अमीर देशों को सस्ता श्रम मुहैया कराने में अव्वल बनने को बेकरार भारत क्या विकसित देश बन सकता है?

नई दिल्ली। वर्ष 2023 अब अपने आखिरी पड़ाव पर है। बेरोजगारी के लिहाज से यह साल सुधार लाने के बजाय भयावह साबित हुआ है। अब खबर आ रही है कि 2023 में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मार देश के सबसे बड़े पेमेंट बैंक पेटीएम पर भी पड़ चुकी है। पेटीएम के नाम से ऑपरेट कर वाली कंपनी One97 कम्युनिकेशंस लिमिटेड में 1,000 के करीब कर्मचारियों की नौकरियां जा चुकी हैं।

कंपनी ने अपने मल्टीपल डिविजन में लागत में कमी लाने के लिए 1,000 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। लेकिन इस प्रक्रिया की शुरुआत अक्टूबर 2023 से ही शुरू हो गई थी।

इसका मतलब यह हुआ कि देश में स्टार्टअप की जिस लहर के बारे में मोदी सरकार और बाजार के विशेषज्ञ कुछ महीने पहले तक जो बड़े-बड़े दावे कर रहे थे, उस क्षेत्र में बढ़ोत्तरी की बजाय तेजी से लाखों की संख्या में मौजूदा रोजगारशुदा लोगों को निकालने की प्रक्रिया 2024 में तेजी से बढ़ने जा रही है।

पश्चिमी देश मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। यूरोप की हालत लगातार खस्ता हो रही है। निर्यात के मोर्चे पर भी भारत की रफ्तार पीछे की दिशा में चली गई है, क्योंकि पश्चिमी देशों के पास पहले की तरह खरीद की क्षमता घट गई है। ब्रिटेन में क्रिसमस और नए साल से पहले ही वाइन की दुकानों की संख्या पहली बार 1 लाख से कम हो चुकी है, जबकि वाइन की बिक्री के लिए इसे सबसे मुफीद माना जाता रहा है।

पश्चिमी मुल्कों पर टिकी थी सर्विस सेक्टर में ग्रोथ की आस

आइये भारत की ओर लौटते हैं। भारत में हाल के दशकों में सर्विस सेक्टर में ही सबसे अधिक ग्रोथ की संभावना थी, जिसमें अच्छे कैरियर और असंगठित गिग वर्कर्स दोनों के लिए संभावनाओं के द्वार खुल रहे थे।

भारत के भीतर 15 करोड़ मध्य वर्ग की आबादी के बीच पिछले 2 दशकों से संभावनाओं के जो द्वार खुले थे, उसमें यदि आईटी, फाइनेंस और टेक सेक्टर में छंटनी या मंदी की संभावना हो तो इस सेक्टर पर आधारित ओला, उबर एवं ज़ोमोटो जैसी सैकड़ों ऐप बेस्ड कंपनियों और उनके लाखों कर्मचारियों के लिए क्या भविष्य है? क्योंकि ये कंपनियां तो शुद्ध रूप से इन्हीं के आधार पर टिकी हुई हैं।

जून में अमेरिका की अपनी राजकीय यात्रा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वहां के उद्योगपतियों के साथ मुलाक़ात में कई प्रमुख समझौते हुए थे, जिसके तहत देश में माइक्रोप्रोसेसर चिप्स एवं बोइंग के प्लांट लगाने पर मुहर लगी थी। लेकिन इसके लिए भी भारत को ही अरबों डॉलर का निवेश और सुविधायें मुहैया करानी हैं।

इसके बावजूद नौकरियों के नाम पर चंद हजार लोगों को ही इसमें खपाया जा सकता है। एक अनुमान के अनुसार भारत को प्रति रोजगार के लिए 2.5 करोड़ रुपये का निवेश करना होगा। इतने निवेश से तो 200 छात्रों के लिए एक आधुनिक टेक्निकल स्कूल का निर्माण किया जा सकता है, जिससे प्रतिवर्ष सैकड़ों छात्रों को नए स्किल के साथ रोजगार के क्षेत्र में उतारा जा सकता था।

असल में भारत को 2047 में विकसित राष्ट्र के रूप में चित्रित करने के पीछे मोदी सरकार की मंशा और एक आधुनिक संपन्न राष्ट्र बनने के लिए किन ठोस उपायों को अमल में लाना है, के बीच के गैप की शिनाख्त जल्द नहीं की गई तो इसके गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं।

2014 में ‘अच्छे दिन’ की सरकार के चमकदार नारों का खोखलापन

2014 में जब देश के शासन की बागडोर भाजपा के हाथ आई थी, तो उसके बाद से ही देश में अच्छे दिन, मेक इन इंडिया जैसे नारों ने लंबे समय तक आम जनता के बीच में इस बात को अच्छे से बिठा दिया था कि देश अब मजबूत हाथों में है, और जल्द ही देश में और भी तेजी से द्रुत विकास का पहिये के दौड़ने के साथ लोगों के हालात में उत्तरोत्तर सुधार होने जा रहा है।

