मोदी सरीखी परिघटना का समय पूरा हो चुका है: अरुंधति रॉय

मौजूदा भारतीय परिस्थिति पर मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय ने ‘द वायर’ के करण थापर और ‘सत्य हिंदी’ के मुकेश कुमार के साथ अपने साक्षात्कार में कई ऐसे ज्वलंत मुद्दों पर विचारोत्तेजक बातें कही हैं, जो भारतीय समाज की दशा-दिशा और भविष्य के बारे में काफी कुछ कहती हैं। प्रस्तुत है इस बातीचत के कुछ प्रमुख अंश।

सबसे पहले लोकतंत्र के वर्तमान स्वरुप पर बोलते हुए, अरुंधति ने 2009 के दौर से अपनी बात शुरू की। मोदी के उत्थान और उनके सबसे प्रिय उद्योगपति गौतम अडानी के बारे में बात करते हुए उनका कहना था कि आज मोदी के सबसे प्रिय उद्योगपति अडानी ने दशकों से न. 1 पर बने हुए उनके ही दूसरे सबसे प्रिय उद्योगपति अंबानी को अपदस्थ करते हुए पहले स्थान पर कब्जा जमा लिया है। पिछले एक वर्ष में अडानी की संपत्ति बढ़कर 88 अरब डॉलर हो गई है, जबकि अंबानी 87 अरब डॉलर के साथ दूसरे स्थान पर हैं। अडानी के पास इस अकूत संपत्ति में से 51 अरब डालर सिर्फ एक साल में जमा हुई है, जबकि ठीक इसी दौर में भारत के करोड़ों लोग गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी में धकेल दिए गए थे।

उनके अनुसार, वैसे यह सिलसिला मोदी के केंद्र की सत्ता में आने से पहले ही शुरू हो चुका था, मोदी के सत्ता में आने से पहले ही 100 चुनिंदा कॉर्पोरेट के हाथों में देश की जीडीपी का 25% हिस्सा था, लेकिन मोदी के आने के बाद चंद कॉर्पोरेट घरानों की अमीरी ने जो रफ्तार पकड़ी वह अपने-आप में हैरान करने वाली है।

2002 के गुजरात दंगों, जिनमें हजारों की संख्या में गुजरात की सड़कों पर मुस्लिम समुदाय का कत्लेआम और भारी संख्या में पलायन हुआ था, के बाद रतन टाटा और अंबानी सहित कॉर्पोरेट जगत ने मोदी को भविष्य के अगले प्रधानमंत्री के तौर पर जो मुहर लगाई, उसे आज के चुनावी माहौल में एक यूपी के एक साधारण किसान ने बेहद मौजूं शब्दों में कहा, जिसमें उस किसान का कहना था कि, “इस देश को चार लोग चलाते हैं, दो लोग बेचते हैं, दो लोग खरीदते हैं और चारों गुजरात से हैं।” यदि ध्यान से देखें तो इन लोगों के पास जिस तरह से भारत के तमाम संसाधनों, जैसे कि पेट्रोकेमिकल, मीडिया, इंटरनेट, पोर्ट सहित तमाम संसाधनों पर कब्जा हो गया है, वैसी मोनोपोली पश्चिमी मुल्कों में भी देखने को नहीं मिलती है।

अभी हाल ही में संसद के भीतर राहुल गांधी द्वारा बजट सत्र के दौरान दिए गये भाषण में भी इसका जिक्र सुनने को मिला, जिसमें अमीर हिंदुस्तान और गरीब हिंदुस्तान की बात कही थी। वहीं ओवैसी ने ‘मोहब्बत के हिंदुस्तान और नफरत के हिंदुस्तान’ के बारे में बात रखी। वैसे देखने में यह परस्पर विरोधी लगे, लेकिन वास्तव में ये दोनों ही चीजें पिछले कुछ वर्षों से गलबहियां करते हुए दिख रही हैं, क्योंकि क्रोनी कॉर्पोरेट वर्ग को दक्षिणपंथी हिन्दू राष्ट्रवाद के तहत बैंक गारंटी मिली हुई है, और अब 56 इंच के मोदी की छाती के साथ लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं का पतन बड़ी तेजी के साथ हुआ है। हालांकि इसमें क्षरण तब भी हो रहा था, जब यूपीए का शासन काल चल रहा था, किन्तु आज इसकी रफ्तार भयावह स्तर पर तेज हुई है।

