सरकार को उसकी परेशानी और डर मुबारक: पेगासस सूची में शामिल ईप्शा शताक्षी

अगर आप ग्रासरूट पर पत्रकारिता करते हो, आप एक्टिविज्म में हो, किसी राजनीतिक पार्टी या संगठन से ताल्लुक रखते हो या ऊंचे पद पर आसीन हो, तब तो आप सर्विलांस पर हो। मगर जब आप ऐसा कुछ नहीं करते हो, बस ऐसे साथी, किसी परिवार के सदस्य या अन्य के साथ खड़े होते हो, तब भी आपके फोन में किसी स्पाइवेयर से जासूसी कराने की पूरी संभावना है। यह बात संर्विलांस पर रखे गए लोगों की सूची में अपना नाम देखकर कह रही हूं।

स्पायवेयर ‘पेगासस’ द्वारा जासूसी की लिस्ट में अपने नाम को जानकर हैरानी हुई भी और नहीं भी। इसके पीछे के कारणों में दो पक्ष है-पहला जब मैं अपने खुद की बात करूं तो, स्टूडेंट लाइफ से ही मैं टीचिंग करती रही हूं। और बाद में मैंने होम ट्यूशन के साथ-साथ कॉलेज, स्कूलों में पढ़ाया है। और छात्र जीवन से ही-कविताएं, कहानियां और लेख (खासकर पर्यावरण के मुद्दे पर) लिखती रही हूं। जो पहले राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थी। पर सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद यहीं पोस्ट कर देती हूं। और पर्यावरण दिवस पर लेख वेब पोर्टल- मीडिया विजिल, जनचौक, द कोरस आदि पर आए हैं। छात्र जीवन में ही कई बार कवि गोष्ठी, ‘सेमिनार’ हत्यादि में भी हिस्सा लिया था। रूपेश के जेल से आने के बाद उनके साथ 2-3 सामाजिक-राजनैतिक कार्यक्रमों में शामिल हुई हूं।

तो इस तरह मैं खुद को देखती हूं, तो मेरे जीवन में किसी सरकार या सत्ता को रूचि लेने का कोई कारण नहीं दिखता।

अब अगर मैं अपने दूसरे पक्ष को देखूं, जिसमें पत्रकारिता को महज नाम कमाने या ऐसे ही अन्य उद्देश्य की पूर्ति की जगह हाशिये पर पड़े लोगों के साथ खड़े होने, उनकी आवाज को वृहद रूप देने उनके साथ हो रहे शोषण, दमन की पोल खोलने से जुड़े बेबाक और सच्ची पत्रकारिता कर रहे रूपेश का जीवन साथी होना। तो मुझे आश्चर्य नहीं होता है मेरे फोन के सर्विलांस पर रखे जाने पर।

हां! 4 जून 2019 को घर से निकलने के बाद रूपेश को गायब कर दिए जाने से लेकर 6 महीने जेल में बिताने के बाद 6 दिसम्बर 2019 तक मैं रूपेश के मामले को लेकर एक्टिव रही।

