मिचौंग चक्रवात: चेन्नई में आई भीषण बाढ़ भविष्य के लिए सीख

चेन्नई एक समुद्रतटीय शहर है जिसका अधिकांश शहरी इलाका समुद्र तल से 7 मीटर ऊंचा है। सिद्धांत के अनुसार अगर समुचित शहरी योजना एवं जल निकासी प्रबंध हों तो बारिश का सारा पानी 3-4 घंटे के भीतर समुद्र में समाहित हो जाना चाहिए था। लेकिन हालत यह रही कि जोरदार बारिश के खत्म होने के 5 दिन बाद भी शहर में कई इलाकों में पानी की निकासी नहीं हो सकी थी। नतीजा यह हुआ कि वेनिस की तरह चेन्नई पूरे एक सप्ताह तक एक तैरता हुआ शहर बन गया था।

4 और 5 दिसंबर को मिचौंग (जिसे उच्चारण में मिग्जुम कहा जा रहा है) चक्रवात से होने वाले हादसे की ठीक-ठीक मात्रा कितनी रही है? 2011 में इस शहर की शहरी सीमा और मेट्रोपोलिटन चेन्नई की आबादी 67 लाख थी। तब 2011 में चेन्नई में करीब 12 लाख घर हुआ करते थे। लेकिन भारी तादाद में प्रवासन के कारण आज चेन्नई मेट्रोपोलिटन क्षेत्र में यह संख्या दोगुनी से भी अधिक हो गई है।

कुछ अनुमानों में तो यहां तक बताया गया है कि बरसात का पानी करीब 5 से 10 लाख घरों में घुस गया था। उत्तरी मद्रास में व्यासरपड़ी जैसे श्रमिक वर्ग एवं निम्न-मध्यम वर्ग की झुग्गियों और मुहल्लों सहित दक्षिणी मद्रास में वेलाचेर्री और पल्लिक्कारानाई जैसे निचले इलाकों और दलदली क्षेत्र सबसे बुरी तरह से प्रभावित थे। भारी बारिश के 48 घंटे बाद भी पानी निकासी क्यों नहीं हो सकी और महानगर क्यों एक बड़ी झील के रूप में तब्दील हो गया था?

इसे जानने के लिए हमें यहां के बदलते परिदृश्य को समझना आवश्यक होगा। भले ही चेन्नई शहर घोषित नगर निगम की सीमा 426 वर्ग किमी के दायरे में हो, और वृहत्तर चेन्नई महानगरीय क्षेत्र 1189 वर्ग किमी में फैला हो, लेकिन यह शहर 3000 वर्ग किमी तक विस्तारित हो चुका है, जिसमें पड़ोसी तिरुवल्लुर और कांचीपुरम जिलों का क्षेत्र भी शामिल है।

चेन्नई का समुद्र तट करीब 30 किमी लंबा है, लेकिन शहरी चेन्नई का आंतरिक इलाका उत्तर में एन्नोर से लेकर दक्षिण में ताम्बरम तक 60 किमी तक फैला हुआ है, जबकि पश्चिम में यह श्रीपेरंबदूर तक 50 किमी फैला हुआ है। हाल ही में यह शहरी फैलाव इसके भी करीब 10 किमी रेडियस तक आगे फ़ैल चुका है। 

ऐसे तेजी से फैलते शहर का अधिकांश बरसाती पानी अडयार और कौम नदियों के जरिये समुद्र में समा जाया करता था, जोकि शहर के मध्य में एक-दूसरे से लगभग 6 किमी की दूरी पर बहती हैं। हाल के वर्षों में इन दोनों नदियों की गाद को नहीं निकाला गया है और इसी प्रकार की कहानी बकिंघम नहर की भी है, जो समुद्र के साथ-साथ पूरे शहर से होकर गुजरती है। इसी प्रकार कोस्थालैयारू है जो शहर के उत्तरी हिस्से से बहती है।