28 सितंबर 2014 को न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर में 20,000 भारतीय प्रवासियों की भीड़ में अपनी जय-जयकार के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हम उस खुशनसीब मोड़ पर खड़े हैं जब हमारे पास एक जीवंत लोकतंत्र के साथ-साथ 65 प्रतिशत लोग 35 वर्ष से कम उम्र के हैं, और 1.25 अरब लोगों के बाजार के साथ भारत निकट भविष्य में नई ऊंचाइयों को छूएगा।

भीड़ को संबोधित करते हुए तब मोदी ने कहा था कि भारत दुनिया का सबसे युवा देश होने के साथ-साथ एक प्राचीन सभ्यता वाला देश भी है। आईटी क्षमता के साथ “ऐसे देश को पीछे मुड़कर देखने की कोई जरूरत नहीं है”।

अपने भाषण में मोदी ने कहा कि “अपनी ताकत को पहचानना और उन्हें तेजी से आगे बढ़ने के लिए संगठित करना सबसे महत्वपूर्ण है”। पीएम मोदी ने अपने भाषण में लोकतांत्रिक भारत की उसकी सबसे बड़ी ताकत बताते हुए जोड़ा था कि उसके पास डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यिकीय लाभांश) भी है, जो उसे 1.25 अरब की आबादी वाला एक विशाल बाजार बना देता है, जिस पर सारी दुनिया की नजर है।

इन 9 वर्षों में भारत की जीडीपी 2.5 ट्रिलियन से बढ़कर 3.7 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकी है। जीडीपी में हिस्सेदारी की बात करें तो इसका बड़ा हिस्सा 1% लोगों के पास है, और इस बीच देश में अमीर-गरीब की खाई लगातार चौड़ी ही होती जा रही है। फिर उस डेमोग्राफिक डिविडेंड का क्या हुआ? अपनी ताकत को पहचान कर देश ने वे कौन सी ठोस नीतियां अपनाई, जिसका फल उसे मिलना चाहिए था लेकिन नहीं मिला।

आज भी कहा जा रहा है कि भारत के पास जन्संख्याकीय लाभांश का फायदा उठाने के लिए 2051 तक का समय है, उसके बाद भारत को भी अपनी जनसख्या में वृद्धों की बढ़ती आबादी की समस्या से वैसे ही दो-चार होना पड़ेगा, जैसा आज जर्मनी, इटली, जापान या अमेरिका को होना पड़ रहा है।

चीन ने 1990-2020 के दौरान अपने देश में डेमोग्राफिक डिविडेंड का भरपूर दोहन किया, और वह आज दुनिया की दूसरी महाशक्ति बन चुका है। लेकिन भारत की आर्थिक नीतियां यदि इस 60 करोड़ युवा शक्ति की क्षमता का समुचित दोहन करने में विफल रहीं तो यही आबादी उसके लिए सबसे बड़ा बोझ भी साबित हो सकती है।   

मोदी शासन को अब लगभग 10 वर्ष पूरे होने को हैं, लेकिन 15-60 वर्ष की आयु के लोगों की बहुतायत वाले देश की युवा शक्ति पूरी तरह से दिग्भ्रम का शिकार है। कल तक मध्य वर्ग के परिवारों से हर बच्चे को कंप्यूटर साइंस में बीटेक कर जल्द से जल्द कम्पूटर प्रोग्रामर बनकर सेटल होने की आकांक्षा बनी हुई थी, लेकिन हाल की रिपोर्ट बताती है कि आईआईटी संस्थान तक के छात्रों के लिए कैंपस सिलेक्शन में देश की अग्रणी कंपनियों ने हाथ पीछे खींच लिए हैं। देश में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हजारों प्राइवेट इंजीनियरिंग संस्थान एक-एक कर बंद हो रहे हैं।

विनिर्माण के क्षेत्र में 90 के दशक के बाद से ही पूंजी निवेश में कमी आने लगी थी, जो हाल के वर्षों में लगभग खत्म हो चुकी है। 2011 से देश में जो आर्थिक ठहराव शुरू हुआ, उसके बाद 2016 में नोटबंदी और उसके बाद जीएसटी ने एमएसएमई क्षेत्र में लाखों उद्योगों को सड़क पर ला दिया था। यही वह असंगठित क्षेत्र था जिसमें करोड़ों लोगों को नौकरियां मिलती थीं, जिसे औपचारिक उद्योग का स्वरूप देने और अधिकाधिक टैक्स नेट में लाने की जिद ने बर्बाद कर दिया।

