भारत की विदेश नीतिः दो नावों की सवारी के ज्यादा दिन नहीं!

साल भर पहले यूक्रेन में रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू होने के बाद से भारत की कूटनीति ‘दो नावों पर सवारी’ करने जैसी रही है। इस दौरान भारत सरकार ने नए बने हालात का पूरा फायदा उठाने के प्रयास किए। पश्चिमी प्रतिबंध लगने से रूस की बनी मजबूरी का लाभ भारत को सस्ती दरों पर कच्चा तेल मिलने के रूप में मिला।

दूसरी तरफ तमाम अमेरिका और उसके साथी देशों की एशिया-प्रशांत रणनीति में भारत इतना अहम है कि रूस से संबंध जारी रखने के कारण जन्मी तमाम नाराजगी के बावजूद भारत के प्रति कोई सख्ती दिखाने से वे देश बाज आते रहे। बल्कि इसी दौर में विभिन्न क्षेत्रों में संबंध और बढ़ाने के लिए अमेरिका और भारत के बीच कई सहमतियां बनीं।

लेकिन संभव है कि अब ये दौर ज्यादा लंबा ना चले। भारत स्थित रूस के राजदूत डेनिस एलिपोव की ताजा टिप्पणियों ने इस बात का साफ संकेत दिया है। भारत और रूस के बीच 1993 में हुई ‘मित्रता संधि’ की 30वीं सालगिरह पर आयोजित एक चर्चा में एलिपोव ने इस बात का जिक्र किया कि 2022 में भारत और रूस का आपसी व्यापार पिछले तमाम रिकॉर्ड तोड़ते हुए 30 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया। इसमें सबसे बड़ा योगदान रूस से हुए कच्चे तेल के निर्यात का रहा, जिसमें 36 गुना बढ़ोतरी हुई। भारत के कुल तेल आयात में रूसी तेल का हिस्सा पिछले वर्ष 25 प्रतिशत हो गया।

इसके बावजूद एलिपोव ने कहा- ‘दुनिया में पिछले कुछ समय से बुनियादी भू-राजनीतिक परिवर्तन आ रहे हैं, जिनकी गति यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से काफी तेज हो गई है। इसका तनाव भारत और रूस के संबंध पर महसूस किया जा रहा है।’ एलिपोव ने आखिर ये टिप्पणी क्यों की?

इसकी वजह यह है कि रूस ने जो निर्यात किया, उसका पूरा पैसा उसे नहीं मिला है। वजह यह है कि रूस सारा भुगतान रुबल में चाहता है। इसके लिए रुपया-रुबल विनिमय का सिस्टम बनाया गया है, लेकिन भारतीय बैंक पश्चिमी प्रतिबंधों के दायरे में आने की आशंका से इसका इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।

बल्कि अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के मुताबिक भारत ने रूस से जो हथियार खरीदे हैं, उसके बदले होने वाला 28 हजार करोड़ रुपए का भुगतान भी रुका हुआ है। इस खबर को अगर एलिपोव के भाषण से जोड़ कर देखें, तो तस्वीर कुछ और साफ होती है।

एलिपोव ने कहा- ‘भारत और रूस का रक्षा संबंध अभूतपूर्व बना हुआ है। स्पष्टतः, कभी-कभी अमेरिका का यह दावा मनोरंजक लगता है कि भारत के साथ उसका रक्षा संबंध सबसे अलग प्रकार का है। लेकिन हम जैसी उन्नत टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करते हैं, अमेरिका उसके कहीं करीब भी नहीं है। लेकिन अमेरिका प्रचार करने में माहिर है। इसमें यह प्रचार भी शामिल है कि यूक्रेन में इस्तेमाल हुए रूसी हथियारों का प्रदर्शन कमजोर रहा है।’

इस रूप में रूसी राजदूत ने भारत को ये बात याद दिलाई कि रूस अकेला देश है, जो हथियारों के साथ अपनी टेक्नोलॉजी भी ट्रांसफर करता है। अमेरिका ऐसा नहीं करता। यानी भारत के पास रूसी हथियारों का कोई विकल्प नहीं है।

खबरों के मुताबिक रूस अब दबाव डाल रहा है कि भारत उसकी रकम का भुगतान करे, लेकिन वह इसे अमेरिकी डॉलर में स्वीकार नहीं करेगा। पहले आई खबरों में बताया गया था कि रूस ने भारत से रुपया-रुबल सिस्टम के तहत आंशिक भुगतान की मांग की है, जबकि ज्यादातर भुगतान वह चीनी मुद्रा युवान या यूएई की मुद्रा दिरहम में चाहता है।

रूसी कंपनियों का तर्क है कि वे भारत से जितना आयात करती हैं, उससे अधिक भारतीय रुपये का उनके लिए कोई उपयोग नहीं है। इसलिए भारतीय आयातकों को युवान या दिरहम में भुगतान करना चाहिए।

इंडियन एक्सप्रेस और द हिंदू में छपी खबरों के मुताबिक भुगतान के इस मुद्दे पर इसी महीने दोनों पक्षों के बीच उच्च-स्तरीय बैठक होगी। भारतीय अधिकारियों में युवान को लेकर एतराज है, लेकिन संभवतः वे दिरहम का इस्तेमाल करने पर राजी हो जाएंगे।

यहां यह याद रखना चाहिए कि पिछले एक साल में बनी विश्व परिस्थितियों के बीच चीन और रूस का व्यापार रिकॉर्ड सीमा तक पहुंच गया है। ये दोनों देश डॉलर मुक्त भुगतान व्यवस्था बनाने की कोशिश में काफी आगे बढ़ चुके हैं। भारत में यह बात अनेक लोगों को आश्चर्यजनक लग सकती है, लेकिन यह हकीकत है कि यूएई इस कोशिश में सहभागी बना हुआ है।

