यह इमर्जेंसी का नहीं, पाकिस्तानी सियासत का ‘रिपीट’ नजर आता है

बहुत सारे लोग आज के राजनीतिक दौर की तुलना सन् 1975-77 के दौर की ‘इमर्जेंसी’ से कर रहे हैं। संयोगवश, मैंने इमर्जेंसी देखी थी। निस्संदेह, वह बहुत बुरी थी। लोकतंत्र का भारतीय रूप-रंग स्थगित-सा हो गया था। नेताओं, कार्यकर्ताओं और असहमत लोगों की गिरफ्तारियां हुई थीं। पर लोकतंत्र की ज्यादातर संस्थाएं आज की तरह ध्वस्त नहीं हुई थीं। केंद्रीय एजेंसियों से लेकर विश्वविद्यालयों तक को एक ही राजनीतिक रंग में रंगा नहीं गया था। आज तो सरकार का एक मंत्री निचली अदालत के जजों को नहीं, देश की सर्वोच्च न्यायिक प्रक्रिया को भी प्रकारांतर से धमकी देता नजर आ रहा है।

पिछले दिनों कहा गया कि देश की सर्वोच्च अदालत के कुछ सेवा-निवृत्त न्यायाधीश ‘एंटी-नेशनल गैंग’ में शामिल हो गये हैं। जिन न्यायाधीशों से सत्ता खुश है, उन्हें रिटायर होते ही कहीं गर्वनर या कोई ऐसा ही बड़ा ओहदा दिया जा रहा है और जिनसे नाराजगी है, उन्हें ‘एंटी-नेशनल गैंग’ का बताकर धमकाया जा रहा है।

इमर्जेंसी के दौरान भी अदालतों पर कुछ दबाव की चर्चा चली थी पर ऐसा भयानक दबाव नहीं था। राजनीतिक स्तर पर लोकतांत्रिकता स्थगित थी पर संवैधानिकता खत्म नहीं की गई थी। आज संवैधानिकता खत्म होती नजर आ रही है। हमारा संवैधानिक लोकतंत्र विलुप्त होता नजर आ रहा है।

तब मीडिया या प्रेस पर सेंसरशिप थी। आज मीडिया का बड़ा हिस्सा किसी औपचारिक सेंसरशिप के बगैर सत्ता का अंग बना हुआ है। ऐसा इमर्जेसी में नहीं हुआ था। आज संवैधानिकता का नामोनिशान कागजों में ही बचा है। इन अर्थों में देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य की तुलना पड़ोसी पाकिस्तान के परिदृश्य से की जा सकती है, जहां ‘संकीर्ण धर्मवाद’ (हिंदुत्ववाद) और उग्र अमीरवाद (क्रोनी-कैपिटलिज्म) के गठबंधन का राज कायम दिखता है।

हमारे यहां ‘हमजोली-कॉरपोरेटवाद’ आज जैसा ताकतवर पहले कभी नहीं दिखा। इसका सीधा असर मीडिया की सीमित-स्वतंत्रता पर पड़ा है। कुछेक अपवादों को छोड़कर समूची मीडिया सत्ता की एजेंसी में रूपांतरित हो गई है।

पाकिस्तान की तरह केंद्रीय जांच एजेंसियों पर भी ‘सत्ताधारियों’ का कब्जा सा हो गया है। विपक्षी नेताओं, बुद्धिजीवियों और असहमत लोगों को मुकदमों में फंसाने की जैसी शैली पाकिस्तान के लिए आम रही है, वह अपने देश में भी अब सामान्य बनती दिख रही है। तेजस्वी यादव से लेकर मनीष सिसोदिया, के कविता से लेकर संजय राउत, आजम खां से लेकर राहुल गांधी और दिवंगत विनोद दुआ से लेकर सिद्धार्थ वरदराजन के मामले इसके ठोस उदाहरण हैं।

ताजा मामला राहुल गांधी का है। उनकी लोकसभा सदस्यता गुजरात के सूरत के सीजेएम कोर्ट के एक फैसले के बाद खत्म की गई है। लेकिन कोर्ट फैसले से पहले भी उनकी सदस्यता खत्म करने की चर्चा सियासत और मीडिया में खूब चल रही थी। लंदन में दिये राहुल के भाषणों को ‘देशद्रोह-पूर्ण’ तक कहा गया क्योंकि उन्होंने वहां कहा था कि भारत का लोकतंत्र खत्म किया जा रहा है। राहुल के भाषण पर सत्ताधारी दल के लोग इस कदर नाराज हुए कि उन्होंने कई दिनों तक संसद के दोनों सदनों की कार्रवाई होने ही नहीं दी।

कांग्रेस और विपक्ष के लोगों ने कहा कि सत्ताधारी दल के इस हंगामे के पीछे राहुल का विदेश में दिया भाषण नहीं, लोकसभा में दिया भाषण है, जो उन्होंने हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद अडानी और प्रधानमंत्री मोदी के रिश्तों पर केंद्रित था। इंदिरा गांधी के दौर में ऐसा नहीं था। तब किसी बड़े कॉरपोरेट से प्रधानमंत्री की घनिष्ठता को लेकर हिंडनबर्ग जैसा कोई बड़ा रहस्योद्घाटन सामने नहीं आया था।

मौजूदा दौर ‘कॉरपोरेट-हिंदुत्व के भयानक गठबंधन’ का है। यह अपनी प्रकृति और स्वभाव में निरंकुश और जन-विरोधी है। जनता को आज कुछ सुविधाएं मिलती भी हैं तो उनका मकसद सिर्फ कॉरपोरेट-हिंदुत्व गठबंधन को मजबूत करने का होता है, लोकतंत्र को सुदृढ करने का नहीं।

इसी प्रक्रिया में विपक्ष के प्रमुख नेता राहुल गांधी की लोकसभा-सदस्यता गयी है। यह सही है कि कोर्ट के फैसले के बाद उनकी सदस्यता गयी है पर कोर्ट में वह मामला भाजपा के एक वरिष्ठ नेता और गुजरात के पूर्व मंत्री लेकर गये थे। कर्नाटक के कोलार की एक विवादास्पद चुनावी स्पीच के जरिय़े राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता लेने और उन्हें जेल भिजवाने के लिए सूरत के सीजेएम कोर्ट जाने का फैसला गुजरात के वरिष्ठ भाजपा नेता ने क्यों और क्या सोचकर किया?

