मोदी-योगी की विचारधारा पैदा कर रही है चेतन सिंह जैसे हत्यारे 

दिनांक 31 जुलाई 2027 को जब जयपुर मुंबई सुपरफास्ट एक्सप्रेस ट्रेन मुंबई पहुंचने से महज दो घंटे की दूरी पर थी, तब चलती रेलगाड़ी में रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स के एक कांस्टेबल चेतन सिंह ने अपनी राइफल से सबसे पहले बी-5 कोच में अपने सीनियर सहायक सब इंस्पेक्टर टीकाराम मीणा को गोली मारी। उसके बाद उसी कोच में एक यात्री को गोली से उड़ा दिया। इसके बाद पांच बोगियों को पार करता हुआ वह पेंट्री कार में पहुंचा और वहां दूसरे यात्री की हत्या की और उसके बाद दो और बोगियों को पार करता हुआ कोच एस-6 में गया और वहां तीसरे यात्री को भी गोली से उड़ा दिया।

इस तरह चेतन सिंह ने कुछ ही देर में चार यात्रियों को मार डाला। बताया जाता है कि प्रात: पांच बजे के आसपास चेतन सिंह की अपने वरिष्ठ अधिकारी टीकाराम मीणा से किसी मसले को लेकर बहस हो गयी थी और बहस की इसी उत्तेजना में गुस्से में चेतन सिंह ने मीणा को वहीं गोली से उड़ा दिया। बाद में अलग-अलग डिब्बों में बैठे जिन तीन लोगों की हत्या उसने की वे सब मुसलमान थे और अपनी बढ़ी हुई दाढ़ी और कपड़े से आसानी से पहचाने जा सकते थे। जयपुर का रहने वाला 48 वर्षीय असगर अली अब्बास, जिसकी चूड़ियों की दुकान है, 62 वर्षीय कादर भानपुरवाला और 48 वर्षीय हैदराबाद वासी सैयद सैफुद्दीन। 

रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स की टीम का काम पूरी रेलगाड़ी में घूम-घूमकर निगरानी रखना होता है। चेतन सिंह ने भी जाहिर है कि एक कोच से दूसरे कोच में घुमते हुए इन तीनों यात्रियों को उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी के कारण पहचाना होगा। इसलिए जब चेतन सिंह ने टीकाराम मीणा को मारा, तब उसने उसी कोच के उस मुसलमान यात्री को भी मार डाला जो अपनी दाढ़ी के कारण पहचाना जा रहा था। इसके बाद वह पेंट्री कार में गया जहां उसने एक और मुसलमान को बैठे देखा और उसे गोली मारी और उसके बाद वह एस-6 कोच में पहुंचा और वहां उसने तीसरे मुसलमान यात्री को मार दिया। टीकाराम मीणा और चेतन सिंह के अलावा दो और सिपाही इसी ट्रेन में थे। बाद में रेल से भागते हुए चेतन सिंह को जीआरपी के सिपाहियों ने राइफल सहित पकड़ लिया था।

जैसा कि प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि चेतन सिंह और टीकाराम मीणा के बीच हिंदू-मुस्लिम को लेकर बहस हो रही थी। इस बहस में चेतन सिंह का रुख क्या रहा होगा, यह उसकी इस हत्यारी मुहिम से आसानी से समझा जा सकता है। निश्चय ही टीकाराम मीणा का नज़रिया सांप्रदायिक नहीं रहा होगा और चेतन सिंह के सांप्रदायिक नज़रिए का उसने विरोध किया होगा जो कि इस तरह की बहसों में स्वाभाविक है। चेतन सिंह के मन में मुस्लिम समुदाय के प्रति कितनी गहरी नफ़रत थी जिसने उसे कुछ ही मिनटों में चार लोगों का हत्यारा बना दिया।

उसके हाथों तीन मुसलमान व्यक्तियों की हत्या ही नहीं हुई उस टीकाराम मीणा की भी हत्या हुई जिसने उसके सांप्रदायिक तर्कों का विरोध किया होगा। लेकिन यह घटना बताती है कि हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकों के निशाने पर केवल मुसलमान ही नहीं हैं, वे हिंदू भी हैं जो इस घृणित राजनीति को गलत समझते हैं और खतरा उठाकर भी उसका विरोध करने का साहस करते हैं, जैसा कि टीकाराम मीणा ने किया था। 