इन दोनों नदियों के किनारों पर 20 किमी लंबी सिर्फ 4 अन्य बड़े नाले हैं। इसके अलावा 500 के करीब बेहद छोटे पारंपरिक नाले भी मौजूद हैं। इनमें से लगभग सभी या तो यहां के वाशिंदों द्वारा अतिक्रमित किये जा चुके हैं, या भू-माफियाओं द्वारा हड़पे जा चुके हैं। इस प्रकार इन जल निकासी चैनलों को पूरी तरह से चोक कर दिया गया है।

ये नाले बरसाती पानी की निकासी को नदियों या सीधे समुद्र या उत्तरी चेन्नई में एन्नोर के बैक-वाटर क्रीक तक ले जाने में कारगर होते थे। लेकिन आज के दिन ये नाले खाड़ी या समुद्र तक पानी की एक बूंद तक पहुंचा पाने में अक्षम हैं।

इसी प्रकार नदियों के मुहानों पर गाद जमा है और इसके अलावा चक्रवाती ज्वार के दौरान समुद का पानी इन नदियों में प्रवेश करने लगा है। इस प्रकार बरसाती पानी को समुद्र में डालने के बजाय इनकी भूमिका उलट चुकी है। यही वजह है कि अब एक दिन में 200 मिमी बारिश में ही हर इलाके में जलभराव होने लगा है।

लेकिन उन दो निर्णायक दिनों में तो कुल 500 मिमी पानी बरसा था, जो कि पिछले 50 वर्षों में सर्वाधिक बरसात का रिकॉर्ड है। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि आधा शहर पानी में जलमग्न था।  

क्या प्रशासन की तरफ से पर्याप्त राहत कार्य चल रहा था?

तत्काल राहत कार्य के कामों की प्रभावोत्पादिकता का सटीक मूल्यांकन करने और भविष्य के लिए सबक सीखने के लिए हमें यह समझना जरूरी है कि यह संकट कैसे खड़ा हुआ।

पहले 24 घंटों के दौरान ही कई घरों में पानी घुस चुका था, जबकि अगले 24 घंटों में तो यह जल-स्तर घरों के भीतर करीब 3 से 5 फीट तक पहुंच चुका था। बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले लोग तो छतों पर पहुंच गये, लेकिन झुग्गियों में रहने वाले लोगों और जिनके एक मंजिला घर थे, उन लोगों को तो गर्दन तक पानी में अपने सबसे मूल्यवान वस्तुओं के साथ ही किसी तरह अपनी जान बचाने के लिए अपने घरों को छोड़कर निकलने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

अक्सर इन लोगों के सामने यह संकट खड़ा होने लगा है, जिसमें अचानक से उनके चारों तरफ पानी लबालब भर जाता है, और उनके पास न कोई सुरक्षित ठिकाना और अपनी जान-माल को बचाने का उपाय सूझता है। ऐसे में उनकी गृहस्थी का सामान हर बार बर्बाद हो जाता है।

चेन्नई मेट्रो एवं उपनगरीय 1.20 करोड़ आबादी में से कम से कम दसवें हिस्से को अस्थायी राहत शिविरों अथवा चक्रवाती शिविरों में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन चेन्नई नगर निगम ने सिर्फ 236 राहत शिविर ही स्थापित किये थे, नतीजतन अधिकांश लोग समाजसेवियों एवं वालंटियर्स द्वारा खोले गये निजी राहत शिविरों में आश्रय ढूंढ पाए।

कई डूब-ग्रस्त क्षेत्रों में तो अनेकों लोगों की जान-माल की रक्षा करनी पड़ी। बूढों, बच्चों एवं महिलाओं को इस सबका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ा था, और उन्हें नावों के माध्यम से किसी तरह बाहर निकाला जा सका।

लेकिन एनडीएमए के एनडीआरऍफ़ बचाव दलों एवं चेन्नई नगर निगम के बचाव दल से काफी कम संख्या में लोग थे, जैसा कि एनडीआरएफ वेबसाइट के मुताबिक यह संख्या मात्र 29 बताई गई है। इसी प्रकार बचाव कार्यों में काम आने वाली नावों एवं फाइबरग्लास बोट्स की संख्या को देखें तो वह तो उनसे भी कम थीं।

