मायावती का जन्मदिन, खड़गे का नेतृत्व, राम मंदिर की बिसात और राहुल की न्याय यात्रा के मायने

नई दिल्ली। इन दिनों उत्तर-भारत सर्द लहर की चपेट में है, लेकिन गुलमर्ग में बर्फ़बारी का अभी तक नामोनिशान नहीं है। देश में 80 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें मोदी सरकार हर माह 5 किलो अनाज देकर जिंदा रखे हुए है, जबकि वास्तविक संख्या 100 करोड़ तक होनी चाहिए थी। ऐसा इसलिए क्योंकि 2011 के बाद जनगणना नहीं की गई, इसलिए करोड़ों लोग पात्रता की लाइन में होने के बावजूद अपात्र बने हुए हैं। दूसरी तरफ शेयर बाजार में लाखों करोड़ रूपये के वारे-न्यारे की खबर ही देश की 10% आबादी के लिए सबसे बड़ा आसरा बनी हुई है।

एक कंपनी है पैरामाउंट कम्युनिकेशन। 27 मई 2022 को इस कंपनी के शेयर 11 रूपये के बाजार भाव पर बिकने के लिए तैयार थे। आज का इसका भाव है 92.85 रूपये। महज डेढ़ साल में 800% मुनाफा देने वाली इस कंपनी में मात्र 350 कर्मचारी कार्यरत हैं, और यह पॉवर केवल बनाती है। ऐसा क्या हो गया इस कंपनी में, जो सारे फाइनेंशियल अख़बार इसकी चर्चा कर रहे हैं?

असल में चल कुछ नहीं रहा है। सिर्फ फाग चल रहा है। जमीन पर कुछ भी बड़ा उलटफेर नहीं हो रहा है, लेकिन हम भारत के लोग, जिनके पास थोडा-बहुत भी पैसा-कौड़ी है वे सभी आजकल गुजरात की तरह सेंसेक्स के पीछे दीवाने हुए जा रहे हैं।

आज भी शेयर बाजार 760 अंक की उछाल के साथ 73,327 अंकों की रिकॉर्ड बुलंदी पर बंद हुआ है। शेयर धारकों को एक दिन में 2.5 लाख करोड़ रूपये की कमाई हुई है। भारत का शेयर मार्केट कैप 376 लाख करोड़ रूपये का हो चला है, जबकि भारत की जीडीपी 300 लाख करोड़ रूपये के आसपास है।

लेकिन आप कहेंगे कि लेख का शीर्षक तो कुछ और है, लेकिन लिखा कुछ और जा रहा है। इसलिए आइये अब मूल राजनीतिक मसले पर आते हैं। ऊपर जो उदाहरण देकर बताने का प्रयास है, वह यह कि जो दिखता है, वह होता नहीं। जैसी उम्मीद की जानी चाहिए, चीजें उसके ठीक उलट हो रही हैं। सामान्य शब्दों में कहें तो हर चीज स्टेज-मैनेज्ड है। हेडलाइंस मैनेजमेंट है। आंखों का धोखा जो मदारी जितने बढ़िया तरीके से दिखा सके, वही सिकन्दर है, और बाकी पप्पू हैं।

लेकिन आखिर में जो होगा, वह तो रियल होगा। वो चाहे प्रकृति की मार हो, अर्थव्यवस्था की मार हो, वैचारिक दिवालियेपन की मार हो, इन सबका ठीकरा जनसाधारण को ही सबसे अधिक भोगना पड़ेगा। आप चाहे इस पूरी प्रक्रिया में जाने-अनजाने सीधे भागीदार हैं, या नहीं, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता।

लेकिन यदि सायास disruption से आप अनभिज्ञ बने रहते हैं, तो सबसे अधिक नुकसान आपका होने जा रहा है, इतना तय है। नुकसान उनका भी होगा, जो सब देख रहे हैं। लेकिन चूंकि वे सजग होकर एक्सीडेंट को होते देखने वाले हैं, इसलिए उन्हें कम टूट-फूट का शिकार होना पड़ेगा।

आइये अब एक-एक कर थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं। आज मायावती जी का जन्मदिन था। इस अवसर पर उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस कर अपने चुनावी पत्ते खोल दिए। उन्होंने साफ़-साफ़ कह दिया है कि वे इस बार एकला चलो की राह पर चलने वाली हैं।

