अतीक और अशरफ नहीं, कानून के राज की हुई है हत्या!

पूर्व सांसद, पांच बार के विधायक और गैंगस्टर अतीक अहमद और उनके भाई अशरफ की कल प्रयागराज में अस्पताल ले जाने के दौरान हत्या कर दी गयी। परिस्थितियां और घटनाओं का क्रम बताता है कि यह विशुद्ध रूप से ठंडे दिमाग और सोची-समझी रणनीति के तहत की गयी हत्या है। जिसमें पुलिस और हत्यारों के बीच साठ-गांठ की बू आती है। मौके का घटनाक्रम पूरे मामले को और भी साफ कर देता है। बताया जा रहा है कि दो दर्जन से ज्यादा पुलिसकर्मियों द्वारा अतीक और उनके भाई को अस्पताल ले जाया जा रहा था। अभी अस्पताल के गेट पर पहुंचने ही वाले थे कि मीडियाकर्मियों ने अतीक को घेर लिया। पहला सवाल यही उठता है कि अतीक के पास इन मीडियाकर्मियों को आखिर आने क्यों दिया गया? 

इसके पहले अहमदाबाद से यूपी की यात्राओं में मीडियाकर्मियों को तो कभी ऐसा मौका नहीं दिया गया था। यह चीज इसलिए बतानी पड़ रही है क्योंकि कहा जा रहा है कि हत्यारे मीडियाकर्मी बनकर आए थे। सामने आयी लाइव मर्डर की तस्वीर पूरे मामले का पर्दाफाश कर देती है। अतीक अभी मीडिया के सामने कुछ बोलने ही जा रहे थे कि उनके सिर में गोली लगी और वह गिर गए तभी दूसरे गन शॉट की आवाज आती है और अशरफ भी धराशायी हो जाते हैं। लेकिन इस बीच साथ मौजूद पुलिसकर्मी न तो अपनी बंदूक निकालते हैं और न ही पिस्टल के घोड़े पर हाथ रखते हैं। वह वारदात में शामिल हत्यारों की धर-पकड़ शुरू कर देते हैं। इसके साथ ही दोनों को अलग-अलग हथकड़ियों में बांधने की जगह एक ही हथकड़ी में बांधकर इस बात की गारंटी की गयी थी कि एक के गोली लगने पर दूसरे के भागने की संभावना न रहे और दोनों की हत्या सुनिश्चित की जा सके। 

एक ऐसे मौके पर जब सामने वाला गोली चला रहा हो और सच में एक एनकाउंटर घटित हो रहा हो तो पुलिस की क्या भूमिका बनती है? फिर उसने साथ में हथियार किस दिन के लिए ले रखे हैं? उनकी पहली जिम्मेदारी थी कस्टडी में मौजूद अपने कैदियों की रक्षा करना। यह एक तरह से पुलिस और उसकी पूरी सुरक्षा व्यवस्था के ऊपर हमला था। लेकिन पुलिसकर्मियों ने कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की। आमतौर पर ऐसे मौकों पर घायलों को तत्काल अस्पताल भेजा जाता है। वह इसलिए कि अगर जिंदा रहने की कोई आखिरी संभावना हो तो उसे इस्तेमाल किया जा सके। लेकिन यहां पुलिसकर्मियों ने दोनों घायलों को सामने गेट पर मौजूद अस्पताल ले जाने तक की जहमत नहीं उठायी और उन्हें मृत मानकर तकरीबन 20 मिनट तक मीडियाकर्मियों को फोटो शूट करने के लिए छोड़ दिया। और फिर उसके बाद पूरे इलाके को कॉर्डन ऑफ किया गया। 

पकड़े गए हत्यारों के नाम लवलेश तिवारी, सनी और अरुण मौर्य है। इस पूरे घटनाक्रम में एक बात साफ दिखती है कि पुलिसकर्मियों को अपनी जान जाने का कोई खतरा नहीं था। और अगर ऐसा नहीं होता तो न चाहते हुए भी वो अपनी बंदूकों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हो जाते। लेकिन चूंकि चीजें लगता है पहले से तय कर ली गयी थीं इसलिए इस तरह के किसी खतरे की संभावना ही नहीं मौजूद थी। और इस बात में कोई शक नहीं कि इसका फैसला उच्च स्तर पर लिया गया है। वह भी प्रशासनिक से ज्यादा राजनीतिक है। इस तरह से बेटे असद समेत अतीक के तीन परिजनों की एक हफ्ते के भीतर हत्या कर दी गयी।