एनडीआरएफ की ओर से तमिलनाडु एवं आन्ध्र प्रदेश में सिर्फ 181 राहत शिविरों की स्थापना की गई थी और बाकी का प्रबंधन चेन्नई नगर-निगम के द्वारा किया गया।

जो लोग अपनी बहुमंजिला मकानों की छतों पर शरण लिए हुए थे, उनके लिए पीने के पानी का प्रबंध तक नहीं किया जा सका। चूंकि सीवेज और बरसात का पानी एक साथ मिलकर उनके ग्राउंड फ्लोर में घुसा हुआ था, इसके चलते पानी की आपूर्ति पूरी तरह से ध्वस्त हो चुई थी।

बोतलबंद पानी की आपूर्ति करने वालों का पूरा व्यवसाय ही ठप पड़ा हुआ था, क्योंकि उनके पास भी पीने योग्य पानी की व्यवस्था नहीं थी और उनके वाहन भी जलमग्न क्षेत्रों में जाने की स्थिति में नहीं थे। हालत यह थी कि कुछ इलाकों में छोटा बोतलबंद पानी भी 100 रुपये में बिक रहा था।

आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति पूरी तरह से ठप थी। दूध उपलब्ध नहीं था। कई इलाकों में तो विद्युत आपूर्ति भी 4 से 5 दिन बाद ही आ सकी। घर के भीतर खाना पकाने का तो कोई सवाल ही नहीं था। घर से बाहर फ़ूड आउटलेट्स भी बंद पड़े थे। अनेकों जलमग्न लोग पहले 3-4 दिन तो भूखे रहे। आसमान से गिराए जा रहे चंद ब्रेड्स के सहारे वे जिंदा रहे।

लेकिन आसमान से आवश्यक खाद्य वस्तुओं को गिराये जाने को सभी प्रभावित क्षेत्रों में अंजाम नहीं दिया गया, बल्कि कुछ चुनिंदा स्थानों पर ही यह किया गया। भारतीय वायुसेना की ओर से मात्र 2300 किलोग्राम आवश्यक राहत सामग्री ही वितरित की गई। नावों या डिलीवरी पहुंचाने वाले व्यक्तियों के माध्यम से भोजन, पीने के पानी और दवाओं को कई डूबग्रस्त क्षेत्रों में नहीं पहुंचाया गया।

ग्राउंड-फ्लोर में रहने वाले लोगों के पास अपने घर में मौजूद माल-असबाब को कुछ घंटों के भीतर ऊंचे सुरक्षित ठिकानों या छत तक ले जाने की संभावना नहीं थी, और उन्हें पहले अपनी जान बचाने के बारे में चिंता करनी थी, ऐसे कई घरों का सामान पूरी तरह से जलमग्न हो गया है।

इतने बड़े पैमाने पर हुए हादसे के लिए राहत बचाव कार्य भी उसी स्तर का होना चाहिए था, जिसे अंजाम नहीं दिया जा सका। इस बात में कोई शक नहीं कि प्रशासन तत्काल एक्शन मोड में आ गया था, और नगर-निगम एवं अन्य राहत-कर्मियों के द्वारा दिन-रात लगकर राहत कार्य किया गया, लेकिन इसके बावजूद राहत कार्य बड़े पैमाने पर अपर्याप्त रहा।

राज्य मशीनरी से कहीं अधिक सामुदायिक स्तर पर ऐसे अनेक लोग थे, जो बचाव कार्यों में सक्रिय रहे। युवाओं ने छोटे बच्चों को अपने कंधों पर ढोकर उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसी प्रकार वृद्ध जनों एवं महिलाओं को चारपाइयों में उठाकर स्थानांतरित किया गया।

