इजरायल के साथ भारत: साख जाने के खतरे के साथ सोच पर भी कई सवाल

किसी भी देश की विदेश नीति के लिए सबसे सरल सूत्र है- ‘विदेश नीति कुछ और नहीं गृह नीति का ही विस्तार है’। आज ऐसा लग रहा है कि सब कुछ संक्रमण की स्थिति में है। कब विदेश नीति से गृह नीति बनने लगे और कब गृह नीति से विदेश नीति, कहना मुश्किल हो उठा है। मीडिया में खबर आ रही है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के चार छात्रों पर इजरायल-फिलिस्तीन के बीच चल रहे युद्ध के खिलाफ और फिलिस्तीन के पक्ष में नारा लगाने के लिए 155ए, 188 और 505 आईपीसी धारा के तहत एफआईआर दर्ज की गई है।

कहा जा रहा है कि प्रदर्शन के लिए अनुमति नहीं ली गई थी। एफआईआर की धाराएं विभिन्न समुदाय के बीच शत्रुता और नफरत फैलाने को लेकर आरोपित हुई हैं। गोदी मीडिया के अधिकांश संस्थान फिलिस्तीन के समर्थन को एक सनसनीखेज खबर की तरह पेश कर रहे हैं, जबकि इजरायल के हमले को जिस उत्साह और पक्षधरता से दिखा रहे हैं, उससे लग रहा है मानो इजरायल एक भयावह रूप से पीड़ित देश है और अब जान पर खेलकर अपना अस्तित्व बचाने के लिए निकल पड़ा है।

यह सब ऐसा इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि हमास द्वारा इजरायल पर किये गए अचानक हमले के चंद समय गुजरने के बाद ही प्रधानमंत्री मोदी ने अपना बयान जारी कर दिया। ट्विटर जो अब एक्स बन गया है, पर उनक बयान था- ‘इजराइल में आतंकवादी हमलों की खबर से गहरा सदमा लगा है। हमारी प्रार्थनाएं निर्दोष पीड़ितों और उनके परिवारों के साथ हैं। हम इस कठिन समय में इजराइल के साथ एकजुट हैं।’ यह भारत की पारम्परिक अवस्थिति से अलग थी और यह चौंका देने वाला बयान था।

इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू ने अपने जारी वीडियो में कहा कि हम युद्ध में हैं। हमास ने भी यही कहा कि उसने युद्ध छेड़ा है। और, पिछले 25 सालों से गाजापट्टी, जिस पर हमास का नियंत्रण है और इजरायल लगातार वहां घुसपैठ, कब्जे की हिंसक गतिविधि में लगा रहा है, दोनों के बीच युद्ध की स्थिति और युद्ध दोनों होते रहे हैं। भारत का बयान इसके पहले दोनों के बीच चल रही लड़ाई में यह कभी नहीं रहा।

निश्चित ही अमेरीका से लेकर कई यूरोपीय देश हमास को आतंकवादी संगठन मानते रहे हैं। लेकिन, खुद फिलिस्तीन और कई अरब के देश उसे आतंकवादी संगठन नहीं मानते हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या भारत हमास को आतंकवादी संगठन मानता है? या हमास द्वारा इस बार इजरायल पर किया गया हमला भीषण आतंकवादी हमला है? बहरहाल, औपचारिक बयान दूसरे के संदर्भ में तो दिखा है लेकिन प्रथम अवस्थिति का हवाला फिलहाल नहीं दिख रहा है।

भारत के भीतर जो बयानबाजी हो रही है, उसमें भाजपा का इजरायल का समर्थन साफ है। कांग्रेस की कार्य समिति ने हमास द्वारा निर्दोष नागरिकों पर किये गए हमले की निंदा की है लेकिन साथ ही फिलिस्तीन की वैध आकांक्षाओं का समर्थन करते हुए हिंसा रोकने का आह्वान किया है और शांति बहाल करने की उम्मीद जताई है।

यदि हम इतिहास के पन्नों में जाएं तो 1977 में रिकॉर्ड हुए एक वीडियों में कोई और नहीं खुद अटल विहारी वाजपेयी कहते हुए दिख रहे हैं- ‘आक्रमणकारी, आक्रमण के फलों का उपभोग करे ये अपने संबंधों में हमें स्वीकार नहीं है। तो जो नियम हम पर लागू है, वह औरों पर भी लागू होगा। अरबों की जमीन खाली होनी चाहिए। जो फिलिस्तीनी हैं, उनके उचित अधिकारों की प्रतिस्थापना होनी चाहिए। इजरायल के अस्तित्व को सोवियत रशिया, अमेरीका ने भी स्वीकार किया है। हम भी स्वीकार कर चुके हैं’।

यह काफी कुछ भारत की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति की ही अवस्थिति के करीब है। इसमें धर्म की गूंज नहीं, एक कब्जाकारी देश के खिलाफ एक मुक्ति के आकांक्षी देश के पक्ष में भारतीय राजनय की नीति झलकती है।

यहां हमें भारत की विदेश नीति के संदर्भ में एक बात जरूर याद रखनी होगी, इसका निर्माण उस समय हो रहा था जब दुनिया दूसरे विश्वयुद्ध से तबाह थी, जर्मनी और पूरा यूरोप धर्म की नफरत में डूबा हुआ था और फासीवादी कारनामों से थर्रा उठा था। इन्होंने अपने युद्ध में एशियाई लोगों को मनमाने तरीके से सेना में भर्ती किया और युद्ध में झोंक दिया था।

