मोदी सरकार का बजट गरीबों पर मौन प्रहार- सोनिया गांधी

मूल्य वृद्धि, बेरोजगारी और गिरती आय के तिहरे संकट से भारतीयों को दंडित किया जा रहा है। वर्तमान बजट समस्या को और बढ़ाएगा।

जैसा कि अपेक्षित था, इस संकट के दौरान सामाजिक योजनाओं पर हमले की क्या आवश्यकता थी, इस पर प्रधानमंत्री पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं। गूढ़ अर्थ निकालने पर, हम समझते हैं कि यह पूंजीगत व्यय को वित्तपोषित करने के लिये है, जिसे बजट में तेजी से बढ़ाया गया है।

हाल ही में सम्पन्न हुई भारत जोड़ो यात्रा में, यात्रियों ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा तय की और सभी क्षेत्रों के लाखों भारतीयों के साथ बातचीत की। उन्होंने जो बातें सुनीं, वे गहरे आर्थिक संकट और भारत जिस दिशा की ओर बढ़ रहा है, उसके बारे में व्यापक निराशा की अभिव्यक्ति थी। चाहे गरीब हो या मध्यम वर्ग, ग्रामीण हो या शहरी, सभी भारतीय मूल्य वृद्धि, बेरोजगारी और गिरती आय के तिहरे संकट से दंडित हो रहे हैं।

2023-24 का बजट न केवल इन महत्वपूर्ण चुनौतियों का समाधान करने में विफल रहा है, बल्कि गरीबों और कमजोरों के लिए आवंटन को कम करके उन्हें और भी अधिक विकराल बना रहा है। यह मोदी सरकार द्वारा गरीबों पर किया गया मौन प्रहार है, जो 2004-14 के दौरान यूपीए सरकार द्वारा बनाए गए सभी दूरगामी अधिकार-आधारित कानूनों की मूल भावना पर कुठाराघात है।

स्वतंत्रता के बाद का वादा था प्रत्येक भारतीय के लिए एक अच्छा जीवन होगा, न केवल उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से खुद को सशक्त बनाने के समान अवसर प्राप्त करने के लिए भी। यूपीए युग का अधिकार-आधारित कानून इस लक्ष्य की दिशा में एक सुविचारित, सशक्त कदम था। अधिकार-आधारित कानून नागरिकों को सशक्त बनाते हैं, और यह सुनिश्चित करते हैं कि शिक्षा, भोजन, काम और पोषण प्रदान करना सरकार का कर्तव्य हो।

अधिकारों की इन तमाम बातों के प्रति प्रधानमंत्री की नापसंदगी का रुख किसी से छिपा नहीं है। उन्होंने संसद में उनका उपहास कर शुरुआत की, लेकिन कोविड-19 के दौरान उन्हें इन्हीं पर भरोसा करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस बजट के साथ, उन्होंने अब फंडिंग को इतना कम किया है, जो एक दशक से अधिक समय में भी कभी नहीं देखा गया।

ग्रामीण मजदूरों के पास काम कम होगा, क्योंकि मनरेगा के लिए फंडिंग को एक तिहाई कम कर दिया गया है, जिससे वह 2018-19 के स्तर से नीचे आ गया है। योजना के तहत मजदूरी जानबूझकर बाजार दरों से कम रखी जा रही है, और श्रमिक समय पर भुगतान के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

अब हमारे स्कूलों में संसाधनों की कमी हो जाएगी, क्योंकि नए सिरे से ब्रान्ड किये गए सर्व शिक्षा अभियान के लिए फंडिंग लगातार तीन साल तक रुकी रही है। बच्चों को कम पौष्टिक भोजन मिलेगा, क्योंकि इस साल स्कूलों में मिड-डे मील के लिए फंड दसवें हिस्से से गिर गया है। पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत 5 किलो मुफ्त खाद्यान्न मनमाने ढंग से बंद करने के बाद से गरीबों को मिलने वाला राशन आधा हो गया है। इसी तरह, अल्पसंख्यकों, विकलांगों के लिए योजनाओं और बुजुर्गों के लिए पेंशन, सभी को सरसरी तौर पर कम कर दिया गया है।

इसके अलावा, पिछले चार वर्षों में कीमतों में वृद्धि का मतलब है कि हर रुपया 2018 की तुलना में लगभग एक चौथाई कम खरीदता है। अपर्याप्त धन और बढ़ती मुद्रास्फीति का यह घातक संयोजन सीधे तौर पर हमारे देश के सबसे गरीब और सबसे वंचित लोगों को नुकसान पहुंचाता है।

यह मूक हमला ऐसे समय में हुआ है जब हमारी आर्थिक स्थिति लगातार दयनीय बनी हुई है। आर्थिक सर्वेक्षण प्रसन्नतापूर्वक “वसूली पूर्ण” होने की घोषणा करता है, क्योंकि सकल घरेलू उत्पाद महामारी से पहले के स्तर को छू चुका है। लेकिन केवल सबसे अमीर भारतीय ही इस सुधार का लाभ उठाते हैं। आरबीआई के उपभोक्ता सर्वेक्षणों के अनुसार, अधिकांश लोगों को लगता है कि नवंबर 2019 से हर महीने आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है।