अवैध हिरासत के बाद फर्जी मुकदमे लगाकर 6 महीने रूपेश को जेल में रखे जाने तक का समय मेरे लिए आसान नहीं रहा। उस दौरान मैंने और मेरी छोटी बहन इलिका प्रिय ने इस गिरफ्तारी के विरोध में एक कैंपेन चलाया था। इसमें सोशल मीडिया, प्रेस कांफ्रेंस, प्रेस रिलीज के साथ-साथ कई राजनीतिक पार्टियां जो खुद को प्रगतिशील कहती हैं, के लोगों से बातचीत होती थी। शेरघाटी जेल में रूपेश के नेतृत्व में अन्य बंदियों द्वारा भूख हड़ताल की खबर भी मुख्य रूप से मैंने ही मीडिया को दिया। सेंट्रल जेल में रूपेश को एक जर्जर कमरे में रखे जाने पर मैंने एनएचआरसी, एसएचआरसी, जेल आईजी, जेल सुप्रीटेंडेंट व अन्य उच्च पदाधिकारियों को आवेदन देने के साथ-साथ बिहार के गया के पत्रकारों को भी इस खबर के बारे में बताया था। उन दिनों रूपेश के वकीलों से मिलना, केस को समझना, बेल के लिए सही समय पर पेटिशन देने जैसे काम को मैं ही कर रही थी। इस दौरान पहली बार रूपेश से मिलने जाने के समय मुझे मेरी कार में स्टीयरिंग के नीचे एक जीपीएस (माइक्रो कैमरा व माइक्रो फोन के साथ) एयरटेल का सिम लगा हुआ मिला था, जिसे मैंने मीडिया को भी बताया था। बंदियों के लिए काम करने वाले संगठन एचआरएलएन, एचआरडीए, सीआरपीसी तथा अन्य मीडिया हाउस से केस के सिलसिले में मेरी बात होती रहती थी।

रूपेश पर गंभीर आरोप लगने के बाद भी मुझे उन पर गर्व रहा क्योंकि मैं सच्चाई जानती थी कि वे निर्दोष हैं और उनकी जमीनी पत्रकारिता के कारण ही उन्हें फंसाया गया है। इसे सबके सामने लाने के लिए ही मैंने और बहन इलिका ने मिलकर रूपेश के लेखों का एक संग्रह ‘हम आजाद हैं तब, जब हमें बोलना आता हो ’ प्रकाशित करवाया था।

मैंने तो वही किया जो किसी जीवनसाथी द्वारा किया जाना चाहिए। अगर इससे सरकार को परेशानी या डर है, तो उन्हें उनकी परेशानी और डर मुबारक।

मैं गर्व से कह सकती हूं कि रूपेश से जुड़ने के बाद मेरी राजनीतिक, सामाजिक समझदारी बढ़ी। रूपेश के स्पॉट पर जाकर की जाने वाली रिपोर्टिंग के जरिए मैंने भी ‘विकास’ और ‘नक्सलियों का खात्मा’ के नाम पर सरकार की योजना के पीछे की असली सच्चाई को जाना, कि कैसे सत्ता महज मुनाफा कमाने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए देशी-विदेशी पूंजीपतियों को खनन, उद्योग, काम्पलेक्स, हवाई अड्डा इत्यादि के लिए जमीन उपलब्ध कराने के लिए अपने ही नागरिकों के साथ क्रूर से क्रूर व्यवहार करती है।

इनका ‘ विकास’ कभी भी महानगरों पर फुटपाथ पर सोए लोगों या फटे-चीटे गंदे कपड़ों में लिपटे हाथ पसारे बूढ़े, बच्चों या लाचार के लिए नहीं होता। इनके ‘विकास’ की नजर हमेशा प्राकृतिक संपदा से भरपूर जंगल, पहाड़ों के लिए होती है। फिर चाहे वो झारखंड हो, छत्तीसगढ़ हो या देश के अन्य क्षेत्र हों।

एक तरफ हमें बचपन से ही नैतिकता से जुड़ी बातें सिखाई जाती हैं। ‘हमें कुछ गलत नहीं करना चाहिए। जो गलत करें तो उसका विरोध करना चाहिए। गलत काम में साथ नहीं देना चाहिए। फलां, फलां। पर इसी नैतिकता को जब कोई अपने जीवन के हर क्षण में व्यवहार में लाता है, तब वह सत्ता के लिए खतरा बन जाता है। ’सत्ता न केवल उस इंसान की बल्कि उससे जुड़े अन्य लोगों की निजी जिंदगी में भी ताक-झांक शुरू कर देती है यह निजता के अधिकार का हनन है। जो पूरी तरह असंवैधानिक और अनैतिक है।

(ईप्सा शताक्षी झारखंड के रामगढ़ में रहती हैं।)

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