नास्तिक, गे, लेस्बियन और थर्ड जेंडर भी सीएए-एनआरसी के खिलाफ़ सड़कों पर

दिल्ली के सोमांश सैनी नास्तिक हैं और वो एनआरसी-सीएए के खिलाफ़ प्रोटेस्ट कर रहे हैं। सोमांश का कहना है कि एनआरसी में जो नास्तिक माइनारिटी बाहर छूट जाएंगे वो नागरिक कानून-2019 की धार्मिक खांचेबंदी के चलते वापस भारत की नागरिकता नहीं प्राप्त कर पाएंगे। ऐसे में उन्हें सड़ने के लिए डिटेंशन कैंपों में डाल दिया जाएगा। सोमांश आगे कहते हैं कि किसी भी धार्मिक राष्ट्र में नास्तिकों के लिए कोई जगह नहीं होती। 

पश्चिम बंगाल के चंचल देबनाथ कहते हैं कि हम भगत सिंह के विचारों को मानने वाले लोग हैं। हम भगत सिंह की किताब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ पढ़कर ही नास्तिकता की ओर झुके, लेकिन भगत सिंह को राष्ट्रनायक बताने वाले ये लोग भगत सिंह के विचारों को मानने वाले लोगों को अपना दुश्मन मानते हैं, जबकि हम चार्वाक के लोकायत विचार-दर्शन परंपरा के वाहक हैं। हमारी जड़ें भी इस देश की माटी से उतनी ही पुरानी और गहरी हैं जितनी कि उनकी।

उन्होंने कहा कि हम यहां सीएए-एनआरसी का विरोध करने आए हैं। सीएए-एनआरसी दरअसल अपने दुश्मनों को ठिकाने लगाने का उनका सबसे मुफीद हथियार है। उनके (आरएसएस) के दुश्मन सिर्फ़ मुसलमान भर नहीं हैं। उनके दुश्मनों की फेहरिस्त में नास्तिक और दलित भी हैं। लेखक, बुद्धिजीवी, तर्कशास्त्री, कम्युनिस्ट और पढ़ी लिखी महिलाएं भी हैं।

एलजीबीटीक्यू समुदाय से आने वाले शौनक कहते हैं, “हम बहुत सख़्ती से एनआरसी-सीएए का विरोध करते हैं। असम एनआरसी में 2000 से ज़्यादा एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों का नाम नहीं आया। हमारा समुदाय घर-परिवार समाज से त्यागा गया होता है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले भारत का कानून भी हमें अपराधी मानता था। हमारे समुदाय के लोगों के लिए अपने पूर्वजों की नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज जुटाना लगभग असंभव है, क्योंकि उन कागजों को जुटाने के लिए हमें अपने घरों में वापस लौटना होगा, जोकि संभव ही नहीं है।”

उन्होंने कहा कि कई मामलों में ट्रांसजेडर्स को हिंसा के कारण अपना घर छोड़ना पड़ता है। हमारे पास आधार कार्ड के अलावा कोई और साक्ष्य नहीं है। आधार कार्ड को नागरिकता का सुबूत नहीं माना जाएगा, तो हम अपनी नागरिकता कैसे साबित कर पाएंगे? इस सरकार की मंशा एलजीबीटीक्यू के प्रति सही नहीं है। तभी तो वो जो ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट- 2019 ला रहे हैं वो भी अन्यायपूर्ण है। 

शौनक बताते हैं कि अब सरकार सीएए- एनआरसी के जरिए हम जेंडर माइनारिटी (एलजीबीटीक्यू) पर हमला कर रही है। हमारे पास डॉक्युमेंट्स नहीं हैं और अगर देश भर में एनआरसी होता है तो हमारे समुदाय के अधिकांश लोगों की नागरिकता और नागरिक अधिकार छिन जाएंगे। इसलिए हम सीसीए-एनआरसी के खिलाफ़ सड़कों पर उतरे हैं। 

ट्रांसजेंडर समुदाय से आने वाली बॉबी ने बताया कि दस्तावेजों में वह पुरुष हैं। उनके स्कूली प्रमाण पत्र और पहचान पत्र में अलग-अलग पहचान है, क्योंकि शुरुआती दिनों में न तो घर वालों को इस बारे में जानकारी थी और अगर हुई भी तो इसे छुपाया गया। अगर देश में एनआरसी को लागू किया जाता है तो वह खुद को कैसे साबित कर सकेंगी। 

दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रहे थर्ड जेंडर समुदाय के लोगों का कहना है कि अगर देश में नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लागू किया जाता है, तो उनके लिए नागरिकता साबित करना मुमकिन ही नहीं होगा, क्योंकि न तो हमारे पास निजी संपत्ति होती है, न ज़मीन-जायदाद। हममें से कइयों को ये भी पता नहीं होता कि हमारे माता-पिता कौन हैं।

उन्होंने कहा कि अगर असम एनआरसी की तरह अपने पूर्वजों की नागरिकता साबित करने की नौबत आई तो हम कहां से ढूंढकर लाएंगे अपने मां-बाप के कागजों को, जबकि हमें यही नहीं पता कि हमारे मां-बाप कौन हैं। हमें तो हमारे परिवार ने भी ठुकरा दिया, अब कैसे साबित करें कि हम भारतीय नागरिक हैं।

ग़ाजियाबाद की शबनम कहती हैं कि हम किन्नर समुदाय के लोग नाच, गाकर, बधावा मांगकर, चौक-चौबारों, बसों-रेलगाडियों में भीख मांगकर गुज़ारा करते हैं। न तो हमारे पास कोई कागज-पत्तर है न ही मां-बाप, घर-बार का अता-पता। इस देश और समाज ने हमें घृणा और अपमान के सिवाय और कुछ नहीं दिया। आजादी के इतने दिनों बाद तक हमारे लिए कहीं कोई आरक्षण नहीं है। कहीं सिर छुपाने भर की जगह ढूंढकर हम सदियों से रहते आए हैं, लेकिन ये सरकार अब हमसे इस देश में रहने इसका नागरिक कहलाने का हक़ भी छीनने जा रही है, इसीलिए हम सब सीसीए-एनआरसी का विरोध कर रहे हैं। 

असम की पहली ट्रांसजेंडर जज और ऑल असम ट्रांसजेंडर एसोसिएशन की संस्थापक स्वाति बिधान बरुआ कहती हैं, “असम अनआरसी प्रक्रिया ट्रांसजेडर समुदाय के लिए समावेशी नहीं था। अधिकांश ट्रांसजेंडर इसलिए सूची से बाहर छूट गए, क्योंकि उनके पास 1971 के पहले के दस्तावेज नहीं थे। वहीं आवेदन फार्म में लिंग की श्रेणी में ‘अन्य’ का विकल्प ही नहीं दिया गया था। इस तरह से उन्हें पुरुष या स्त्री के रूप में अपना लिंग स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया। इसके खिलाफ़ हमने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली है।”

सुशील मानव

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