इसके कारण स्पष्ट हैं- दैनिक उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ी हैं और मोदी सरकार रोजगार पैदा करने में विफल रही है, विशेष रूप से युवा वर्ग के लिये। लोगों की आय कम होने के बावजूद लोग दैनिक आवश्यक वस्तुओं पर अधिक खर्च करने के लिए मजबूर हैं।

जैसा कि अपेक्षित था, इस संकट के दौरान सामाजिक योजनाओं पर हमले की क्या आवश्यकता थी, इस पर प्रधानमंत्री पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं। गूढ़ अर्थ निकालने पर हम समझते हैं कि यह पूंजीगत व्यय को वित्तपोषित करने के लिए है, जिसे बजट में तेजी से बढ़ाया गया है।

विशेषज्ञों ने आंकड़ों की विश्वसनीयता के बारे में संदेह जताया है, कि क्या धन को सही तरीके से खर्च किया जाएगा, और इस बात से सावधान हैं कि धन का एक बड़ा हिस्सा केवल सरकार के मित्रों और क्रोनीज़ तक ही पहुंचेगा। हालांकि, इन शंकाओं को दूर कर भी दें तो, एक बड़ा मुद्दा है- मानव विकास की कीमत पर बुनियादी ढांचे को वित्तपोषित करना सरासर गलत है, अल्पावधि के लिए हो या दीर्घावधि के लिए।

सामाजिक कार्यक्रम सीधे लोगों को काम, भोजन, बेहतर शिक्षा, सस्ती स्वास्थ्य सेवा, या उनके हाथों में नकदी प्रदान करके उनके जीवन में सुधार लाते हैं। यह कि बड़ी पूंजी- प्रधान परियोजनाओं पर खर्च का लाभ अंततः व्यापक पैमाने पर लोगों तक पहुंच जाएगा, इस अनिश्चित उम्मीद की तुलना में लोगों की सीधे मदद करना निश्चित और त्वरित होता है। लंबे समय-अंतराल में, इतिहास हमें सिखाता है कि एक स्वस्थ और शिक्षित आबादी समृद्धि की नींव है।

बेशक, एक समृद्ध देश को राजमार्गों, रेलवे, बंदरगाहों और बिजली की जरूरत है; लेकिन इसे संचालित करने के लिए कुशल श्रमिकों की भी आवश्यकता होती है, समय की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए वैज्ञानिकों और नवप्रवर्तकों की, सभी को खिलाने के लिए किसानों की, शिक्षक, डॉक्टर, वकील, कलाकार और बहुत से लोगों की जरूरत है, जो अपने साथी नागरिकों के जीवन को समृद्ध बनाने के लिए काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य में भारी कटौती आज सबसे गरीब लोगों को चोट पहुंचा रही है, और कल हमारी प्रगति को अवरुद्ध करेगी।

प्रधानमंत्री की नीति से उनके कुछ धनी मित्रों को लाभ पहुंचता है

गरीब और मध्यम वर्ग के भारतीयों की कीमत पर अपने कुछ अमीर दोस्तों को लाभ पहुंचाने की प्रधानमंत्री की नीति ने लगातार आपदाओं को जन्म दिया है- विमुद्रीकरण से लेकर खराब तरीके से तैयार किए गए जीएसटी द्वारा छोटे व्यवसायों को नुकसान, तीन कृषि कानूनों को लाने के असफल प्रयास और बाद में कृषि की उपेक्षा। विनाशकारी निजीकरण ने बेशकीमती राष्ट्रीय संपत्ति को चुनिंदा निजी हाथों में कौड़ियों के दाम बेच दिया है, जिससे बेरोजगारी बढ़ रही है, खासकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए।

यहां तक कि करोड़ों गरीब और मध्यम वर्ग के भारतीयों की गाढ़ी कमाई को भी खतरा है, क्योंकि सरकार एलआईसी और एसबीआई जैसे भरोसेमंद सार्वजनिक संस्थानों को अपने चुने हुए दोस्तों के स्वामित्व वाली खराब प्रबंधन वाली कंपनियों में निवेश करने के लिए मजबूर करती है।

विचारों से विहीन, प्रधानमंत्री और उनके मंत्री “विश्वगुरु” और “अमृत काल” के ज़ोरदार मंत्रों का सहारा ले रहे हैं, यहां तक कि प्रधानमंत्री के पसंदीदा और चहेते व्यवसायी के वित्तीय घोटाले भी उजागर हो रहे हैं। यह अपनी आजीविका, बचत और भविष्य के बारे में चिंतित करोड़ों असुरक्षित भारतीयों के लिए हितकर नहीं साबित होगा।

शुक्र है कि भारत की जनता इस प्रोपेगंडा के बहकावे में नहीं आने वाली। अब यह सभी समान विचारधारा वाले भारतीयों का कर्तव्य बनता है कि वे हाथ मिलाएं, इस सरकार के घातक कृत्यों का विरोध करें और साथ मिलकर उस बदलाव को चरितार्थ करें जिसे लोग देखना चाहते हैं।

(सोनिया गांधी कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष हैं, इंडियन एक्सप्रेस में छपे उनके इस लेख का हिंदी अनुवाद कुमुदिनी पति ने किया है।)

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