सिद्धांत विहीन राजनीति के पर्याय बन चुके हैं नीतीश कुमार

पटना। रीढ़विहीन इंसान एक बेहतरीन राजनीति कर सकता है लेकिन वह समाज को सही नेतृत्व नहीं दे सकता। नीतीश कुमार के बारे में पूरा बिहार इसी तरह की टिप्पणी कर रहा है। नीतीश कुमार नौवीं बार मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। अंगुली के इशारे पर पूरी राजनीति को डील कर रहे हैं। जदयू के एक बड़े नेता कह रहे हैं कि हमें कांग्रेस से दिक्कत थी, इसलिए आरजेडी से नाता तोड़ दिया और कांग्रेस बीजेपी से लड़ने के लिए सीरियस नहीं थी, इसलिए हम बीजेपी के साथ चले गए। इस पूरे बयान को मजाक के अलावा और क्या समझा जा सकता है।

लेखक अजय पाठक के मुताबिक तेजस्वी यादव बीजेपी की भ्रष्ट राजनीति के सियासी अंधेरे में बिहार के करोड़ों युवाओं के लिए उम्मीद की आखिरी रोशनी हैं। यही बिहार की राजनीति का आखिरी सच भी है। 

लेखक और पत्रकार प्रियांशु कुशवाहा कहते हैं कि “नीतीश जी ने सरकार से इस्तीफ़ा नहीं दिया है। समतामूलक समाज की परिकल्पना से छल किया है। सामाजिक न्याय की मुहिम के साथ धोखा किया है। समाजवादी राजनीति को धक्का दिया है। उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें डरना नहीं चाहिए था। उन्हें हिम्मत के साथ लड़ना चाहिए था। उनके इस फ़ैसले ने बिहार को फिर से पीछे धकेल दिया है। आज नीतीश जी फिर हार गए। मनुवादी सांप्रदायिक ताकतों के आगे फिर झुक गए। फिर डर गए। उन्हें अपने आप को कर्पूरी ठाकुर का शिष्य कहने पर शर्म आनी चाहिए। सिद्धांत विहीन राजनीति के पर्याय बन चुके हैं नीतीश कुमार।”

राजद समर्थक प्रियंका देशमुख इस पूरे मुद्दे पर नीतीश कुमार पर सवाल उठाते हुए कहती हैं कि “शहाबुद्दीन साहब को वापस जेल में डाला इसके बाद उनकी हत्या हो गई। राजद खामोश रही। आनंद मोहन की वजह से नीतीश कुमार ने कानून बदल दिया। राजद विधायक फतेह बहादुर जी के तार्किक बयानों पर भी उल्टा जवाब दिया। बिहार और देश में उन्माद फैलाने वाले मनीष कश्यप को आपने रिहा किया अपने वकीलों से यह कह कर कि केस में एग्रेसिव न हो, फिर भी हम चुप रहे। क्योंकि निजी हित से अधिक बिहार और देश का हित ज़रूरी था। हमारे लिए सबसे जरूरी था सामाजिक और आर्थिक न्याय।”

ऑल इंडिया बैकवर्ड क्लास फेडरेशन बिहार के युवा अध्यक्ष प्रतीक पटेल कहते हैं कि, “नीतीश कुमार जी गांधी जी के 7 सामाजिक पापों की सूची को हर जगह सरकारी भवन पर बनवाते रहते हैं। उसमें एक पाप “सिद्धांत विहीन राजनीति” भी है। आप आज जो भी हैं एक एक कार्यकर्ता की मेहनत की बदौलत हैं। उनसे बिना किसी राय विचार के इस तरह का आत्मघाती फैसला जो नीतीश कुमार ले चुके हैं इसे किसी तर्ज पर डिफेंड नहीं किया जा सकता है। सामाजिक न्याय की लकीर खींचने के बाद ऐसा करना बेहद दुःखद है।” प्रतीक पटेल जदयू से भी जुड़े रहे हैं।

वहीं राजनीतिक टिप्पणीकार दुर्गेश कुमार लिखते हैं कि ”सुधाकर सिंह, विजय मंडल, सुनील कुमार सिंह, भाई वीरेंद्र जैसे लोगों का लगाई हुई आग भी महागठबंधन की लंका जलाने के लिए काफी थी। उत्तर भारत में “माय के लाल” और “रामजादे” के दो धाराओं के बीच में राजनीति करने वाले के लिए पलटी मारना “चाणक्य नीति” का ही जरुरी अध्याय है। जो जीता वो सिकंदर। नीतीश कुमार का कोई विकल्प नहीं है। साल 2029 तक बिहार में सीएम के लिए नो वैकेंसी है। सत्ता संघर्ष में सिद्धांत नहीं जीत का जज्बा, सियासी दांव पेंच ज़रुरी है।”

जेएनयू के छात्र परमिंदर अंबर लिखते हैं कि नीतीश कुमार जी सोच समझकर फैसला लेना चाहिए। जदयू के कार्यकर्ता इस फैसले से खुश नहीं होंगे। अभी तो बहुजनों के लिए 65% आरक्षण लागू हुआ था, कितनी अच्छी सरकार चल रही थी। इस तरह का फैसला आत्मघाती साबित होगा।

सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के साथ विश्वासघात: दीपंकर

भाकपा माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा है कि न्याय और लोकतंत्र की लड़ाई को पटरी से उतारने के लिए भाजपा ने एक बार फिर नीतीश कुमार को मोहरा बनाया है। उन्होंने कहा कि “यह तो सब जानते थे कि भाजपा बिहार में फिर से सत्ता पाने को बेताब थी। समय ही बताएगा कि नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा के जाल में क्यों फंसे। इस कृत्य को सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के साथ भीषण विश्वासघात के रूप में याद किया जायेगा। बिहार इस विश्वासघात को बर्दाश्त नहीं करेगा और फासिस्ट हमले के विरुद्ध पुरजोर तरीके से लड़ेगा।”

(बिहार से राहुल कुमार की रिपोर्ट।)

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