नीतीश: राजनीतिक पतन की नई परिभाषा

सिद्धांत, मूल्य, विचारधारा आदि सरीखे शब्द सब बेमानी जैसे हो गए हैं। नीतीश का पल्टीमार ही मौजूदा राजनीति का सच है। राजनीति के इस नाबदान में नीतीश के साथ बीजेपी भी उतनी ही नख से सिख तक डूबी है। और इस तरह से दोनों ने मिलकर पतन का नया पैमाना तैयार कर दिया है। क्या अजीब विडंबना है दो दिन पहले ही मोदी सरकार ने बिहार की राजनीति के शिखर पुरुष रहे कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिया था। लेकिन उसके तीन दिन बाद ही उसकी पार्टी बीजेपी ने नीतीश के साथ मिलकर उनकी पूरी विरासत पर पानी फेर दिया। भारतीय राजनीति का यह पतन काल है। और नीतीश अगर उसके शिरमौरों में से एक हैं तो दूसरे भी उससे बहुत ज्यादा दूर नहीं हैं। संघ पोषित बीजेपी और उसकी राजनीति को इस पूरी कसौटी में कहां रखा जाएगा? 

अलग चाल, चरित्र और चेहरा के नारे के साथ आयी बीजेपी ने पिछले 30 सालों में अवसरवादिता के नये-नये खंभे गाड़े हैं। और पिछले दस सालों में उसने 70 सालों के बीच स्थापित लोकतांत्रिक मान्यताओं और मूल्यों को रौंदते हुए उन कारस्तानियों को अंजाम दिया है जिनकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। कॉरपोरेट की थैलियों में मुंह डालकर खुली मंडियों में विधायकों की ख़रीद-फ़रोख्त के साथ राज्यों की विपक्षी सरकारों को अपदस्थ करने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो पूरा देश एक के बाद दूसरी घटना देखकर अवाक रह गया।

लेकिन बीजेपी समर्थक मीडिया और उसके कार्यकर्ता कभी उसे ‘मास्टर स्ट्रोक’ तो कभी ‘चाणक्य नीति’ करार देकर प्रोत्साहित करते रहे। बीजेपी और संघ की सेहत पर तो इसका कोई असर नहीं पड़ रहा था। बल्कि दूसरे तरीके से कहें तो लोकतंत्र को जड़ से उखाड़ फेंकने की मंशा के साथ आयी इन ताकतों के लिए यह किसी सोने पर सुहागा से कम नहीं था। क्योंकि लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने के उनके लक्ष्य में यह बेहद मददगार साबित हो रहा था। 

लेकिन चिंता तो उस हिस्से को करना चाहिए था जिसके पेट की आग और सांस की डोर लोकतंत्र के अस्तित्व से जुड़ी थी। क्या बगैर लोकतंत्र के इस देश के भीतर किसी गरीब गुरबे या फिर हाशिये पर बैठे शख्स की कोई बात हो सकती है? सामंती और ब्राह्मणवादी उत्पीड़न से किसी दलित या फिर सामाजिक तौर पर समाज के वंचित हिस्से को बचाया जा सकता है? और यह सिलसिला अगर आगे बढ़ा तो हिंदू राष्ट्र की बज रही दुंदुभि के बीच अल्पसंख्यकों के पूरे वजूद का क्या होगा? इस बात में कोई शक नहीं कि पूरा नॉर्थ- ईस्ट मणिपुर बनने के लिए अभिशप्त हो जाएगा और सुकून की सांस ले रहे दक्षिण को उत्तर की गोबर पट्टी में तब्दील होने में कोई समय नहीं लगेगा।

लगता है हम रास्ते से भटक गए। फिर लौटते हैं नीतीश की तरफ। जनाब देश का प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। लेकिन मूल्य, सिद्धांत और विचारधारा का सारा चोला उतारकर। वह चाहते थे कि सभी विपक्षी दल चुनाव से पहले उनके सिर पर सेहरा बांध दें। एक शख्स जिसकी राजनीति अवसरवाद की शायद ही कोई गली छोड़ी हो और जिसने इस देश में संघ-बीजेपी को आगे बढ़ाने में सबसे ज्यादा मदद पहुंचायी हो उसे उसके विकल्प के तौर पर पेश कर भी दिया जाए तो कैसे?

कुछ लोग कह रहे हैं कि अगर नीतीश को इंडिया का संयोजक बना दिया जाता और संयुक्त चुनाव प्रचार अभियान तेज कर दिया जाता तो वह इस विकल्प को नहीं चुनते। इस बात में कोई शक नहीं कि कांग्रेस से कुछ गलतियां हुई हैं। वह हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान सीटों के गठबंधन का मसला रहा हो या फिर संयुक्त चुनाव प्रचार अभियान संचालित करने की बात। या फिर गठबंधन के निर्माण और उसकी गतिविधियों को आगे बढ़ाने में बरती गयी कोताही रही हो। सभी जगहों पर यह कमजोरी देखी गयी। लेकिन इससे किसी को उसका बहाना बनाकर उस दुश्मन खेमे में शामिल होने की इजाजत नहीं दी जा सकती है जिसको मटियामेट करने की चार दिनों पहले वह संकल्प ले रहा हो। और कम से कम उस शख्स को तो कतई नहीं जो इस पूरे अभियान की अगुआई करने की बात कर रहा हो। 

