खेती पर बजट और खर्च बढ़ाने की जरूरत: सोमपाल शास्त्री

प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में पिछले साल के बजट में 75 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया था लेकिन 54,370 करोड़ रुपये ही खर्च हुए। इस मद में इस बार भी इतनी ही राशि का प्रावधान किया गया है। कृषि क्षेत्र के लिए सरकार ने 16 सूत्रीय विकास मॉडल पेश किया है।शब्दों के स्तर पर देखें तो कृषि पर पर्याप्त शब्द खर्च हुए हैं। लेकिन जहां तक कृषि संबंधी बजट के आंकड़ों का सवाल है, तो स्थिति संतोषजनक नहीं लगती है।
इस बार किसानों को बहुत उम्मीदे थी, सरकार ने भी बार -बार यह कहा था कि किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी, लेकिन अब सरकार ने कहा है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। ज्यादातर आवंटनों को देखें तो संकेत अच्छे नजर नहीं आते। कुल मिलाकर कृषि के विभिन्न मदों में पिछली बार जो धन आवंटित हुए थे, उतने खर्च नहीं हो पाए हैं। मार्केट इंटरवेंशन स्कीम के लिए 3, 000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे लेकिन 2010 करोड़ रुपये ही खर्च हो पाए हैं। फसल बीमा योजना के लिए किया गया आवंटन भी कम हुआ है। बीमा पर खर्च बढ़ना चाहिए था क्योंकि ऐसी शिकायत आती रही है कि किसानों को वाजिब क्षतिपूर्ति भी नहीं मिल पा रही है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में पिछले साल 75 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान था लेकिन 54,370 करोड़ रुपये ही खर्च हुए हैं। इस मद में इस बार भी उतनी ही राशि का प्रावधान रखा गया है। फसल विज्ञान अनुसंधान के लिए भी राशि नहीं बढ़ाई है। पिछली बार 702 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे और खर्च केवल 535 करोड़ रुपये हुए हैं। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना में 2, 682 करोड़ रुपये का प्रावधान था। इस बार 1,127 करोड़ का प्रावधान किया गया है। पिछला आवंटन खर्च नहीं हो पाया है।
हरित, श्वेत और नीली क्रांति की चर्चा बजट में की गई है। हरित क्रांति आसान नहीं होगी।किसानों को उनके उत्पाद के उचित दाम नहीं मिल रहे हैं। सरकार ने वादा किया था कि सी-2 लागत में पचास प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करेगी। ऐसा नहीं हुआ, सरकार ने लागत का लेवल घटा दिया, जिससे न्यूनतम समर्थन मूल्य का उसका वादा पूरा नहीं हो सका। जहां तक नीली क्रांति (मत्स्य और जल-जीव पालन) की बात है, पिछली बार कुल आवंटन 560 करोड़ रुपये था, लेकिन खर्च 455 करोड़ रुपये ही हुए। इस बार सरकार ने 570 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं, लेकिन महंगाई को देखें तो आवंटन नहीं बढ़ा है।
सिंचाई में कोई बड़ा फर्क नहीं आया है। 58 से 60 प्रतिशत खेती तक सिंचाई की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं है। जो क्षेत्र सिंचित नहीं हैं, वहां प्रति हेक्टेयर औसतन 1.2 टन उत्पादन होता है। जबकि सिंचित क्षेत्र में उत्पादन चार टन प्रति हेक्टेयर है। आंकड़े बताते हैं कि 82 प्रतिशत ग्रामीण गरीब इन्हीं क्षेत्रों में रहते हैं। इनको न तो उपयुक्त पोषण मिलता है और न भोजन। इन तमाम वंचित किसानों तक पहुंचने के लिए महत्वाकांक्षी योजना और उसके अनुरूप आवंटन की आवश्यकता है।
इस दिशा में सरकार ने बजट में बड़ा कदम नहीं उठाया है। एक और बात पिछले तीन साल से लगातार आर्थिक प्रगति दर कम होती जा रही है। जिसका एक मुख्य कारक यह है कि औद्योगिक और सेवा क्षेत्र के उत्पादों की मांग बाजार में नहीं है। मांग इसलिए नहीं है क्योंकि उनकी 46 प्रतिशत मांग ग्रामीण क्षेत्र से आती है और ग्रामीण क्षेत्र की क्रय शक्ति लगातार घटती जा रही है। बेरोजगारी बढ़ रही है, मजदूरी दर कम हो रही है। किसानों के उनके उत्पादों से होने वाला लाभ लगातार कम हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में कृषि से इतर जो व्यवसाय है, वे भी बैठ रहे हैं। ग्रामीणों की क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए कोई उपाय नहीं किए जा रहे है।
मैं खुद किसानी करता हूं। साल 2013 में 1121 बासमती के लिए मुझे 4,800 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिला था। 2014 में यह भाव 3,500 रुपये हो गया। 2015 में 2,700 रुपये, 2016 में 2,400 रुपये, 2017 में 2,400 रुपये, 2018 में 3,300 रुपये हुआ और इस वर्ष मैने अपना वही धान 2,650 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से बेचा है। अगर आप तुलना करें तो महंगाई बढ़ने के बावजूद किसानों की कमाई घटी है। मेरे उत्पाद का दाम आधे से भी कम मिला है। सरकार को देखना चाहिए कि किसानों की आय दोगुनी होने की बजाय आधी हो गई है। बजट में कोई बात लीक से हटकर ऐसी नहीं है जो आकर्षित करे। दाल, मोटे अनाज हों या नकदी फसलें इनके दाम पिछले वर्षों में बढ़ नही रहे हैं, जबकि लागत बढ़ती जा रही है। बिजली की दर बढ़ी है, खाद के दाम बढ़े हैं।कृषि लागत बढ़ी है और उत्पाद के दाम घटे हैं।
हर बजट से किसान की दो अपेक्षाएं रहती हैं। एक, ऐसी योजना वा घोषणा जो सारे भारत को आच्छादित करती। समयबद्ध, लक्ष्यबद्ध योजना बननी चाहिए। मगर इस दिशा में कदम बढ़ाने की बात बजट में दिखाई नहीं देती। समर्थन मूल्य के अनुरूप किसानों को लाभ नहीं हो रहा है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में धान समर्थन मूल्य से 600 से 800 रुपये कम में बिक रहा है। पहले सरकारें गन्ना किसानों को सीधे राहत देने की पहल करती थी, लेकिन अब उद्यमों को राहत पहुंचाती हैं और उद्यम अपनी राहत को किसानों तक जाने नहीं देते हैं।
श्वेत क्रांति की बात करें, तो तीन साल से दूध का दाम घटता जा रहा है। महाराष्ट्र में आंदोलन हुए उत्पादकों ने दूध सड़कों पर फेंक दिया। आज गाय के दूध के लिए किसानों को प्रति लीटर 18 से 26 रुपये का भुगतान हो रहा है, जबकि गाय के भोजन-पानी पर ही 26 रुपये खर्च हो जाते हैं। बाजार में दूध भले ही पचास रुपये या उसके पार बिक रहा है, लेकिन इसक लाभ दुग्ध उत्पादकों को नहीं मिल रहा है।
सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया है।बजट ने किसानों को ज्यादा खुशी नहीं दी है। किसानों को अभी भी सरकार से उम्मीदें हैं। बहरहाल, उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार द्वारा इस बार निर्धारित राशि पूरी तरह से खेती और किसानों पर खर्च होगी।
( लेखक पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री हैं।)

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