Sunday, September 24, 2023

इंडिया बनाम भारत: नाम की राजनीति में उलझाकर असल मुद्दों से ध्यान हटाने की कोशिश

असली बात यह है कि नाम की राजनीति में तब आप दूसरों को उलझाते हैं, जब आपके पास गंभीर मुद्दों पर कहने के लिए कुछ भी नहीं होता है। दरअसल आप को डर होता है कि देश कहीं आपकी वर्तमान भूमिका पर सवाल खड़ा करना न शुरू कर दे। सो इसको जल्द ही अन्य बातों में उलझाया जाए। सवाल कहीं चीन पर न पूछे जाने लगें, सवाल कहीं मणिपुर पर न पूछे जाने लगें, सवाल कहीं महिला पहलवानों को लेकर न पूछे जाने लगें, सवाल कहीं ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ के मसौदे पर न पूछे जाने लगें और सवाल कहीं विशेष सत्र के औचित्य पर न खड़े किए जाने लगें, इसलिए सबको नाम की राजनीति में उलझाकर ध्रुवीकृत कर दो।

यह पुरानी नीति है। सवाल कहीं स्वतंत्रता आंदोलन में इनके राजनीतिक पुरखों की भूमिका पर न खड़े हों, इसलिए कांग्रेस के ही नेताओं में से कुछ को अपना बताकर उनके बीच होने वाले स्वस्थ राजनीतिक विमर्श को राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के रूप में प्रस्तुत कर उनमें जबरदस्ती की खेमेबाजी की जाए और एक दूसरे को राजनीतिक दुश्मन बताकर मामले को दूसरा रंग दिया जाए। स्वस्थ लोकतांत्रिक संगठन में भिन्न-भिन्न वैचारिकी के वैशिष्ट्य को एक दूसरे के प्रति वैचारिक षड्यंत्र के रूप में चित्रित कर यह दिखाने की कोशिश की जाए कि संगठन का एक वर्ग दूसरे को अपदस्थ करने में ही हमेशा लगा रहा।

खुलकर कहें तो मानो गांधी और नेहरू विरोधियों के खिलाफ आजीवन दुरभि-संधियों के रचना विधान में ही लगे रहे। इनके पास और कोई काम नहीं था। ये पूरी तरह ख़लिहर थे। अंग्रेजों से लड़ाई तो पॉर्ट टाइम जॉब थी। इनकी असली लड़ाई तो पटेल, भगत सिंह और सुभाष से ही थी। बावजूद इन सबके सुभाष, भगत सिंह और पटेल पता नहीं इतने नासमझ थे या चापलूस, जो उन्होंने गांधी और नेहरू की प्रशंसा में कई-कई पन्ने खर्च कर दिए। ना-समझ सुभाष ने आजाद हिंद फौज की टुकड़ियों के नाम गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद के नाम पर ही रखे, जबकि उनके सामने हिन्दू संगठनों के पुरोधाओं के नाम पर भी रखने का ऑप्शन खुला था।

और उधर भगत सिंह कीरती पत्रिका में पंजाब के युवाओं से नेहरू का अनुसरण करने को कहते रहे।

पर बुरी आदत का क्या किया जाए, वह तो बदलने से रही। इसी के चलते पटेल-नेहरू, नेहरू-प्रसाद और गांधी-सुभाष के मध्य वैचारिक भिन्नता को इन लोगों द्वारा मनचाहा विज्ञापित किया गया। और यह सब इसलिए कि लोग कहीं इनके वैचारिक पुरखों की भूमिका पर ही न उंगली उठाने लगे।

इसलिए सबको दूसरे विषयों में उलझाए रखो। लोग खाली रहेंगे, तब न सवाल उठाएंगे।

लोगों का ध्यान कहीं गोलवलकर के उस बयान पर न चला जाए जिसमें उन्होंने यह कहा था- “भगत सिंह और उनके साथी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हुए, इसलिए वे किसी भी सम्मान के पात्र नहीं हैं”, इसलिए गांधी बनाम भगत सिंह का नैरेटिव खड़ा कर दो। लोगों को कांग्रेस द्वारा भगत सिंह के लिए कुछ न करने के मनगढ़ंत आरोपों की बहस में उतार दो।

लोग कहीं सावरकर के सीता और गाय पर दिए गए वक्तव्यों पर चर्चा न करने लगें, इसलिए उन्हें हिन्दू-मुस्लिम में उलझा दो। लोग कहीं नागपुर मुख्यालय पर दशकों झंडा न फहराए जाने को मुद्दा न बना दें, इसलिए लोगों को अन्य ध्रुवीकृत करने वाले मुद्दों में उलझा दो। इनके वैचारिक पुरखों ने तिरंगे को लेकर क्या कहा, कहीं इस पर चर्चा न होने लगे इसलिए लोगों को उग्र राष्ट्रवाद में आंदोलित कर दो।

आज फिर से भारत बनाम इंडिया किया जा रहा है। कोई कह रहा है कि इंडिया की जगह भारत कहना शुरू करो तो कोई कुछ कह रहा है।

जी-20 के आमंत्रण पत्र में पहली बार रिपब्लिक ऑफ इंडिया की जगह रिपब्लिक ऑफ भारत लिखा गया। स्थापित पदावली और चर्चित शब्दावली में बदलाव का औचित्य क्या है?

आप ‘भारत का गणतंत्र’ और ‘भारत का राष्ट्रपति’ भी कह सकते हैं, पर स्थापित संवैधानिक शब्दावली में हेर-फेर का औचित्य क्या है? आधा तीतर आधा बटेर?

इंडिया और भारत दोनों में एक ही भाव है, एक ही गर्वबोध, फिर विभेदीकरण का औचित्य क्या? आप कुछ भी कहिये, कोई फर्क नहीं। भारत नाम हमेशा से हमारी पहचान रहा है, उससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। पर इस नाम की राजनीति से क्या भारत की हकीकत बदल जाएगी?

अगर अंग्रेजी शब्दों से दिक्कत है तो नवनिर्मित संसद का नाम ‘सेंट्रल विस्टा’ ही क्यों रखा गया? क्या यह ऋग्वेद से नाम उठाया गया है? और अगर इंडिया नाम से ही आपको मुख्य आपत्ति है, तो फिर अभी चार साल पहले आप ही के द्वारा प्रचारित ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया’ और इन जैसे अन्य तमाम नामों का क्या? आखिर इन नामों के पीछे कौन सी विवशता थी? पूछता है भारत?

अगर इंडिया नाम से इतनी ही आपत्ति है तो अब क्या आप अपने उन वैचारिक पुरखों की किताबों में जहां-जहां उन्होंने इंडिया शब्द लिखा है, बदलने की राजाज्ञा निकालेंगे?

क्या अब सावरकर की उस प्रसिद्ध किताब का नाम भी बदला जाएगा जो उन्होंने ‘द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस 1857’ के नाम से लिखी थी?

पूछता है भारत??

(संजीव शुक्ल का लेख।)

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