चेतन सिंह ने अंतिम मुसलमान की हत्या के बाद उसके शव के पास खड़े होकर एक छोटा-सा भाषण दिया और वहां मौजूद यात्रियों से उसका वीडियो बनाने के लिए कहा। उसने कहा, ‘…पाकिस्तान से ऑपरेट हुए ये और मीडिया यही कवरेज दिखा रही है, उनको सब पता चल रहा है ये क्या कर रहे हैं…अगर वोट देना है, अगर हिंदुस्तान में रहना है तो मैं कहता हूं, मोदी और योगी ये दो हैं…’। रेलवे के उच्च अधिकारियों की तरफ से कहा जा रहा है कि चेतन सिंह मानसिक रूप से अस्वस्थ था, इसलिए वह ऐसा भयावह कांड कर सका। अगर वह मानसिक रूप से अस्वस्थ था, तो फिर उसे रेल की निगरानी के काम में क्यों लगाया गया और क्यों उसके हाथ में गोलियों से भारी राइफल पकड़ा दी गयी।

वह मानसिक रोगी नहीं था बल्कि घृणा की उस राजनीति का प्रशिक्षु था जो युवाओं के दिमागों में मुसलमानों के प्रति, ईसाइयों के प्रति और उन सबके प्रति जो हिंदुत्व की राजनीति को इस देश के लिए और मानवता के लिए खतरनाक समझते हैं, के प्रति न केवल नफ़रत और घृणा से भरा था वरन वह मोदी और योगी को अपना आदर्श भी मानता था। इसी घृणा की राजनीति ने चेतन सिंह की सहज रूप से सोचने और समझने की क्षमता का भी हरण कर लिया था और इसी राजनीति के प्रभाव में उसे हर मुसलमान पाकिस्तान का एजेंट नज़र आता था जिनके विरुद्ध उठाया गया कोई भी कदम जायज और देश के हित में उठाया गया कदम लगा था। 

घृणा और हिंसा की इस मुहिम में चेतन सिंह अकेला नहीं है। 2015 में दादरी में मोहम्मद अखलाक़ के घर में जो भीड़ घुसी थी और जिसने एक झूठी अफवाह से उत्तेजित होकर उस प्रौढ़ और निहत्थे व्यक्ति की बेरहमी से हत्या कर दी थी, वह भीड़ भी उसी घृणा के जहर से उन्मादित थी जिस जहर से चेतन सिंह भी उन्मादित था। 2015 से हत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह न रुका है और न कम हुआ है बल्कि दिन-ब-दिन फैलता जा रहा है क्योंकि इन हत्यारों के ऊपर जिनका वरदहस्त है सत्ता उनके हाथ में है।

कभी गो रक्षा के नाम पर, कभी लव ज़िहाद के नाम पर, तो कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर हत्या की ये मुहिम चलती रहती है। ये जो सड़कों पर, चौराहों पर, घरों और रेलगाड़ी में कभी हथियारों से लैस और कभी हाथ-पैरों से ही मार-मार कर हत्या करने वाले ज्यादातर निम्न मध्यवर्ग के वे युवक हैं जो निजी ज़िंदगी में अल्पशिक्षा और बेरोज़गारी की मार झेल रहे हैं और आगे का जीवन हो सकता है जेल के सींखचों में ही बीते।

लेकिन हत्यारे वे ही नहीं हैं जो किसी निरीह और निर्दोष व्यक्ति को घेरकर मार डालते हैं। हत्यारे वे भी हैं जो उन्मादी भीड़ को ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’ का नारा लगवाते हैं। हत्यारे वे भी हैं जो पत्रकारों का चोगा पहनकर टीवी पर सुबह-शाम जहर उगलते रहते हैं। जो आह्वान करते हैं कि समय आ गया है कि एक समुदाय का ‘परमानेंट इलाज’ करने की जरूरत है। ‘परमानेंट इलाज’ यानी ‘फाइनल सोल्यूशन’। यह वही इलाज है जो हिटलर के जर्मनी में 60 लाख यहूदियों के साथ किया गया था।

