विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का काफी कुछ भविष्य मुंबई बैठक से तय होगा!

विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ यानी इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस की तीसरी बैठक 31 अगस्त और एक सितंबर को मुंबई में हो रही है। इससे पहले दो बैठकें पटना और बेंगलुरू में हो चुकी हैं। बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू) के नेता नीतीश कुमार की पहल पर हुई पहली बैठक में 17 दलों को बुलाया गया था, जिनमें से 15 दलों के नेताओं ने शिरकत की थी। बेंगलुरू में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की मेजबानी में हुई दूसरी बैठक में 10 से ज्यादा नई पार्टियां शामिल हुईं यानी कुल 26 पार्टियों के नेताओं ने शिरकत कीं। अभी तक की जानकारी के मुताबिक इस बार कोई नई पार्टी नहीं जुड़ने जा रही है।

हालांकि दूसरी बैठक के बाद कहा जा रहा था कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दल नए गठबंधन से कुछ छोटी पार्टियों को जोड़ेंगे। जैसे बिहार से पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी को अगली बैठक में बुलाए जाने की चर्चा थी। उन्होंने बेंगलुरू में नहीं बुलाए जाने पर नाराजगी भी जताई थी। लेकिन लगता है कि उनके बारे में अभी कोई फैसला नहीं हुआ है। पूर्वोत्तर के राज्यों से भी कोई पार्टी नहीं जुड़ रही हैं। उत्तर प्रदेश की कुछ छोटी पार्टियां पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ी थीं लेकिन इस बार वे सब भाजपा से तालमेल की संभावना देख रही हैं। 

बहरहाल मुंबई में इंडिया गठबंधन की बैठक में 26 पार्टियां हिस्सा लेंगी, जिनके करीब 80 नेता बैठक में शामिल होंगे, जिनमें पांच राज्यों के मुख्यमंत्री भी शामिल रहेंगे। दो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान आम आदमी पार्टी के होंगे। उनके अलावा पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी, तमिलनाडु के एमके स्टालिन और झारखंड के हेमंत सोरेन शामिल होंगे। 

विपक्षी गठबंधन की पहली बैठक पिछले महीने 18 जुलाई को हुई थी। उस बैठक से मीडिया का फोकस हटाने के लिए उसी दिन दिल्ली में भाजपा ने भी अपनी अगुवाई वाले एनडीए की बैठक की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई उस बैठक में 38 पार्टियां शामिल हुई थीं। हालांकि उनमें से ज्यादातर पार्टियां बहुत छोटी है और उनके नेताओं की पहचान अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर नहीं है। लेकिन सालों बाद हुई इस बैठक का मकसद यह संदेश देना था कि उनका कुनबा विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ से बड़ा है। बाद में भी प्रधानमंत्री मोदी एनडीए के सभी घटक दलों के सांसदों से मिले और भाजपा ने सभी घटक दलों के प्रवक्ताओं का प्रशिक्षण भी कराया।

पहली बैठक में सभी दलों ने 2024 का आम चुनाव मिल कर लड़ने पर सहमति जताई थी तो दूसरी बैठक में गठबंधन का नामकरण हुआ था, जिस पर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी ने तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। मोदी और अन्य भाजपा नेताओं ने कई दिनों तक विभिन्न मंचों से गठबंधन के संक्षिप्त नाम इंडिया पर तीखी टिप्पणियां की थीं। प्रधानमंत्री ने तो विपक्षी गठबंधन की तुलना ईस्ट इंडिया कंपनी और आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन तक से करने में भी संकोच नहीं किया। कुल मिलाकर अपने गठबंधन का जितना प्रचार विपक्षी नेताओं ने नहीं किया, उससे ज्यादा प्रचार मोदी और दूसरे भाजपा नेताओं ने कर दिया। इस तरह की प्रतिक्रिया से जाहिर हुआ कि विपक्षी एकता की इस पहल से प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी बुरी तरह परेशान और बौखलाई हुई है। 

विपक्षी गठबंधन की दोनों ही बैठकों में कोई बड़ा नीतिगत फैसला नहीं हुआ था। तीसरी बैठक का एजेंडा भी अभी तय नहीं है, लेकिन माना जा रहा है कि मुंबई बैठक में गठबंधन के संयोजक का नाम तय होगा और एक समन्वय समिति का गठन किया जाएगा। इसके अलावा न्यूनतम साझा कार्यक्रम और सीटों के बंटवारे का फार्मूला तय करने के लिए उप समितियों का गठन भी इस बैठक में हो सकता है। इसी बैठक में दिल्ली में गठबंधन का मुख्यालय खोलने, गठबंधन के प्रवक्ता नियुक्त करने, भविष्य में सामूहिक रैलियां और जनता से जुड़े मुद्दों पर आंदोलन का खाका तैयार करने और कुछ अन्य दलों को गठबंधन में लाने पर चर्चा होने की संभावना है। दो महीने बाद होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में गठबंधन किस तरह से आगे बढ़ेगा, इस पर भी चर्चा हो सकती है। 

इन सब राजनीतिक और रणनीतिक बातों के अलावा मुंबई बैठक के बारे में कहा जा रहा है कि इसमें गठबंधन का ‘लोगो’ यानी पहचान चिन्ह और थीम सॉन्ग भी जारी होगा। लेकिन सवाल है कि विपक्षी गठबंधन के लिए ‘लोगो’ की जरूरत है? इससे पहले किसी गठबंधन का कोई ‘लोगो’ नहीं रहा, न एनडीए का और न ही यूपीए का। अतीत में राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा के नाम से बने गठबंधनों का भी कोई ‘लोगो’ नहीं था। इस समय महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड और तमिलनाडु में विपक्षी गठबंधन पहले से कायम है लेकिन किसी का कोई ‘लोगो’ नहीं है। सवाल यह भी है कि जब सभी पार्टियों का अपना चुनाव चिन्ह है और सभी को उसी पर चुनाव लड़ना है तो फिर एक कॉमन ‘लोगो’ की क्या जरूरत? इससे तो आम मतदाता के बीच भ्रम की स्थिति बनेगी और गठबंधन की पार्टियों का नुकसान भी हो सकता है। वैसे भी ‘लोगो’ की जरूरत तब पड़ती है जब उसके जरिए किसी आयोजन की पहचान बनानी हो। विपक्षी पार्टियों की पहचान तो उनके चुनाव चिन्ह और उनके नेताओं के चेहरे हैं। इसलिए ‘लोगो’ जारी करना फिजूल की कवायद ही मानी जाएगी। हां, गठबंधन का थीम सॉन्ग ठीक है लेकिन वह भी चुनाव के समय जारी होना चाहिए, क्योंकि वह चुनाव में ही काम आना है।

भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव को लेकर अभी से जिस तरह युद्ध स्तर पर तैयारी शुरू कर दी है और विपक्षी नेताओं को डराने-दबाने के लिए जिस तरह केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई में तेजी आई है, उसके बरअक्स विपक्षी गठबंधन के नेताओं को भी प्रतीकात्मक कवायदों में वक्त गंवाने के बजाय जरूरी और ठोस मुद्दों को लेकर तैयारी करना होगी, तभी उनका गठबंधन चुनाव में भाजपा के सामने चुनौती पेश कर सकेगा।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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