लेकिन इस घटनाक्रम ने यह बात साबित कर दी है कि अब न्याय, न्यायालय, पुलिस और व्यवस्था का कोई मतलब नहीं रह गया है। यह बताती है कि देश की व्यवस्था अब कानून के राज से नहीं चल पा रही है। इसलिए उसे खुद इस तरह के फैसले लेने पड़ रहे हैं। यह एक तरह से राज्य की आत्मस्वीकृति है। लेकिन इसके खतरे बेहद बड़े हैं। आज जिन लोगों को अतीक के मरने पर खुशी हो रही है उन्हें यह समझना चाहिए कि कल इसी रास्ते का इस्तेमाल किसी उनके सगे-संबंधी या परिचित के खिलाफ किया जाएगा जो बिल्कुल निर्दोष होगा लेकिन सत्ता पक्ष या फिर उससे जुड़े किसी व्यक्ति के हितों में बाधक साबित हो रहा होगा। ऐसे मौके पर वह राज्य मशीनरी का इस्तेमाल करेगा और अपने मनचाहे नतीजे हासिल कर लेगा। 

ऐसा नहीं है कि अतीक ने इसकी आशंका नहीं जाहिर की थी। उन्होंने बाकायदा सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की ने कहा था कि उनके जान माल की सुरक्षा के लिए अलग से निर्देश देने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि याचिकाकर्ता पहले से ही पुलिस कस्टडी में है और वह पूरी तरह से सुरक्षित है। शायद सर्वोच्च न्यायालय इस बात को भूल गया कि यह वही पार्टी थी और उसके नेता कल्याण सिंह थे जिन्होंने इसी अदालत के सामने बाबरी मस्जिद को कोई क्षति नहीं पहुंचाने देने की शपथ दी थी और जब मौका आया तो वो अपनी जबान से पीछे हट गए और न केवल उन्होंने सुरक्षा बलों को कार्रवाई करने से रोका बल्कि बाबरी मस्जिद को शहीद हो जाने दिया। लेकिन शायद न्यायालयों ने भी अपनी भूमिका अब सीमित कर ली है। उन्हें भी अपने अंत का एहसास होने लगा है। या फिर वो भी अपनी तरह से राज्य के साथ एक सामंजस्य बैठा कर ही काम करने की अपनी भूमिका देख रहे हैं। 

इस हत्या ने कानून के राज के खत्म होने का ऐलान कर दिया है। और सब कुछ भीड़ और उन्माद के हवाले करने का संदेश बिल्कुल साफ है। यह अनायास नहीं है कि देश का सबसे तेज चैनल अतीक की हत्या पर देश में रायशुमारी करवा रहा था। और खुलेआम इस बात को पूछ रहा था कि कितने लोग अतीक के एनकाउंटर के पक्ष में हैं और कितने खिलाफ? उन जैसे तमाम चैनलों ने अहमदाबाद से यूपी की यात्रा के दौरान लाइव एनकाउंटर दिखाने की जो चाहत जाहिर की थी उसको पूरा देश ने देखा।

हालांकि बाद में योगी सरकार ने उनकी इस इच्छा को पूरा भी कर दिया जब प्रयागराज का पूरा घटनाक्रम मीडिया की मौजूदगी और उसकी आंखों के सामने घटित हुआ। इस पूरे घटनाक्रम ने बता दिया कि एक लोकतांत्रिक देश होने की बात तो दूर एक सभ्य समाज तक हम नहीं बन पाए हैं। और जो देश किसी के मरने का जश्न मनाये उसके समाज को एक जंगली या फिर कबीलाई समाज का ही दर्जा दिया जा सकता है। क्योंकि यह किसी जंगलराज में ही संभव है न कि एक आधुनिक, सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में।

हालांकि इसकी घोषणा सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बहुत पहले कर दी थी जब उन्होंने कहा था कि सब कुछ मिट्टी में मिला दूंगा। योगी बाबा आज उसी राज्य की ताकत के बल पर ऐसा करने का ऐलान कर रहे हैं जो उनके पास है। लेकिन उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि विरोधी सत्ता द्वारा इसी ताकत के इस्तेमाल ने कभी देश की सर्वोच्च पंचायत में उन्हें बिलख-बिलख कर रोने के लिए मजबूर कर दिया था।

और तब की वह तस्वीर और उसका वीडियो आज भी सोशल मीडिया पर मौजूद है जब तत्कालीन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी उन्हें ढांढस बंधाते दिख रहे हैं और हर तरीके से उनके साथ खड़े होने और मामले की जांच की बात कह रहे हैं। इसलिए इस तरह की किसी भी राजसत्ता और मशीनरी को सही नहीं ठहराया जा सकता है जो कानून और संविधान सम्मत न होकर राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करे। ऐसी अतिवादिता समय-समय पर कुछ रसूखदार लोगों के खिलाफ और आम तौर पर जनता के खिलाफ जाती है। और इसका नतीजा न्याय के जनता से लगातार दूर होने के रूप में सामने आता है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

महेंद्र मिश्र
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