किसान रैलीः राजधानी की बंजर होती जमीन पर लोकतंत्र की खेती

छिटपुट हिंसा की घटनाओं और लाल किले पर तिंरगा के नीचे किसानों तथा सिख समुदाय से जुड़े झंडे लहराने की घटना ने किसानों की ट्रैक्टर रैली की ऐतिहासिक भूमिका से लोगों का ध्यान हटा दिया है। सामने आए तथ्यों से साफ हो गया है कि दिल्ली के भीतर रैली करने की आम किसानों की इच्छा का फायदा उठा कर आंदोलन को बदनाम करने वालों ने यह किया। हालांकि उन खलनायकों को ज्यादा सफलता नहीं मिली, क्योंकि लाठी प्रहार और आंसू गैस के गोले सह कर भी किसानों ने अपने को संयम में रखा।

अराजक तत्वों की ओर से पथराव की कुछ घटनाओं को छोड़ कर किसानों की ओर से की गई सारी तोड़फोड़ उनके रास्ते में आने वाली बाधाओं को हटाने यानी बैरिकेड तथा बाधा के रूप में खड़ी की गई बसों को तोड़ने तक ही सीमित रही। इतनी अधिक संख्या में होने के बाद भी आगजनी या मारपीट जैसी कोई घटना नहीं होने से यही जाहिर होता है कि किसान दिल्ली के भीतर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना चाहते थे और उन्होंने दमन सह कर भी यही किया। 

भारत का मीडिया वहां पहुंच गया है, जहां से उसे वही दिखाई देता है जो सरकार उसे दिखाना चाहती है। यही वजह है कि अलग-अलग रास्तों से दिल्ली की मुख्य सड़कों की ओर बढ़ते किसानों का कवरेज कुछ इस तरह से किया जाने लगा जैसे वे विरोध प्रदर्शन करने वाले किसान न होकर किसी भजन-मंडली के सदस्य हों, जिन्हें कीर्तन के अलावा कुछ और नहीं करना था। एक जिम्मेदार चैनल के वरिष्ठ पत्रकार ने इन घटनाओं को वीभत्स तक कह डाला।

निश्चित तौर पर अपने वादे के अनुसार तय जगहों से परेड निकालने में किसानों की असफलता निराशजनक है, क्योंकि पिछले दो महीनों से उन्होंने अनुशासन तथा धैर्य के जरिए जो छवि बनाई थी, उसमें इन घटनाओं से बट्टा लगा है, लेकिन उनकी छवि में लगे इस मामूली धब्बे को मीडिया ने इतना बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया कि इस रैली के राजनीतिक तथा ऐतिहासिक मायने लोगों की निगाह से बाहर हो गए। 

किसानों की परेड को समझने तथा उसे सही पेश करने में मीडिया की विफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण उसका सरकार की गोद में चला जाना है, लेकिन इसके साथ ही एक और कारण है। यह कारण है हमारी राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था का लगातार अलोकतांत्रिक होते जाना तथा लोकतंत्र की हमारी समझ का सिकुड़ते जाना है। किसानों की परेड का महत्व हम तभी समझ सकते हैं, जब हम गणतंत्र-दिवस की सरकारी परेड में लोकतंत्र के बुनियादी विचारों पर हो रहे हमले को समझें।

इसे समझे बगैर कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हर सरकारी कार्यक्रम की तरह ही इस बार के गणतंत्र दिवस की परेड का इस्तेमाल भी अपनी व्यक्तिवादी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के लिए किया है, हम किसानों की रैली की ऐतिहासिक भूमिका को नहीं समझ सकते, हालांकि कल्पना से शून्य भारत की नौकरशाही गणतंत्र-दिवस की परेड को लड़ाकू विमानों और टैंकों के प्रदर्शन तथा सरकारी प्रचार  वाली झांकियों के समारोह में बहुत पहले ही तब्दील कर चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे अपनी राजनीति का एक प्रचार-कार्यक्रम बना दिया है। इस बार के समारोह पर नजर डालें तो इसके शुरू से अंत तक संकीर्ण राजनीति विभिन्न रूपों में चलती हुई नजर आती है।

भारतीय गणतंत्र को एक सैन्यवादी और हिंदू राष्ट्र में बदलने की आरएसएस तथा भाजपा के प्रयास के हिस्से के रूप में तैयार किए गए विभन्न कार्यक्रम समारोह में चालाकी से पिरोए गए थे। नेशनल वार मेमोरियल में शहीद जवानों को प्रधानमंत्री की ओर से श्रद्धांजलि देने के कार्यक्रम से शुरू हुआ समारोह का हर कार्यक्रम इसी दिशा की ओर बढ़ता है। इसमें आजादी के आंदोलन का तोड़-मरोड़ा कथानक आता है जो विशेष तौर पर भाजपा को चुनावी फायदा दिलाने के लिए गढ़ा गया है। यह हम देखते ही आए हैं कि इतिहास के तथ्यों से ऐसी खुलमखुल्ला छेड़छाड़ मोदी सरकार ही कर सकती है।

इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ का ऐसा ही नमूना संस्कृति मंत्रालय अपनी झांकी में पेश करता है। आजादी के 75वां साल की थीम पर आधारित इस झांकी में नेताजी की मूर्ति इस तरह लगाई गई है कि लगता है कि नेताजी ने अकेले आजादी दिलाई है। जाहिर है कि पश्चिम बंगाल के चुनावों के लिए यह आजादी के आंदोलन के इतिहास के साथ ऐसी ज्यादती की गई है।

इसी तरह का दूसरा उदाहरण सीआरपीएफ की झांकी है। इसमें सरदार पटेल की मूर्ति लगी है। इससे लगता है कि पटेल का सबसे बड़ा योगदान सीआरपीएफ की स्थापना है। सच्चाई यह है कि देशी रजवाड़ों में कांग्रेस के बढ़ते आंदोलन के दमन के लिए बने क्राउन रिप्रेजेंटेटिव फोर्स का आजाद भारत में यह नया अवतार था और अंग्रेजों के जमाने में बनी संस्थाओं की बाकी संस्थाओं की तरह आजाद भारत में भी जीवित रहा। इसके नाम का परिवर्तन देश के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल के कार्यकाल में हुआ।

पूरे समारोह में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था कि कहीं भी प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नाम नहीं आाए। यहां तक कि गणतंत्र की पूर्व संध्या पर दिए गए राष्ट्रपति के संदेश में भी आजादी के आंदोलन के विचारों को प्रभावित करने वालों में तिलक, लाला लाजपत राय और गांधी के साथ सुभाषचंद्र बोस का ही नाम लिया गया। यह किसे नहीं मालूम कि आजादी के आंदोलन तथा नए भारत के स्वरूप को गांधी के बाद सबसे ज्यादा नेहरू ने किया। नेहरू गांधी के बाद दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता थे। वैसे भी उनका नाम सबसे ज्यादा साल जेल में बिताने के लिए तो लेना ही पड़ेगा।

इस बात की चर्चा करना ही फिजूल है कि झांकियों में भारतीय राष्ट्र के हिंदूवादी होने की खुली घोषणा थी। इसमें संस्कृति और इतिहास का हिंदुत्ववादी चित्रण बेहिचक किया गया है। अगर हम देश के गैर-हिंदू सुमुदायों की नजर से इन झांकियों को देखें तो हमें भयंकर निराशा होगी। राज्यों की झांकियों में मंदिरों को इतनी प्रमुखता दी गई है, यही लगता है कि देश में मंदिरों के अलावा कोई ऐतिहासिक स्मारक है ही नहीं। सबसे भारी तो मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश की झांकी है, जिसमें अयोध्या का राम जन्ममूमि मंदिर का मॉडल दिखाया गया है, जिसका अभी निर्माण होना है।

छिटपुट हिंसा तथा तय मार्गों से अलग रास्तों पर चल पड़ने के बावजूद भारतीय लोकतंत्र को दिशा देने में किसानों की ट्रैक्टर रैली ने एक ऐसा योगदान दिया है जो इतिहास में दर्ज होने लायक है। मध्ययुग वाली धार्मिक असहिष्णुता की ओर ले जाने वाले विचारों पर आधारित झांकियों तथा सैन्यवादी समारोहों के विपरीत साधारण किसानों की परेड ने हमें इस गणतंत्र दिवस की परेड को अलग ढंग से मनाने का एक नया तरीका दिखाया है- राजपथ पर टैंकों के बदले ट्रैक्टर दौड़ाने का रास्ता। टैंकों तथा सैन्य हथियारों का प्रदर्शन कर लोगों में एक झूठी शान की भावना पैदा करना और इसकी आड़ में देशी कारपोरेट को फायदा देने के खेल को किसानों ने उघाड़ दिया है।

देशभक्ति के नए मायने किसानों ने हमें समझाया है। उन्होंने मोदी के सांप्रदायिक तथा कॉरपोरटी लोकतंत्र वाले ढांचे का सीधा मुकाबला किया है और राजधानी की बंजर होती राजनीतिक जमीन पर वास्तविक लोकतंत्र की खेती शुरू की है, लेकिन किसानों को देश को नेतृत्व देने के लिए अपने को काफी बदलना होगा और हर तबके का समर्थन हासिल करना होगा। 

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

अनिल सिन्हा
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