भारत, चीन से लेकर मध्य एशिया और अक्रीका तक आजादी और ऐसे युद्धों से दूर रहकर आत्मनिर्भर देश बनने की आकांक्षा काफी मजबूत हो चुकी थी। एक नई दुनिया उभकर आ रही थी। साम्राज्यवादियों और उपनिवेशवादियों के कब्जे से मुक्त होकर एक आजाद देश की आकांक्षा एक राजनीतिक शक्ल लेने को बेचैन और आमादा थी। दुनिया का राजनीतिक मानचित्र बदल रहा था।

1950-60 का दशक दुनिया के नक्शे पर नये आजाद देशों के निर्माण का दौर था और यह चलते हुए 1990 के दशक के अंत तक आया है। उस समय कौन देश कह सकता था कि वह साम्राज्यवादियों, उपनिवेशवादियों के पक्ष में और आजादी के खिलाफ है। भारत के नेतृत्व में गुटनिरपेक्ष आंदोलन उभकर आया जो एक नई विदेश नीति की घोषणा थी।

यह युद्ध, कब्जा, गुलामी के खिलाफ था। यह हरेक आजादी की लड़ाई लड़ने वाले संगठनों, पार्टियों और उस देश के प्रतिनिधियों का समर्थन करता था। यह निश्चित ही साम्राज्यवाद के खिलाफ सक्रिय समर्थन की विदेश नीति से अलग था, लेकिन पहलकदमी लेकर राजनीतिक हस्तक्षेप और शांति बहाल करते हुए आजादी के रास्ते को साफ करने के पक्ष में था।

आज हम जिस भारत में रह रहे हैं, वह ब्रिटिश उपनिवेशवाद से बाहर आने की प्रक्रिया में बना है। इसकी विदेश नीति इन्हीं आकांक्षाओं के साथ बनी है। यह जरूर ही कभी अमेरीका, कभी रूस, कभी यूरोपीय देशों के इस या उस के पक्ष में झुकता, समझौता करता रहा है। लेकिन, कभी भी वह राजनीतिक तौर पर किसी देश पर किसी देश के कब्जे का समर्थन नहीं किया। यही कारण था भारत हमेशा ही फिलिस्तीन की आजादी के पक्ष में रहा।

हम इतिहास के पन्नों को पलटकर देख सकते हैं कि इजरायल का निर्माण फिलिस्तीन की जमीनों पर साम्राज्यवादियों के कब्जा जमाने के साथ शुरू हुआ। अमेरीका और ब्रिटेन मध्य एशिया में अरब और फिलिस्तीन की जमीनों पर कब्जा जमाते हुए एक नया देश बना रहे थे। वे यहूदी लोगों को, जो यूरोप में धर्म के आधार पर फासीवादी हमलों के शिकार हुए थे, उन्हें यूरोप में जगह देने की बजाए मध्य एशिया के फिलिस्तीनी लोगों के खदेड़ कर उनके वतन में बसाते हुए धर्म पर आधारित एक नया वतन बसा रहे थे।

दरअसल, आज इतिहास गवाह है कि साम्राज्यवादियों ने यहूदी लोगों के धार्मिक उत्पीड़न के प्रतिकार को मुस्लिम समुदाय के खिलाफ उतार रहे थे- धर्म और राजनीतिक मानचित्र, दोनों के साथ। खासकर, अमेरीकी नीतिकारों ने एशिया को एक नये धर्म-युद्ध की ओर ठेल दिया था।

यह अमेरिका ही था, जिसने आतंकवाद को इस्लाम और मध्य एशिया को एक साथ जोड़ दिया और अपनी आर्थिक, सामरिक, राजनीतिक आकांक्षा को पूरा करने के लिए पिछले 30 सालों से एक अनवरत युद्ध में बदल दिया है। यह हमारे लिए दुर्भाग्य की बात रही है कि 1990 के बाद भारत की विदेश नीति अमेरीकी नीति से सिर्फ प्रभावित ही नहीं हुई, इसका असर भारत की गृह नीति पर भी पड़ा। इसका असर काफी गंभीर रहा।

‘आतंकवाद’ की श्रेणी निर्धारित करने में एक के बाद एक कानून बनाये गये। पार्टी, जनसंगठन, जनआंदोलनों पर प्रतिबंध लगाने की राजनीति मुख्य होती गई और राजनीतिक प्रक्रिया गौण होती गई। धर्म का असर एक निर्णायक ताकत में बदलता गया। दंगों की बाढ़ में बहुसंख्यकवाद राष्ट्रवाद में बदलता गया और एक फासिस्ट दर्शन की शक्ल में बदलता गया।

यह बेहद भयावह स्थिति है। शायद ही कोई मजबूत संप्रभु देश-राष्ट्र की गृहनीति विदेश नीति से इस तरह संचालित हुई हो और गृह हालातों से उपजी आकांक्षाएं इतिहास, रिवायत और मूल्यों को धकेलकर किनारे करते हुए अचानक ही विदेश नीति में बदलाव की घोषणा कर दिया हो। ऐसा होना, शासक वर्ग के लिए जितना भी अनुकूल लगे, लेकिन एक देश के नागरिक के तौर पर इसे स्वीकार करना किसी देश की गुलामी को स्वीकार करने से कम नहीं है।

भारत की विदेश नीति निश्चित ही सिर्फ सरकारी मामला नहीं, यह हमारे देश के राजनय, उसकी आकांक्षा, मूल्य और जीवन के साथ, उसकी संप्रभुता के साथ जुड़ा है। इसे हमें कभी नहीं छोड़ना चाहिए और उपनिवेशवादी कब्जे से मुक्ति, किसी वतन के आजाद होने की आकांक्षा के साथ खड़ा होना चाहिए। यह पहले भी भारत की नीति थी, आज भी होनी चाहिए।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

अंजनी कुमार
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