आज हम उस हालत में पहुंच गए हैं जिसमें पैसे से आप अपने लिए सबसे अच्छी डेमोक्रेसी को खरीद सकते हैं। अब आपके पास ऐसा लोकतंत्र है, जिसे अफोर्ड किया जा सकता है, प्रेस, कोर्ट, ख़ुफ़िया तंत्र और यहां तक कि सेना, शिक्षा के क्षेत्र तक को अधिग्रहीत या बड़े हद तक प्रभावित करने की स्थिति बन चुकी है।

संसद मन की बात बन चुकी है। मनमाने तरीके से कश्मीर में धारा 370, देश में नए कृषि कानून को थोपकर लोगों की जिंदगियों को पूरी तरह से तबाह किया जा रहा है, और कहना न होगा कि सर्वोच्च न्यायालय भी कहीं न कहीं पेशोपेश में पड़ा हुआ है कि यह कानून का राज है या नहीं। पीएम एक दिन तय करते हैं कि नोटबंदी करनी है, और बिना किसी से सलाह-मशविरा किए विमुद्रीकरण को देशभर के लिए लागू कर देते हैं, उसी प्रकार कोविड-19 के लिए चार घंटे के भीतर लॉकडाउन को लागू करने की घोषणा हो या तीन कृषि कानून की घोषणा, या नागरिकता संशोधन विधेयक हो, ये सभी चीजें कहीं न कहीं ऑइडिया ऑफ़ डेमोक्रेसी के साथ जैसे खेल खेला जा रहा है। और अब हालत यह हो चुकी है कि भाजपा और इसके नेता खुद भी राज्य और राष्ट्र की अवधारणा को लेकर असमंजस की स्थिति में हैं। भारतीय लोकतंत्र को एक शो पीस की तरह बनाकर रख दिया गया है।

हाल ही में हरिद्वार में हुए धर्म संसद पर बोलते हुए रॉय के अनुसार ऐसे कई धर्म संसद इस बीच में आयोजित किये गए हैं। उसमें साफ़-साफ़ शब्दों में नरसंहार की बात की जा रही है। इसके अलावा सैकड़ों की संख्या में ईसाइयों और गिरिजाघरों पर हमले किये जा रहे हैं, ईसा मसीह की प्रतिमा को जलाया जा रहा है, और जो मुख्य व्यक्ति है यति नरसिंहानंद, उसे हाल ही में अदालत ने जमानत पर रिहा कर दिया है। इसलिए हम यह नहीं कह सकते हैं कि सिर्फ सरकार ही इस काम को अंजाम दे रही है, बल्कि पूरी की पूरी राज्य मशीनरी ही इसकी चपेट में आ गई है। प्रोफेसरों, पत्रकारों, वकील, कवि और सिविल राइट्स के लोगों को जेलों में ठूंसा गया है, जबकि खुले आम नरसंहार की बात करने वाले को झट से जमानत मिल रही है।

इसके अलावा ऐसे कई उदाहरण हैं, जैसे कि कर्नाटक में शुरू हुए हिजाब विवाद को देख सकते हैं। यहां पर कोर्ट खुले तौर पर तो नहीं लेकिन कहीं न कहीं अस्थाई तौर पर हिन्दू वर्चस्ववादी समूहों के पक्ष में खड़ी नजर आती है। हो सकता है इस पर बात करना समस्याग्रस्त हो सकता है, पर कुछ समय के लिए मान लेते हैं कि लड़कियों का हिजाब पहनकर कॉलेज आना एक समस्या खड़ी कर रहा हो, लेकिन आप कैसे किसी राज्य के मुख्यमंत्री को भगवा वस्त्रों में अपने पद पर बने रहने या प्रधानमंत्री को सार्वजनिक स्थलों पर खुलेआम धार्मिक-प्रदर्शन करने को स्वीकार सकते हैं?