यह संयोग नहीं है कि 2019 में नरेंद्र मोदी के दुबारा सत्ता में आने के बाद से मुसलमानों के नरसंहार के कई बार आह्वान किये गये हैं। पिछले तीन महीने से मणिपुर में कुकी आदिवासी समुदाय के साथ जो हो रहा है, वह ठीक वही है जो 2002 में गुजरात में हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि गुजरात में मुसलमान निशाने पर थे और मणिपुर में ईसाई आदिवासी। 

इन दस सालों में गोदी मीडिया द्वारा, सोशल मीडिया द्वारा, इतिहास की झूठी व्याख्या द्वारा और व्हाट्सएप ग्रुपों से तरह-तरह की अफवाहें फैलाकर हिंदुओं के दिमागों में अपने ही पड़ोसियों के प्रति इतना जहर भर दिया गया है कि वे हर उस बात को सच मान लेते हैं जो उनके पास पहुंचती है। यहां तक कि वे अपनी सहज बुद्धि का भी इस्तेमाल नहीं करते। चेतन सिंह की बात से साफ है कि उसके दिमाग में भर दिया गया है कि प्रत्येक मुसलमान देश का गद्दार है और उसके तार पाकिस्तान से जुड़े हुए हैं। उसे किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है।

कहीं न कहीं उसके दिमाग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वह बात बैठी हुई है कि इन्हें इनकी पोशाक से पहचाना जा सकता है। चेतन सिंह ने ठीक यही किया। उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी उनकी पहचान बन गया और उसकी अंगुलियां ट्रिगर तक पहुंचने में कांपी भी नहीं। उसने एक क्षण के लिए भी ठहरकर यह नहीं सोचा कि जिन अनजान लोगों को वह केवल मुसलमान होने के कारण मार रहा है, वे भी किसी के पिता होंगे, किसी के भाई होंगे, किसी के शौहर होंगे और उन्हीं की कमाई के भरोसे पूरे घर का पालन-पोषण होता होगा। सांप्रदायिक घृणा ने उसे इतना अंधा बना दिया था कि जिनकी हत्या उसने की उनकी बजाय अपने बारे में भी सोचता तो शायद यह बर्बर काम वह कभी नहीं करता। अपनी पत्नी और दो बच्चों के परिवार को भी उसने गहरे संकट में डाल दिया है। सांप्रदायिक घृणा आदमी को हत्यारा ही नहीं बनाती उन्हें आत्मघाती भी बनाती है।

140 करोड़ की आबादी वाले देश में जहां हिंदू 80 फीसदी है और मुसलमान महज 15 प्रतिशत यानी सिर्फ 20 करोड़। उस देश के 112 करोड़ लोग अगर यह सोचते हैं कि 20 करोड़ लोग उनके जीवन के लिए खतरा है तो जाहिर है कि उनका विवेक से कोई संबंध नहीं रह गया है। लेकिन ठीक इसी तरह की बातें रोज फैलायी जा रही है और लोग उन्हें सच भी मान रहे हैं। ‘दि केरल स्टोरी’ फ़िल्म इस झूठ को फैलाने का माध्यम बनी कि 32000 हिंदू औरतों को लव ज़िहाद का शिकार बनाकर धर्म परिवर्तन किया गया और उन्हें मुसलमान बनाकर इस्लामी आतंकवादी संगठन द्वारा यौन शोषण का शिकार बनाया गया।

जब फ़िल्म निर्देशक को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूछा गया कि ये आंकड़े आपने कहां से हासिल किये तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। इसी तरह ‘दि कश्मीर फाइल्स’ में जिस तरह हर कश्मीरी मुसलमान को आतंकवादियों का समर्थक बताया गया वह भी वैसा ही झूठ था क्योंकि कश्मीर में जितने कश्मीरी पंडित मारे गये उससे कई गुना ज्यादा मुसलमान मारे गये। आतंकवादियों के हाथों भी और भारतीय सेना के हाथों भी। 