मतलब, पिछले कुछ वर्षों में उनकी राजनीतिक सक्रियता में जो लगातार गिरावट का क्रम बना हुआ था, उसे ब्रेक करने की उनकी हिम्मत जवाब दे गई है। 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर बीएसपी को लोकसभा में 10 सीटों का फायदा हुआ था। इस बार अकेले लड़ने पर 2014 वाले हश्र के लिए तैयार मायावती जानबूझकर हाराकिरी क्यों कर रही हैं, यह बात अब आम लोगों को भी बखूबी मालूम है।

मायावती का अकेले चुनाव लड़ना भाजपा के लिए मिलिंद देवड़ा से भी 100 गुना बड़ी खबर कही जा सकती है। पिछली बार 303 सीट जीतने वाली भाजपा को उत्तर प्रदेश में कई सीटों का नुकसान झेलना पड़ा था। इस बार यदि यूपी में INDIA गठबंधन के साथ बसपा भी जुड़ जाती तो सीधे गणित के हिसाब से भी एनडीए इस बार 64 की जगह 60 या इससे भी कम सीटें जीत पाती। लेकिन चूंकि अब मायावती ने गठबंधन से साफ़ इंकार कर दिया है, तो ऐसे में भाजपा के लिए अपनी बढ़त को बढ़ाने का सुनहरा अवसर है।

2024 की INDIA गठबंधन की चुनावी बिसात एनडीए को 272 की लक्ष्मण रेखा से पीछे रखने की होनी चाहिए। इसके लिए उसके पास पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तेलंगाना राज्य हैं, जहां बड़ा उलटफेर कर 40-50 सीटें अपने पाले में की जा सकती हैं।

इसके अलावा दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश और झारखंड से 15-20 सीटें लाकर इस अंतर को बढ़ाना संभव है। इन सभी राज्यों में भाजपा पहले ही शिखर पर है, और उसके पास इससे ऊपर जाने का कोई रास्ता नहीं है। पूर्वोत्तर की 25 सीटों में भी 2-4 सीट झटकने से कुल 70 सीटों का हेरफेर आसानी से भाजपा को 250-255 सीटों तक बांध सकता है।

क्या विपक्षी गठबंधन मल्लिकार्जुन खड़गे को पीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश कर सकता है?

लेकिन यूपी में मैदान साफ़ छोड़ देने का मतलब है, भाजपा के लिए 10 सीटों का इजाफा। क्या INDIA गठबंधन को अभी से अपने प्रधानमंत्री उम्मीदवार की घोषणा नहीं कर देनी चाहिए? क्या इसके लिए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को संयुक्त उम्मीदवार नहीं बना देना चाहिए और उन्हें उत्तर प्रदेश से मैदान में उतार देना चाहिए?

निश्चित रूप से राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा से विपक्षी क्षेत्रीय दलों को ही सबसे ज्यादा फायदा होने जा रहा है, लेकिन अगर INDIA गठबंधन देश के पहले दलित प्रधानमंत्री के तौर पर अभी से मल्लिकार्जुन खड़गे को घोषित कर देता है, तो यूपी सहित बिहार, बंगाल और मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी इसका बड़ा असर देखने को मिल सकता है।

वैसे भी बसपा का जनाधार लगभग आधा खिसक चुका है, जिसमें से अधिकांश भाजपा के हिस्से और बाकी सपा के हाथ चला गया है। इस बार तो ईडी, सीबीआई का भय अब आतंक में तब्दील हो चुका है, और जो दल पहले से डरे हुए थे, उनके जनाधार में गहरी निराशा की स्थिति है।

ऐसे में मल्लिकार्जुन खड़गे की उम्मीदवारी तुरुप का वह पत्ता साबित हो सकती है, जो कांग्रेस के इंडेक्स को शेयर बाजार की ही तरह बुलंदियों पर ले जा सकती है। संयुक्त विपक्षी उम्मीदवार की सूरत में वैसे भी इस बार हार-जीत का अंतर अधिकांश लोकसभा की सीटों में 1 लाख या उससे भी कम पर सिमटने की संभावना है।

