यूक्रेन पर रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू होने के बाद भारत सरकार ने जो रुख लिया, उससे दुनिया भर के कूटनीतिक विशेषज्ञ चौंके। संयुक्त राष्ट्र में रूस की निंदा के लिए पश्चिमी देशों की तरफ से लाए गए प्रस्ताव पर भारत मतदान में शामिल नहीं हुआ। इससे लगे झटके को पश्चिमी राजधानियों में साफ महसूस किया गया। मंत्रियों और कूटनीतिकों के बयानों के बाद आखिरकार अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी इस पर टिप्पणी की। उन्होंने भारत को इस मुद्दे पर shaky (यानी डांवाडोल या भयाक्रांत) कह दिया।
बहरहाल, दुनिया के कुछ दूसरे हिस्सों में भारत के इस रुख से उम्मीदें जगीं। जहां उम्मीदें जगीं, उनमें चीन भी है। चूंकि अब चीन और रूस के बीच एक स्पष्ट और ठोस धुरी उभर चुकी है, इसलिए समझा जा सकता है कि वहां जगी आशाओं का एक व्यापक संदर्भ था। दुनिया के इन हिस्सों में कहा गया कि भारत के रुख से एक ओपनिंग (नई शुरुआत) की संभावना जगी है।
यानी आशा पैदा हुई,
लेकिन यूक्रेन संकट के सिलसिले में दुनिया भर में जिस तेज रफ्तार से कूटनीति हुई और विभिन्न देशों को अपने-अपने पाले में लाने की जो कोशिशें हुईं हैं, उनके बीच भारत ने किसी नई ओपनिंग की संभावना पर जल्द ही विराम लगा दिया है। इसके आरंभिक संकेत जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीसन के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वार्ताओं से मिले। ऑस्ट्रेलिया और जापान दोनों अमेरिकी नेतृत्व वाले क्वाड्रैंगुलर सिक्युरिटी डायलॉग (क्वैड) का हिस्सा हैं, जिसमें भारत भी शामिल है।
किशिदा और मॉरीसन के साथ मोदी की बातचीत के बाद जो आधिकारिक जानकारियां सामने आईं, उनसे यह जाहिर हुआ कि भारत अमेरिका की क्वैड रणनीति का हिस्सा बने रहने के प्रति कृतसंकल्प है। रूस के मामले में लिए गए अपने रुख के बचाव में भारत की तरफ से यह कहा गया कि क्वैड को अपना ध्यान एशिया-प्रशांत क्षेत्र पर ही केंद्रित रखना चाहिए। यानी इसमें शामिल देशों को अन्य क्षेत्रों से जुड़े मामलों पर भारत के रुख को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ऐसे तमाम संकेत हैं कि क्वैड में शामिल देश- और अन्य पश्चिमी मुल्क भी- भले ही मायूस मन से, लेकिन भारत के रूस से विशेष ऐतिहासिक और रक्षा संबंधी रिश्तों को समझते हुए यूक्रेन मामले में उसके रुख को स्वीकार करने पर तैयार हो गए हैं।
इस संकेत के बावजूद चीन के विदेश मंत्री वांग यी 24-25 मार्च को भारत आए। चीनी सूत्रों के हवाले से मीडिया में आई खबरों में कहा गया था कि वांग की इस यात्रा का मकसद भारत का मूड भांपना है। यानी वे यह जानना चाहते थे कि क्या यूक्रेन संकट पर भारत ने जो रुख अपनाया है, उसके पीछे भारत की कोई नई और व्यापक रणनीतिक समझ है, या यह सिर्फ एक मामले में अपने विशेष हित की रक्षा के लिए उठाया गया एक तरह का ट्रांजैक्शनल (लेन-देन की भावना से प्रेरित) कदम है?