गोदी मीडिया और व्हाट्सअप के द्वारा हर तरह का झूठ फैलाया जाता है। यह बात फैलायी गयी कि अगर अगले चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आ गयी तो मुसलमान हर हिंदू के घर में घुस जायेंगे और उनकी बहु-बेटियों को उठा ले जायेंगे। लेकिन इन बातों पर यकीन करने वाले कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि देश के आज़ाद होने के बाद गुजरे 76 सालों में से लगभग पचास साल कांग्रेस ने राज किया है। उन पचास सालों में कितने हिंदू घरों से मुसलमान औरतों को उठा के ले गये। उन पचास सालों में इनको लव जिहाद की याद भी नहीं आयी।

यह भी फैलाया गया कि अगर कोई मुसलमान किसी हिंदू की ज़मीन पर हाथ भी रख देता है तो कांग्रेस के जमाने में बने एक कानून के अनुसार वह ज़मीन उसकी हो जाती है। अगर ऐसा कोई कानून होता तो क्या हिंदू अपना घर-बार और अपनी ज़मीन बचा पाते और अगर ऐसा कानून था तो पहले अटल बिहारी वाजपेयी और बाद में नरेंद्र मोदी ने उसे खत्म क्यों नहीं किया। खुद नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए इस झूठ को फैलाया था कि मुसलमानों का नारा होता है, हम पांच और हमारे पचीस। अगर इसे सचमुच लागू करें तो मुस्लिम आबादी बीस करोड़ ही कैसे है वह तो सौ करोड़ हो जाती। लेकिन लोग सामान्य से तर्क का भी इस्तेमाल नहीं करते और वे अंधभक्त बन कर हर फैलाये गये झूठ में यकीन करने लगते हैं।

वे मुसलमानों के विरुद्ध फैलायी गयी हर उस बात में यकीन करने लगते हैं जो उनके अंदर की घृणा को लगातार बढ़ाती रहती है। वे मान लेते हैं कि मुसलमान हिंदू लड़कियों को प्रेमजाल में फंसाकर उन्हें विवाह करने को मजबूर करते हैं और उनका धर्म परिवर्तन करा देते हैं। वे मान लेते हैं कि वे साजिश करके सरकार में उच्च पद हासिल कर नौकरशाही को अपने कब्जे में करना चाहते हैं। वे मान लेते हैं कि वे सरकारी ज़मीनों को कब्जा कर अपनी ताकत बढ़ाना चाहते हैं। वे मान लेते हैं कि कश्मीर में पांच लाख कश्मीरी पंडितों को मार दिया गया। और इन सबसे ऊपर इस बात में यकीन करने लगते हैं कि मुसलमान रूपी इस राक्षस से हमें कोई बचा सकता है तो वह सिर्फ नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ ही बचा सकते हैं।

वे ही मुसलमानों (और दलितों को भी) को सबक सीखा सकते हैं। यह धारणा इसलिए बनी है क्योंकि 2002 में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए मुसलमानों का जो नरसंहार हुआ था और दो हजार मुसलमान मारे गये थे, उसी ने वहां के मुसलमानों को अपनी औकात दिखा दी थी और यही सबक देश के हर मुसलमान को सिखाने की जरूरत है। यह सबक योगी आदित्यनाथ भी सिखा सकते हैं जो खुले आम कहते रहे हैं कि अगर वे हमारी (हिंदुओं की) एक औरत को उठायेंगे तो हम उनकी (मुसलमानों की) सौ औरतें उठायेंगे। 

अगर गुजरात में 2002 का नरसंहार न होता तो नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री न बनते और पिछले दस साल में उन्होंने यही साबित किया है कि वे पूरे देश को गुजरात बनाने की क्षमता रखते हैं। गुजरात का आर्थिक मॉडल भले ही नाकामयाब रहा हो सांप्रदायिक मॉडल अवश्य कामयाब है। 

(जवरीमल्ल पारख सेवानिवृत प्रोफेसर हैं।)

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