भाजपा के नेता और संघ के आनुषंगिक संगठनों के लोग आज विषैले भाषणों के लिए कुख्यात हो चुके हैं पर उनके खिलाफ क्या कभी कोई कार्रवाई हुई? गोली मारो–को, 40 या 50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड, जर्सी गाय जैसे बयान सबको याद होंगे। चुनाव के दौर की हेट-स्पीच के लिए निर्वाचन आयोग भी सत्ताधारी दल के कई लोगों को माफ कर चुका है पर उस देश में एक पार्टी का बड़ा नेता सीजेएम कोर्ट जाकर देश के एक बड़े विपक्षी नेता की सदस्यता खत्म कराने और जेल भिजवाने की पैरवी करता है तो य़ह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि आज हमारा समाज और तंत्र कहां पहुंच गया है।

भाजपा के शीर्ष नेताओं की योजना या सीधे कहें षडयंत्र से राहुल गांधी को लोकसभा से बाहर किया गया है। पर भाजपा नेताओं की प्रतिक्रिया सुनिये तो हंसी आयेगी। वो कह रहे हैं- राहुल की वजह से ही राहुल की सदस्यता गई है या फिर उनकी पार्टी के नेताओं-सलाहकारों की नासमझी से गई या फिर उनके वकीलों ने उन्हें सही सलाह नहीं दी या केस में सही पैरवी नहीं की, इसलिए गयी है।

अब ये बात तो पूरी दुनिया जानती है कि सूरत के सीजेएम की अदालत से दो साल के लिए सजा जिस केस में सुनाई गई, उसे भाजपा के वरिष्ठ नेता और गुजरात सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे पूर्णेश मोदी ने फाइल किया था। राहुल गांधी का न इनसे किसी तरह का परिचय था और न ही उन्होंने इन महाशय की कभी निजी तौर पर कोई मानहानि की है। पर केस कर दिया कि उनके समुदाय की मानहानि की है- राहुल गांधी ने।

इस बीच, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और रविशंकर प्रसाद सहित अनेक भाजपा नेताओं ने कहा कि राहुल गांधी का अहंकार बहुत बड़ा और समझ बहुत छोटी है। अपने राजनीतिक लाभ के लिए उन्होंने पूरे ओबीसी समाज का अपमान किया है। उन्हें चोर कहा। ललित मोदी, मेहुल चौकसी या नीरव मोदी में ओबीसी कौन है? लेकिन ओबीसी पर भाजपा कुछ ज्यादा ही फिदा है।

ओबीसी समाज के हर वास्तविक नेता को बेहाल करने वाली पार्टी की नजर 2024 पर है। लेकिन कुछ तथ्यों पर भी तो नजर डाल लेते भाजपा नेता? सन् 1990 से पहले कभी भाजपा-जनसंघ ने सरकारी आलमारी में पड़ी मंडल रिपोर्ट की बात की? उसे लागू करने की कब मांग की?  सन् 1990 में क्या किया, जब अगस्त महीने में वीपी सिंह ने आयोग की आरक्षण सम्बन्धी सिफारिश को लागू करने का ऐलान किया?

मोदी जी ने या किसी बड़े भाजपा नेता क्या ओबीसी के लिए आरक्षण की लड़ाई यानी मंडल रिपोर्ट की सिफारिशें लागू करने की लड़ाई लड़ी? नब्बे के दशक में मोदी जी या आज का कोई भी बड़ा भाजपा नेता मंडल के साथ थे या कमंड़ल के साथ? क्या वह कभी वी पी सिंह, शरद यादव, लालू यादव, पासवान या नीतीश के साथ नजर आये? क्या वे सभी आडवाणी की ‘कमंडल यात्रा’ में नहीं थे? फिर ये भाजपा वालों ने ओबीसी-ओबीसी क्यों लगा रखा है?

दलितों-ओबीसी के हितों पर भयानक कुठाराघात करता हुआ तेरह प्वाइंट रोस्टर कौन लेकर आया था? अभी कुछ ही साल पहले नियुक्तियों में लेटरल इंट्री की तरकीब कौन लेकर आया? सरकारी कपंनियों का अंधाधुंध निजीकरण या विनिवेशीकरण कराकर उन सबकों को आरक्षण के दायरे से बाहर कौन ले गया है? जातिवार-जनगणना से मौजूदा सरकार इंकार क्यों कर रही है? ओबीसी समुदाय की यह आज सबसे बड़ी मांग है। फिर ओबीसी हितों की वकालत के भाजपाई दावे का क्या मतलब है?

ऐसे दौर में भविष्य को लेकर कुछ भी कहना कठिन है। राजनीतिक संकेत अच्छे नहीं हैं। 2024 के अगले संसदीय चुनाव से पहले हमारे पिचकते लोकतंत्र के लिए संभावनाएं कम और आशंकाएं ज्यादा हैं।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

उर्मिलेश

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  • बहुत बेबाक और आज की राजनीति का सटीक विश्लेषण

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उर्मिलेश