समुद्र तट पर मछुआरों के गावों से मछुवारों ने भी तत्काल एक्शन में आते हुए अपनी-अपनी नावों को शहर के आंतरिक क्षेत्रों में पानी के बीच घिरे लोगों को बचाने के काम में तैनात कर दिया था, हालांकि समुद्र तट के पास आबाद उनके अपने गांव इस चक्रवात में पूरी तरह से तबाह हो चुके थे। 

इतने बड़े पैमाने की तबाही के लिए शहर को तैयार ही नहीं किया गया था

यहां पर ध्यान देना होगा कि 2015 में भी चेन्नई में इसी प्रकार की बाढ़ का कहर झेलना पड़ा था, जब बगैर पूर्व-चेतावनी के ही कुछ जलाशयों से पानी छोड़ा गया था। इतने खराब अनुभव के बावजूद, इस प्रकार की बाढ़ से शहर को कैसे सुरक्षित रखा जाये या ऐसी विपदा के फिर से आ जाने पर कैसे निपटा जाये, को लेकर कोई तैयारी नहीं की गई थी।

डीएमके सरकार इस बारे में दावा कर रही थी कि 2015 हादसे के बाद उसने एक बार जल निकासी प्रणाली को पूरी तरह से गाद मुक्त कर दिया है। लेकिन एक बारिश में ही फिर से बालू भर सकता है, का अंदाजा सरकार नहीं लगा सकी।

असल में, 500 या उससे भी अधिक लघु-जल निकासी चैनलों के जीर्णोद्धार के काम को हाथ में लेते ही हजारों की संख्या में अवैध मकानों के ध्वस्तीकरण अभियान को अंजाम देना होगा, जिन्हें इन ड्रेनेज चैनलों की भूमि का अतिक्रमण कर निर्मित किया गया है। इसी अतिक्रमण के चलते जलनिकासी के इन चैनलों की चौड़ाई बेहद संकीर्ण या पूरी तरह से अवरुद्ध हो चुकी हैं।

हालत यह है कि 25 मीटर चौड़े जलमार्ग एवं नाले की चौड़ाई आज घटकर मात्र 5-10 मीटर रह गई है। इसके लिए अतिक्रमण के अलावा मद्रास रैपिड ट्रांजिट सिस्टम (एमआरटीएस) के लिए अनियोजित ढांचे का निर्माण-कार्य भी जिम्मेदार है।  

चेन्नई नगर निगम के अधिकारियों या राज्य स्तर पर प्रशासन द्वारा अतिक्रमण करने वालों पर कड़ी कार्रवाई करने और उनके अवैध निर्माण को ध्वस्त करने के लिए कड़े कदम उठाने को लेकर स्पष्ट रुख नहीं बना है। इसीलिए जो कुछ भी पहल उनके द्वारा हासिल की गई है, उसे सिर्फ ऊपरी दिखावे वाली कार्रवाई ही कहा जा सकता है। इस तरह के संकट के समय ही उनकी गलतियां उजागर होने लगती हैं, और उसकी तैयारियों के पीछे के खोखलेपन का पर्दाफाश होता है।

सरकारी अधिकारियों ने अभी तक इस बात का खुलासा नहीं किया है कि उनके द्वारा अभी तक कुल कितनी राहत सामग्री वितरित की जा चुकी है और उसे किन क्षेत्रों में वितरित किए गया है। संकट के छठे दिन राज्य स्वास्थ्य मंत्री ने मीडिया को बताया था कि उस दिन प्रभावित लोगों के बीच 10,000 बिस्किट पैकेट और इतनी ही संख्या में ब्रेड और दूध के पैकेट वितरित किये गये थे।

यह तब था जब प्रभावित लोगों की संख्या लाखों में थी। अपने बयान में उन्होंने बताया था कि राहत वितरण का काम मुख्यतया दोनों नदियों के किनारों पर रहे रहे 40-50,000 प्रभावित लोगों के बीच वितरित किया गया था। इसका आशय यह हुआ कि राहत कार्य तो प्रभावित लोगों के दसवें हिस्से तक भी नहीं पहुंच पा रहा था?