ऐसे में इधर फिर से विनिर्माण क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को ‘मेक इन इंडिया’ नारे के तहत पीएलआई इंसेंटिव के सहारे आकर्षित किया जा रहा है। लेकिन इसमें भी विनिर्माण की पूर्ण श्रृंखला को शुरू करने बजाय भारत को सिर्फ असेंबली हब में तब्दील कर दिया गया है, जो बेहद कम रोजगार के दरवाजे खोलती है। 

सारी दुनिया का बोझ उठाने के लिए तैयार किये जा रहे भारतीय

ऐसे में करोड़ों बेरोजगार युवाओं, जिन्हें अब पकौड़ा रोजगार का जुमला देकर और बहलाना संभव नहीं रहा, के लिए एक और खिड़की खोली जा रही है। भारत के डेमोग्राफिक डिविडेंड का फायदा अब पश्चिमी देशों को मिलने जा रहा है। मई 2023 में इजराइल के साथ हुए समझौते में 42,000 भारतीय श्रमिक भेजे जाने पर करार हुआ था।

अब उसी कड़ी में इजराइल बिल्डर एसोसिएशन (आईबीए) ने पिछले सप्ताह कहा कि भारत से करीब 10,000 निर्माण श्रमिकों की खेप को लाया जाना है। जल्द ही यह संख्या 30,000 तक पहुंच जाने की बात भी कही जा रही है। सूत्रों के मुताबिक आईबीए के मुख्य कार्यकारी अधिकारी इगल स्लोविक 27 दिसंबर से दिल्ली एवं चेन्नई में अगले 10-15 दिनों में इस भर्ती प्रकिया को शुरू करने वाले हैं।

यूनान से भी अपने देश के कृषि क्षेत्र में काम करने के लिए भारत से संपर्क किया गया है। खबर है कि उसके द्वारा 10,000 श्रमिक भेजे जाने की मांग की गई है। इसी प्रकार इटली ने भी अपने कस्बों में सफाई कर्मियों के तौर पर काम करने के लिए भारत सरकार से संपर्क साधा है।

इतना ही नहीं पिछले महीने ही हरियाणा सरकार के द्वारा इजरायल में बढ़ई, सरिया मोड़ने, टाइल लगाने और प्लास्टरिंग जैसे कामों के लिए 10,000 कुशल श्रमिकों की भर्ती का नोटिस निकाला था। इस नोटिस में कहा गया था कि पहला वीजा और वर्क परमिट सिर्फ एक साल के लिए वैध होगा, जिसे एक साल और बढ़ाया जा सकता है। वर्क परमिट को अधिकतम 63 महीनों तक के लिए विस्तार दिया जा सकता है।

बता दें कि इजराइल-हमास युद्ध के चलते फिलिस्तीनियों से खाली हुए पद भरने के लिए इजरायल को फौरी तौर पर 90,000 विदेशी कामगारों की जरूरत है। हालांकि पिछले सप्ताह विदेश मंत्रालय ने संसद में कहा था कि फिलिस्तीनियों की जगह भारतीय निर्माण श्रमिकों की संभावित भर्ती के बारे में इजरायल के साथ कोई चर्चा नहीं हुई है।

भारत में कुछ लोग इसे भी सरकार की विदेश नीति की जीत कहते मिल सकते हैं। डेमोग्राफिक डिविडेंड का ऐसा भद्दा इस्तेमाल बताता है कि हमारे नीति-नियंताओं के पास देश और अपने देशवासियों के लिए कोई नीति नहीं है। यह तो भारत के श्रमिक वर्ग की अपने देश से मोहब्बत है जो लाख कष्ट सहने के बावजूद अपने वतन और वतन में रह रहे अपने सगे-संबंधियों की बेहतरी के लिए लगभग 90 लाख की संख्या में वर्षों तक अरब मुल्कों में अपनी जवानी खपाते हैं और भारत को दुनिया में सबसे बड़ी संख्या में रेमिटेंस प्रदान करते हैं।

आज भारतीय शासक वर्ग ने देश के हालात ही ऐसे बना दिए हैं कि एक रिक्त पद के लिए 100 बेरोजगार लाइन लगाकर खड़े हैं। पिछले दशक से महंगाई की तुलना में वेतन में वृद्धि शून्य की दर या अधिकांश मामलों में नकारात्मक ही हुई है।

ऐसे में भूख और बेरोजगारी से बेहाल अपने ही देशवासियों को विदेशी भूमि पर मजबूर कर न्यूनतम दरों पर काम करने के लिए छोड़ देने से भले ही देश के विदेशी मुद्रा भंडार में उछाल को लाया जा सकता है, लेकिन देश को याद रखना होगा कि यह जवानी देश के बजाय दुनिया के काम आई, और उन देशों ने हमारी युवाशक्ति के श्रम को अपने पक्ष में भुनाकर जो दिया, वह बेहद मामूली था। इसकी भरपाई अगले 100 वर्षों तक भी संभव नहीं है।  

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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