ भी इन्हीं के दिमाग़ का कीड़ा था। मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का बदहाली और बेरोज़गारों की तादाद सारे दावों की पोल खोल देते हैं। कोई नहीं जानता कि देश की पहली स्मार्ट सिटी कहाँ है? ‘इंक्रेडिबल इंडिया’ तो ऐसी मनहूस योजना साबित हुई कि इसके विज्ञापनों पर जितना ख़र्च बढ़ता गया उतना ही विदेशी सैलानियों की संख्या घटती गयी। कुल मिलाकर, मोदी युग की सबसे बड़ी पहचान यही हो गयी है कि यहाँ ‘मन की बात’ की तो भरमार है लेकिन ‘काम की बात’ को ढूँढ़ना मुहाल है। इसीलिए ‘टाइम’ और बोलिविया के अनुभवों से सीखना ज़रूरी है। देश बेचने वालों से निपटना ज़रूरी है।

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

मुकेश कुमार सिंह
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