जब चीनी विदेश मंत्री भारत आए, तो उन्हें यह साफ संदेश मिला कि यूक्रेन मामले में भारत के रुख का एक सीमित संदर्भ ही है। नई दिल्ली में हुई चर्चाओं पर भारत-चीन का आपसी विवाद छाया रहा। यह साफ हुआ कि भारत की मुख्य चिंता चीन के साथ सीमा विवाद है, जो पिछले दो साल में और अधिक तीखा हो गया है। ये बात पहले भी स्पष्ट थी और वांग की यात्रा के दौरान उस पर और रोशनी पड़ी कि सीमा विवाद पर भारत और चीन की समझ एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत है। ये अंतर क्या है, इस पर गौर करना जरूरी हैः
यह निर्विवाद है कि सीमा विवाद 2008 के बाद से अधिक गंभीर रूप लेता गया। ये वही साल है, जब भारत ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया था। मोदी के शासन काल में पहले डोकलाम विवाद हुआ, जिसे पहले के मौकों की तरह हल कर लिया गया। लेकिन मई 2020 में लद्दाख सेक्टर में चीनी फौजों के आगे आकर जम जाने से सीमा विवाद ने एक बेहद गंभीर रूप धारण कर रखा है। इसी दौरान गलवान घाटी की घटना हुई, जिसमें 20 भारतीय सैनिक मारे गए। हालांकि भारत सरकार ने दो टूक कहा है कि भारत की एक इंच भी जमीन पर चीन ने कोई नया कब्जा नहीं जमाया है, लेकिन उसकी यह राय भी रही है कि सीमा पर चीन ने जिस बड़े पैमाने पर सेना का जमावड़ा किया है, उससे वहां तनाव की स्थिति है। वैसे भारत में मीडिया रिपोर्टों और अनेक रक्षा विशेषज्ञों की तरफ से लगातार यह बात कही गई है कि मई 2020 के बाद चीनी सेना उस इलाके तक आ जमी है, जहां उसके पहले तक भारतीय सुरक्षा बल गश्त लगाते थे।
अनेक रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि चीनी सेना लद्दाख सेक्टर में अब उस बिंदु तक आ गई है, जिसे 1959 में भारत को सौंपे नक्शे में चीन ने ‘सीमा’ बताया था। तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री झाओ एनलाई ने ये नक्शा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दिया था। लेकिन नेहरू सरकार ने उसे अस्वीकार कर दिया। भारत मैकमोहन लाइन को सीमा मानने के अपने रुख पर अडिग रहा। कहा जाता है कि इस मतभेद की वजह से ही तब सीमा वार्ता टूट गई थी। नेहरू सरकार ने काल्पनिक मैकमोहन लाइन तक के इलाके तक फॉरवर्ड पोस्ट की बनाने की नीति अपनाई, जो अंततः 1962 में भारत-चीन युद्ध का कारण बना।
रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक देपसांग जैसे इलाकों पर अपना कब्जा पाकिस्तान के साथ बने अपने आर्थिक और सैनिक हितों की रक्षा के लिए चीन जरूरी मानता है। इसलिए उसने अब औपचारिक रूप से एकतरफा ढंग से 1959 के नक्शे को सीमा बताना शुरू कर दिया है। इसी नीति के तहत चीनी सेना दो साल पहले आगे बढ़ी। नतीजतन, जिन नए क्षेत्रों में चीनी फौज दो साल पहले आई, चीन सरकार उसे वहां से पीछे हटाने को अब बिल्कुल तैयार नहीं है। चीनी नीतियों के पर्यवेक्षक 2020 में चीन की नीति में आए बदलाव के सिलसिले में अक्सर तीन कारणों का जिक्र करते हैं:
अगर लद्दाख क्षेत्र में सैनिक मौजूदगी बढ़ाने और वहां एकतरफा ढंग से 1959 का नक्शा लागू करने की चीनी कोशिशों की सचमुच यही वजहें हैं, तो समझा जा सकता है कि चीन किसी अन्य क्षेत्रीय या वैश्विक समीकरण के लिए अपने ये कदम वापस नहीं खींचेगा। जबकि भारत के लिए लद्दाख में बने नए हालात को स्वीकार करने का मतलब यह है कि भारत 1959 के नक्शे को स्वीकार कर ले। इसके परिणाम पूरब यानी अरुणाचल प्रदेश की तरफ भी हो सकते हैं। स्पष्टतः यह ऐसी स्थिति है, जिस पर दोनों पक्षों में सहमति बनना आसान नहीं है। ऐसे में वांग की यात्रा के दौरान बात तभी आगे बढ़ती, अगर दोनों में से कोई एक पक्ष अपना रुख बदलने को तैयार होता। चूंकि ऐसा नहीं हुआ, इसलिए संभवतः यही संदेश मिला कि यूक्रेन संकट पर भारत का रुख उसकी पूरी विदेश नीति में किसी बुनियादी बदलाव का संकेत नहीं है।
यानी अब यह कहने का ठोस आधार है कि यूक्रेन संकट पर भारत का रुख एक अपवाद भर है। इससे पश्चिमी देशों को चाहे जितनी नाराजगी हुई हो, लेकिन एशिया-प्रशांत की अपनी रणनीतिक मजबूरियों के कारण अमेरिकी खेमे के ये देश भारत के खिलाफ प्रतिबंध जैसी कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए कि उनकी एशिया-प्रशांत रणनीति भारत के बिना खोखली साबित हो जाएगी। अतः उनकी कोशिश यूक्रेन संकट पर मतभेद को एक अपवाद मान कर भारत को अपनी धुरी से जोड़े रखने की होगी।
उसका व्यावहारिक मतलब यह होगा कि इस समय जो नए अंतरराष्ट्रीय समीकरण उभर रहे हैं और जिस तरह की नई वैश्विक परिस्थितियों की संभावना ठोस रूप ले रही है, भारत न सिर्फ उससे बाहर रहेगा, बल्कि कई मौकों पर उसके विरोध में खड़ा भी दिखेगा। ऐसा इसके बावजूद होगा कि चीन-रूस की धुरी फिलहाल भारत के प्रति नरम रुख अपनाते हुए यह संदेश देने की कोशिश में जुटी रहेगी कि भारत अपनी विदेशी नीति संबंधी ऐतिहासिक विरासत के कारण कभी भी अमेरिका की साम्राज्यवादी परियोजना का अभिन्न अंग नहीं बनेगा। लेकिन यह स्थिति लंबे समय कायम रहेगी, यह बात भरोसे के साथ नहीं कही जा सकती।
इस बीच यूक्रेन पर रूस की सैनिक कार्रवाई के बाद बीते एक महीने में जो हुआ है, उसे अब अधिक स्पष्ट रूप में सूत्रबद्ध किया जा सकता है। इस दौरान ये बातें साफ हुई हैं:
जब दुनिया में घटनाक्रम की दिशा यह है, तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर इसमें भारत कहां खड़ा होगा? भारत की जो भौगोलिक स्थिति है, उसमें अमेरिकी रणनीति का मोहरा बनना कभी उसके माफिक नहीं समझा गया। तब भी नहीं, जब अमेरिकी वर्चस्व को एक निर्विवाद तथ्य माना जाता था। अब जबकि अमेरिका और उसके खेमे का लगातार हो रहा पराभव सबके सामने है, यह सवाल अधिक गंभीर हो गया है कि क्या उस खेमे से अपना भविष्य जोड़ना किसी के लिए बुद्धिमानी भरा निर्णय है? इस सवाल का किसी विचारधारा या आदर्श से संबंध नहीं है। यह सीधे तौर पर राष्ट्रीय हित से जुड़ा प्रश्न है।
वैसे कभी भारत की पहचान विचारधारा प्रेरित विदेश नीति अपनाने वाले देश के रूप में स्थापित हुई थी। तब आज की तुलना में आर्थिक और सैनिक रूप से भारत बहुत कमजोर था। लेकिन उसे उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ एक मजबूत आवाज समझा जाता था। आज अमेरिकी साम्राज्यवाद को पहली बार ऐसी चुनौती मिल रही है, जिससे उसके कमजोर या समाप्त होने की वास्तविक संभावना है। यह विडंबना ही है कि चुनौती देने वाली ताकतों के बीच भारत का नाम शामिल नहीं है। इसीलिए इसे दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा कि इस सिलसिले में जिस ओपनिंग की उम्मीद बंधी थी, उस पर अब विराम लग गया है। क्या यह भारत की प्रतिष्ठा और राष्ट्रीय हित के अनुरूप है, यह सवाल भी हम सबके सामने है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)