स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से 679 ‘हेल्थ शिविर’ लगाये गये थे, जिसमें सिर्फ स्क्रीनिंग का काम किया जा रहा था। 160 मोबाइल ‘हेल्थ वैनों’ के द्वारा कुछ दवाइयां और कुछ ‘हेल्थ-चेकअप’ का काम संपन्न किया जा रहा था। लेकिन डायरिया सहित अन्य बुखार जैसी कई अन्य गंभीर बीमारियों से जूझ रहे लोगों को भर्ती करने और उनका इलाज करने के लिए अस्थायी अस्पताल का ढांचा खड़ा करने का कोई प्रबंध नहीं किया गया। 

अब एमके स्टालिन सरकार की ओर से प्रत्येक प्रभावित परिवारों को 6,00 रुपये तक की राहत देने की बात की जा रही है। अगर इस पैसे का कुछ हिस्सा हादसे के प्रथम सप्ताह में ही वितरित कर दिया गया होता तो इससे दिहाड़ी मजदूरों और असंगठित श्रमिकों को बड़ी राहत मिल गई होती।

ऐसे लाखों असंगठित श्रमिक एवं एमएसएमई में काम करने वाले मजदूर हैं जो दैनिक या साप्ताहिक मजदूरी पर अपनी गुजर-बसर करते हैं, और वे पिछले कई दिनों से खाली हाथ थे और प्रशासन आज भी बहस में उलझा हुआ है कि उन्हें एकमुश्त 6,000 रुपये नकद थमाए या प्रभावित लोगों के बैंक खातों में इस रकम को ट्रांसफर किया जाये और यह काम कब करना ठीक रहेगा।

तमिलनाडु सरकार ने आपदा राहत के लिए केंद्र से 5,060 करोड़  रुपये की मांग की थी, लेकिन केंद्र की ओर से अभी तक मात्र 450 करोड़ रुपये ही जारी किये गये हैं। 

जाहिर है कि सरकार की ओर आपातकालीन राहत या लॉजिस्टिक्स को लेकर कोई योजना नहीं बनाई गई थी, और कुलमिलाकर देखें तो लोगों के कष्टों के प्रति कोई खास सन्वेदनशीलता नहीं दिखाई देती है। और जैसा कि आम तौर पर देखने को मिलता है, इस सबके लिए कोई जवाबदेही भी नहीं बनने जा रही है।

भविष्य के लिए सबक

उत्तर-पूर्वी मानसून अब एक वार्षिक परिघटना हो चुकी है। जलवायु परिवर्तन और असामान्य बारिश जैसी अचानक से मौसमी घटनायें अब सामान्य परिघटना हो चुकी हैं। विशेषज्ञों के पूर्वानुमानों के अनुसार, अकेले चेन्नई ही नहीं बल्कि भारत में 8 प्रमुख शहरों को आने वाले वर्षों में बरसात के दिनों में 3 फीट पानी में जलमग्न होने की अवस्था से गुजरने के लिए तैयार रहना होगा। इसका अर्थ हुआ कि इन शहरों को वस्तुतः पुनर्निर्माण की आवश्यकता है। मौजूदा अर्बन प्लानिंग के ढांचे को कोयले के उपर से गुजरना होगा।

लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में राहत के लिए कोई क़ानूनी अधिकार हासिल नहीं है। न ही आपदा राहत या आपदा तैयारी के लिए कोई मानकीकृत मॉडल ही तैयार किया गया है। चेन्नई संकट से एक महत्वपूर्ण सबक यह सीखा जा सकता है कि सरकार नागरिकों को राहत अधिकार से जुड़े कुछ कानूनों को अमली जामा पहनाकर उन्हें अधिकार-संपन्न बनाये और राहत वितरण, विकेंद्रीकृत आपदा तैयारी एवं राहत से जुड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर को तैयार करने के लिए मानदंडों का निर्धारण करने की ओर बढ़े।  

(बी.सिवरामन स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। sivaramanlb@yahoo.com पर उनसे संपर्क किया जा सकता है।)

बी. सिवरामन
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