लेकिन नीतीश के लिए शायद अब कोई लाल रेखा नहीं बची है। उनकी राजनीति इस तरह के बंधनों से मुक्त हो चुकी है। लेकिन नीतीश को एकबारगी ज़रूर सोचना चाहिए कि अगर इतिहास लिखा जाएगा तो उनका स्थान उसमें कहां होगा? उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उस जॉर्ज फर्नांडिस का क्या हस्र हुआ जिनकी कभी तूती बोलती थी। इमरजेंसी के डायनामाइट कांड का वह हीरो अपने जीवन का आखिरी पड़ाव गुमनामी के अंधेरे में बिताया। और मरने के बाद भी अब उसका कोई नामलेवा नहीं है। और नाम आने पर उसके प्रति सम्मान से ज्यादा हिकारत का भाव जगता है।

ऐसा क्यों? क्योंकि उन्होंने देश पर एक ऐसी फासीवादी जमात को थोपने में मदद पहुंचाने का काम किया जिसके चंगुल से निकलने के लिए पूरी जनता कराह रही है। इसी तरह से इतिहास का कूड़ेदान भी नीतीश का इंतजार कर रहा है। सत्ता सुख आप कितना भोग लें। लेकिन भारतीय समाज उसको वह तवज्जो नहीं देने जा रहा है जितना किसी बलिदानी इंसान के हिस्से आता है। और इस मामले में संघ-बीजेपी के खिलाफ लौहस्तंभ बन कर खड़े लालू प्रसाद यादव आप से कई पायदान आगे खड़े हैं। 

पिछले 100 सालों के इतिहास में जितनी इज्जत गांधी, भगत सिंह और आजादी के बाद जेपी को मिली है उतनी शायद ही किसी और को नसीब हुई हो। इस मामले में नेहरू अपवाद हैं जिन्होंने भारतीय राष्ट्र-राज्य के निर्माण की नींव रखी और एक ऐसा आधुनिक भारत का रास्ता तैयार किया किया जिस पर चलते हुए हम यहां तक पहुंचे हैं। अब यह बात अलग है कि एक ऐसी विध्वंसकारी ताकत सत्ता में आ गयी है जो किसी भी कीमत पर उसे मिटाने के लिए आतुर है। और विपक्ष और सत्ता के बीच संघर्ष भी इसी बात को लेकर है कि अब देश में आधुनिक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत का वजूद रहेगा या फिर उसकी कब्र पर कोई फासीवादी हिंदू अधिनायकवादी राष्ट्र खड़ा होगा। 

लेकिन नीतीश को एक बात समझनी होगी कि हमेशा सोची हुई गणित सफल नहीं होती है। शायद वह एनडीए के रास्ते देश की सर्वोच्च कुर्सी तक पहुंचने का कोई ख्वाब देख रहे हों। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में नीतीश ने जो नैतिक ताकत खोई है उसकी कोई भरपाई नहीं है। किसी और की बात छोड़ दें खुद उनके कार्यकर्ताओं के लिए समाज में उनको डिफेंड कर पाना मुश्किल हो जाएगा। 

सामान्य इंसान की भी अपनी एक नैतिकता होती है। उसका अपना मूल्यबोध होता है। वह रिश्तों में भी सिद्धांतों की अपनी कसौटियां बनाता है। और तमाम परेशानियों को झेलते हुए भी उस पर चलने की कोशिश करता है। ऐसे में अगर उसके सामने एक ऐसे नेता के बारे में विचार करने के लिए आएगा जो किसी उच्च राजनैतिक मूल्यबोध की बात तो दूर उसकी न्यूनतम शर्तों का भी पालन करने के लिए तैयार नहीं है तो क्या वह उसके पक्ष में खड़ा हो पाएगा? उसके लिए वोट करेगा?

उसका झंडा उठाएगा? कहां तो नीतीश को आम जनता को रास्ता दिखाना था कहां एक ऐसी स्थिति आ गयी है जिसमें जनता उनसे ऊपर बैठ गयी है। इसलिए अभी भले ही तत्काल उन्हें अपनी बाजी जीती हुई लग रही हो लेकिन समय बीतने के साथ यह बिल्कुल पलट सकती है। और तब उनके पास चारों खाने चित्त होने के सिवा कुछ नहीं बचेगा।

इस पूरे प्रकरण में एक जो बात सबसे महत्वपूर्ण और दिलचस्प है वह उप मुख्यमंत्री और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव का रुख और व्यवहार रहा। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया और कहा जिससे उनके दामन पर कोई अंगुली उठा सके। पूरे धैर्य के साथ उन्होंने परिस्थितियों का सामना किया। और इस तरह से उनका नैतिक बल इस पूरे प्रकरण में बहुत ऊपर हो गया है। और सूबे में अगर नीतीश ढहती ताकत के तौर पर देखे जा रहे हैं तो तेजस्वी उसके संभावनामय चेहरे बन गए हैं। बहरहाल इस पूरे प्रकरण का लिटमस टेस्ट सूबे में घुसने वाली भारत जोड़ो न्याय यात्रा को मिलने वाले समर्थन से हो जाएगा। जो कल से ही अररिया में प्रवेश करने जा रही है। 

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।)

महेंद्र मिश्र
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