हम कह सकते हैं कि हमारे देश में बेहद अच्छा कानून है, बेहद अच्छी तरह से कानून सम्मत फैसले लिए जाते हैं, लेकिन उसकी व्याख्या यदि आपकी जाति, धर्म और वर्गीय पृष्ठभूमि, लिंग, जातीयता के आधार पर होने लगे, तो कहीं न कहीं हम एक बालू के ढेर पर खड़े हैं, जो कभी भी भरभरा सकता है।

मोहन भागवत के लिए भारत के हिन्दू राज्य की बात पर कोई प्रश्न नहीं कर सकता है, जबकि मोदी उसी आरएसएस के सदस्य हैं। असल में यह हिन्दू वर्चस्व की सोच ही समस्याग्रस्त है, क्योंकि 19वीं सदी से ही वे हिन्दू वर्चस्व के राजनैतिक विमर्श को खड़ा करने की कोशिशों में जुटे हुए थे, जिसको आर्य समाज और बाद में आरएसएस ने आगे बढ़ाया। इसकी कोशिश यह रही कि जाति-व्यवस्था को जस का तस बना रहने दिया जाए, लेकिन उन्हें इस बात से बेहद चिंता हो रही थी कि बड़ी संख्या में दलित हिन्दू फोल्ड से बाहर निकलकर इस्लाम या ईसाई या सिख धर्म में शामिल हो रहे थे, जबकि हिन्दू जनसंख्या घटती जा रही थी। इसी को देखते हुए हिन्दू धर्म और हम सब एक हैं का प्रचार-प्रसार शुरू किया गया। लेकिन वे कहीं भी इन्हें हिन्दू धर्म के अंदर अपने बराबर स्थान देने को तैयार नहीं थे।

अभी हाल ही में अमित शाह ने कैराना में आकर बताया कि हम मुगलों से लड़ रहे हैं। मुगलों से उनका आशय संभवतः मुसलामानों से था। उनकी कोशिश यह दिखाने की रही हो, कि मुसलमान समुदाय मुगलों के वंशज हैं, जिन्होंने हम पर राज और अत्याचार किया था। इसी प्रकार ईसाई पश्चिमी देशों के एजेंट हैं, और ऐसे में उनके नरसंहार करने जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन सच यह है कि हमारे देश में करोड़ों लोगों ने इस्लाम, सिख या ईसाई धर्म को असल में जातीय शोषण से मुक्ति पाने के लिए ही अपनाया, लेकिन अब आप उसी शोषण से मुक्ति को मुगल, अमेरिका या आतंकवादी करार देते हैं।

अपनी पुस्तक ‘डॉक्टर एंड ए संत’ को उद्धृत करते हुए अरुंधति कहती हैं, कि इलीट मीडिया सिर्फ चुनाव के समय ही जाति के बारे में बात करती है, और वोट बैंक पर बड़े-बड़े विश्लेषण किये जाते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही वे जाति की बात को गुम कर देते हैं, उनके लिए शोषण की बात खत्म हो जाती है। मंडल कमीशन से उपजे लालू, मुलायम और मायावती जी की राजनीति को भले ही एक समय के लिए हाशिए पर डाल दिया गया है, लेकिन आज भी मैला ढोने वाला इंसान, मेहतर का काम करने वाला दलित हैं। हम कभी नहीं पूछते कि हमारा चार्टर्ड अकाउंटेंट किस जाति का है। ये 100 कॉर्पोरेट जिसके पास भारत की अर्थव्यवस्था पर आज पूर्ण नियंत्रण बन गया है, वह किन जातियों से बना है?