खड़गे की उम्मीदवारी मात्र से उत्तर प्रदेश में समीकरण पूरी तरह से बदल सकता है। यह स्थिति ‘मिले मुलायम-काशीराम’ वाली हो सकती है, शायद उससे भी बेहतर। बहुत संभव है कि तब की स्थिति में भाजपा को 250 के बजाय 220 तक सिमटा देने की स्थिति बन सकती है।

लेकिन इसके लिए निर्णायक फैसला तत्काल लेना होगा, ताकि अंतिम मतदाता तक संदेश को पहुंचाया जा सके। कांग्रेस से इसकी उम्मीद कम है, हां गठबंधन चाहे तो इस बारे में दबाव डालकर आम सहमति बना सकता है। गठबंधन के अध्यक्ष पद के लिए भी तृणमूल की मुखिया ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की बेबाकी काम आई। वरना कांग्रेस के लिए अभी कुछ और हफ्ते नीतीश कुमार को कहें, न कहें में बीत जाते।

आज एक-एक दिन बेशकीमती है। प्रधानमंत्री मोदी जी 11 दिन के उपवास पर चले गये हैं। उनका यह उपवास उन्हें हिंदुत्व के बीच शंकराचार्यों की कतार में खड़ा कर सकता है। वे कोई कन्फ्यूजन नहीं चाहते। राम मंदिर के उद्घाटन के लिए 22 जनवरी की तारीख बेहद सोच-समझकर रखी गई थी। लेकिन कुपित शंकराचार्य अधूरे निर्माण को शुभ कार्य न बताकर अपनी धार्मिक श्रेष्ठता का हवाला देते हुए सारा खेल खराब कर रहे हैं।

इसी मौके का फायदा उठाकर कांग्रेस ने निमंत्रण ठुकरा दिया, और भाजपा के लिए कांग्रेस को हिंदू-विरोधी बताने का सुनहरा मौका हाथ से जाता रहा। यह एक बड़ा नुकसान है। ऐसे में 22 जनवरी तक पूरे मामले को कैसे अपने वश में किया जाये, और धार्मिक हिंदुओं की भी गोलबंदी को अपने हाथ में लेना एक और मास्टर-स्ट्रोक है।

साधू-संतों के लिए पहली बार कड़वी गोली का सेवन कितना भारी पड़ने जा रहा है, यह तो वे जानें, लेकिन पिछले एक हफ्ते के दौरान देश ने देखा कि आईटी सेल अब उन हिंदू धर्म के प्रतीकों को भी निशाने पर लेने से बाज नहीं आ रहा है, जिसके सहारे अभी तक उसने समाज के कई अन्य तबकों को शिकार बनाया था।

राहुल की न्याय यात्रा आइसिंग ऑन केक साबित होगी

राहुल गांधी की न्याय यात्रा का मणिपुर से शुरू किया जाना अपने आप में एक बड़ा प्रतीक है। पूरे पूर्वोत्तर में मात्र 25 लोकसभा सीटें हैं, और मणिपुर में तो सिर्फ 2 ही सीटें हैं। इसके बावजूद ऐन चुनाव के वक्त जब सभी प्रमुख दल एक-एक सीट के लिए माथापच्ची, धन, बूथ मैनेजमेंट और पब्लिसिटी में जुटे हैं। 2 महीने से अधिक समय तक भारत जोड़ो अभियान चलाने की धुन राहुल गांधी को एक अलग मुकाम पर खड़ा कर देती है।

इस यात्रा से भले ही चुनावी गणित पर कोई खास असर नहीं पड़ने जा रहा है, लेकिन देश में मौजूद बुद्धिजीवी, जागरूक महिलाओं, हाशिये पर खड़े लोगों और विशेषकर अल्पसंख्यक समुदाय के बीच उम्मीद की एक किरण अवश्य बनकर उभरती है।

इसलिए जमीन पर यदि INDIA गठबंधन एकजुट होकर लड़ता है, रणनीतिक रूप से पीएम पद के लिए खड़गे को अपना उम्मीदवार बनाता है, तो राहुल गांधी की यात्रा इसमें एक ऐसी मजबूत बॉन्डिंग का काम करने की संभावना लिए हुए है, जिसे हजारों करोड़ रुपयों के इलेक्टोरल बांड्स से भी तोड़ना संभव नहीं रहने वाला है। बड़ा सवाल है, क्या सही समय पर सही फैसले लेने के लिए INDIA गठबंधन तैयार है?

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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