इसकी कुछ वजहें तो भू-राजनीतिक हैं, लेकिन बड़ी वजह आर्थिक है। गुजरे एक साल में रूसी कंपनियों और वहां के धनी मानी लोगों के लिए अंतरराष्ट्रीय कारोबार के लिए यूएई प्रमुख केंद्र बन कर उभरा है। बड़ी संख्या में रूसी वहां आकर बस गए हैं, जो पश्चिमी भुगतान और व्यापार व्यवस्था से बचते हुए अपना कारोबार आगे बढ़ा रहे हैं।

यह भी महत्त्वपूर्व है कि यूएई के सेंट्रल बैंक ने अपनी मुद्रा को ए-ब्रिज प्लैटफॉर्म का हिस्सा बनाया है। चार सेंट्रल बैंकों के इस भुगतान प्लैटफॉर्म में चीन, हांगकांग और थाईलैंड शामिल हैं। इस सिस्टम के तहत मौजूद विनिमय दर के अनुरूप स्वतः मुद्रा का लेन-देन इन देशों के बीच हो जाता है।

इसका अर्थ यह हुआ कि अगर आपके पास दिरहम है, तो उससे आप युवान में भुगतान करते हुए खरीदारी कर सकते हैं। ए-ब्रिज डॉलर के दायरे से हटने की इस समय दुनिया में चल रही कई कोशिशों में एक है। इसीलिए रूस भारतीय आयातकों से रुबल में आंशिक भुगतान के अलावा बाकी भुगतान दिरहम या युवान में चाह रहा है।

डॉलर के दायरे से हटने की तमाम कोशिशें अमेरिकी साम्राज्यवाद की जड़ पर चोट हैं। अब प्रश्न है कि क्या भारत खुल कर इस प्रयास का हिस्सा बनेगा? भारत की अपनी मुद्रा में भुगतान की कोशिश को अमेरिका अपनी वर्तमान रणनीतिक मजबूरियों के तहत बर्दाश्त किए हुए है। लेकिन क्या उस प्रयास पर भी उसकी वही प्रतिक्रिया होगी, जिससे उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी चीन की योजना मजबूत होगी? लेकिन मुश्किल यह है कि भारत ऐसा नहीं करता है, तो फिर हमेशा से आजमाए और काम आए रूस से अपने संबंधों को उसे दांव पर लगाना होगा।

दरअसल, बात यहीं तक नहीं है। भारत के सामने एक बड़ी मुश्किल इस साल ब्रिक्स (ब्राजील- रूस- भारत- चीन- दक्षिण अफ्रीका) के शिखर सम्मेलन के समय आएगी। इस बार इस सम्मेलन की मेजबानी दक्षिण अफ्रीका करेगा। वहां के राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा एक से ज्यादा बार यह कह चुके हैं कि इस बार का शिखर सम्मेलन ब्रिक्स के विस्तार का मौका बनेगा। कई अन्य देशों के साथ अर्जेंटीना, ईरान, अल्जीरिया, मिस्र और यहां तक कि सऊदी अरब भी ब्रिक्स में शामिल होने की इच्छा जता चुके हैं।

आज दुनिया की तमाम रणनीतिक चर्चाओं में ब्रिक्स को पश्चिम संचालित विश्व व्यवस्था के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। उसे शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) और कुछ चर्चाओं में चीन की महत्त्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के साथ उभर रहे नए वैश्विक ढांचे का एक हिस्सा माना जा रहा है।
भारत ब्रिक्स के संस्थापक देशों में है। इस संगठन में फैसले आम सहमति से होते हैं। यानी कोई देश ना चाहे, तो फैसला नहीं होता।

ऐसे में सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है कि ब्रिक्स के विस्तार को भारत चाहे तो रोक सकता है। लेकिन ऐसा करने का मतलब ब्रिक्स में अलग-थलग पड़ना होगा। इसलिए कि बाकी चारों देश इस मुद्दे पर एकमत हैँ। उधर इसका मतलब सदस्य बनने के आकांक्षी तमाम देशों से दुराव मोल लेना भी होगा। क्या भारत इसका जोखिम उठाएगा?

लेकिन भारत ऐसा नहीं करता है, तो फिर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के साथ उसके संबंधों में पेंच पड़ सकते हैं। इसलिए कि ये देश यह कतई नहीं चाहते कि भारत उनके वर्चस्व में चल रही व्यवस्था का विकल्प बनाने की कोशिशों में सक्रिय भूमिका निभाए।

तो कहने का तात्पर्य यह है कि दो नावों की सवारी अब ऐसे बिंदु पर पहुंचती दिख रही है, जिसके बाद इसी तरह उस पर चलते हुए दोनों तरफ से लाभ हासिल करना कठिन होता जाएगा। आखिरकार भारत को कोई एक नाव चुननी पड़ेगी। उसमें एक नाव उस यूरेशियाई भूगोल में है, जहां भारत भी मौजूद है। दूसरी नाव इस भूगोल से दूर है और वह उन देशों की है, जो यूरेशिया की उभरती ताकत को किसी भी रूप में रोकना या नष्ट करना चाहते हैं।

इसमें किसके साथ रहना भारत के आम जन के हित में है, यह तो खुद स्पष्ट है। लेकिन भारत का शासक वर्ग अपने आर्थिक हितों और मनोवैज्ञानिक झुकावों को तरजीह देते हुए दूसरी नाव को भी चुन सकता है। उसके परिणाम क्या होंगे, इसका अभी सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।

(सत्येंद्र रंजन अंतरराष्टीय मामलों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

सत्येंद्र रंजन
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