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो पूंजीवाद को समझते हैं वे जाति को नहीं समझते हैं और जो जाति को समझते हैं वे पूंजीवाद को नहीं समझ पाते हैं। जब तक इन दोनों को नहीं समझेंगे, तब तक हम सही दिशा में नहीं जा सकते।

आम जनता के प्रतिरोध के बारे में

अरुंधति का इस बारे में मानना है कि आम लोगों का विवेक आज राजनीतिक दलों से काफी आगे है, और आने वाले समय में काफी उथल-पुथल होने वाला है। यह कहा नहीं जा सकता कि भाजपा इस या उस चुनाव में पराजित होने जा रही है, लेकिन हम जैसे लेखकों की बिरादरी को जिस प्रकार से दमन का सामना करना पड़ा है और वे हताशा में हैं, यदि वे दूरदृष्टि रखते हैं तो मैं कहूंगी कि इन ताकतों का समय पूरा हो गया है, और जल्द ही इन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

यदि हम अपने इतिहास को देखें तो मुझे लगता है कि हम इस दौर से नहीं गुजरे थे, लेकिन विकास क्रम में हमें इससे गुजरना ही था, इसके बगैर समाज की यात्रा पूरी नहीं होती। इसका कितना नुकसान होगा, और आगे कितना होगा ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। लेकिन लोग इसका प्रतिरोध कर रहे हैं, और यह चैप्टर खत्म होकर रहेगा। जो नई कहानी उभरेगी, वह अभी ठीक-ठीक क्या होगी, कहा नहीं जा सकता है, लेकिन लोगों को यह गहराई से महसूस होने लगा है कि यह कॉर्पोरेट-परस्ती, असल में कट्टर दक्षिणपंथी विचारधारा का ही परिणाम है।

वे याद करते हुए कहती हैं, मैंने जब शायद 2002 या इसके आस-पास निजीकरण का क्या अर्थ है, इस बारे में लिखा तो मुझे बहुत सारी गालियां मिलीं थीं। उदारवादियों ने मोदी के पीएम बनने पर दिल खोलकर स्वागत किया, लेकिन आज वे मन-मसोस कर खामोश हैं।

मुझे लगता है आम लोग इस राजीतिक व्यवस्था को बदलेंगे, लेकिन यदि हम संघवाद पर जोर नहीं देते हैं तो आप कितने समय तक केरल, तमिलनाडु, उत्तर-पूर्व को यह कहकर नकार सकते हैं कि ये तो छोटे-छोटे राज्य हैं, सिर्फ यूपी-बिहार के नतीजों को फोकस करते हुए आप कब तक उन पर राज कर सकते हैं?

योगी आदित्यनाथ ने भले ही अपनी नासमझी में केरल या बंगाल के बारे में भला-बुरा कह दिया हो, लेकिन यह वाकई में बेहद गंभीर बात है। आप इसी देश के दूसरे राज्यों को कैसे वर्गीकृत कर सकते हैं, जबकि उनके शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार सहित विकास का इंडेक्स आपसे काफी ऊपर है। आप यदि सबको नीचे घसीटकर लायेंगे तो वे कितने समय तब तटस्थ बने रहेंगे? क्योंकि हमारे देश में बेहद मजबूत मुख्यमंत्री उभर रहे हैं, स्टॉलिन, विजयन, ममता सहित सभी मंझे हुए खिलाड़ी हैं, इनके साथ ज्यादा देर तक नहीं खेल सकते हैं। मोदी जैसी परिघटना का समय पूरा हो चुका है। उनकी ओर से भय दिखाया जायेगा, लेकिन जनता मुकाबले में खड़ी होगी।

क्या आप भारत के भविष्य को लेकर चिंतित हैं या इसका भविष्य पहले से बेहतर होने जा रहा है, इस सवाल का जवाब देते हुए अरुंधति ने कहा, “जो दृश्य हम आज समाज, सड़क पर होते देख रहे हैं, वह बेहद चिंतनीय है। लेकिन इस सबका अंत होगा, लोग इसे खत्म करेंगे। मैं यह नहीं कहूंगी कि भारत के लोग बेहद रेशनलिस्ट हो गए हैं, वे एक-दूसरे से आज के बाद प्रेम और भाईचारे के बीच में रहेंगे। क्योंकि भारत के लोग ही एक समय फासीवाद के ट्रैप में आ गए थे, लेकिन यह देश उनका है, और इस सबकी मार उन्हें ही झेलनी पड़ रही है। वे खुद ही अपनी गलतियों को दुरुस्त करेंगे।”

Janchowk
Published by
Janchowk