समाधान नहीं, अंधी सुरंग बनने के रास्ते पर है कश्मीर

यह अपने किस्म की पहली सरकार है जिसने न केवल एक राज्य को जिबह कर दिया बल्कि उसकी स्वायत्तता की मांग को रद्दी की टोकरी में फेंककर उसे सीधे अपने अधीन कर लिया। और खास बात यह है कि समस्या को हल करने का उसने जो रास्ता निकाला है उसके बारे में भी उसे कोई गलतफहमी नहीं है। उसको पता है कि इससे कुछ होने वाला नहीं है। दरअसल उसे कश्मीर की समस्या हल करनी भी नहीं है। अगर किसी ने यह मुगालता पाल रखी है कि बीजेपी और संघ कश्मीर की समस्या को हल करना चाहते हैं तो उसे इसे अपने मन से निकाल देना चाहिए। पहले भी उन्हें न कश्मीर से प्रेम था और न ही कश्मीरियों से। यहां तक कि उसके भू-भाग को भी वह पहले से ही मानसिक तौर पर कुर्बान करने के लिए तैयार रहे हैं।

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि आरएसएस कश्मीर को तीन हिस्सों में बांटने का ख्वाहिशमंद रहा है। उसके पीछे एक हारे हुए शख्स सरीखा कायरता और कमजोरी भरा यह तर्क रहा है कि उस हिस्से से जो भी बचा लिया जाए वही बोनस है। इस लिहाज से वह जम्मू, कश्मीर और लद्दाख को तीन हिस्सों में बांटने की वकालत करता रहा है। जिसके पीछे उसका तर्क यह होता था कि हिंदू बहुल आबादी वाले जम्मू और लद्दाख को अपने पक्ष में कर लिया जाए और कश्मीर को बचाने की कोशिश की जाए लेकिन कामयाब न होने की स्थिति में उसे छोड़ा भी जा सकता है। दरअसल इसमें उसके दोनों हाथ में लड्डू हैं बचा लिया तो समस्या के समाधान का श्रेय और जाने पर उसकी इस मान्यता की पुष्टि हो जाएगी कि मुसलमान भारत के साथ रह ही नहीं सकते हैं। पीएम मोदी ने उसी तर्ज पर आगे बढ़ते हुए यह फैसला लिया है। जिसमें उन्होंने लद्दाख को तो अलग कर दिया है लेकिन जम्मू को अभी भी वह कश्मीर के साथ बनाए हुए हैं।

इसके पीछे एक वजह यह हो सकती है कि ऐसा करने से उनकी योजना की पोल खुल जाती और फिर देशवासियों को इसके लिए मना पाना मुश्किल हो जाता। क्योंकि कट्टर से कट्टर बीजेपी समर्थक के लिए भी एकबारगी कश्मीर को छोड़ने की बात गले के नीचे उतार पाना मुश्किल है। और अगर संघ और बीजेपी की कोई ऐसी मंशा है तो यह जरूर कहा जा सकता है कि उसे न तो कश्मीरियों से प्यार है और न ही कश्मीर से। हां पार्टी उसे एक मोहरे के तौर पर इस्तेमाल जरूर कर लेना चाहती है। जब देश के भीतर मुसलमानों के खिलाफ उन्माद खड़ा करना है और इस प्रक्रिया में उन्हें देश से बाहर जाने तक के लिए मजबूर करना है और आखिर में छोटी संख्या में बचे रहने पर उन्हें दोयम दर्जे का जीवन जीने के लिए अभिशप्त कर देना है। इस दूरगामी रणनीति के साथ कश्मीर पर लिया गया यह फैसला न केवल एक पड़ाव है बल्कि अपने तरह का एक प्रयोग भी है जिसमें उसे सीना तान कर लड़ते कश्मीरियों को झुकाने के साथ ही उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के अपने लक्ष्य की तरफ ले जाना है।

घाटी में तैनात एक सैन्यकर्मी।

दरअसल देश में सांप्रदायिकता के ताप को बीजेपी-संघ स्थाई रूप से बनाए रखना चाहते हैं। उसमें किसी भी तरह की ढील या फिर हीला-हवाली उनको उनके लक्ष्य से दूर करती है। लिहाजा उसके लिए इन्हें या तो लगातार सांप्रदायिक दंगे करवाने होंगे या फिर गाय, गोबर और मॉब लिंचिंग का अभियान लगातार चलाये रखना होगा। जो कि बहुत मुश्किल होता है। और उसमें भी हर समय एक्सपोज होने का खतरा बना रहता है। इस लिहाज से कश्मीर एक ऐसा केंद्र बन सकता है जिससे पूरे देश में इस गर्मी को स्थाई तौर पर बनायी रखी जा सके। क्योंकि वहां हमेशा अपने तरह की लड़ाई चलती रहेगी। और अब जबकि स्वायत्तता देने की बात तो दूर उनके बचे अधिकारों को भी छीन लिया गया है तब उसके और तेज होने की आशंका बढ़ जाती है। जो कम से कम बीजेपी और संघ के लिए किसी मुंह मांगी मुराद से कम नहीं है।

इस कड़ी में बीजेपी घाटी को फिलीस्तीन बना देना चाहती है। अनायास नहीं मॉडल के नाम पर उसे बार-बार इजराइल याद आता है। और आने वाले दिनों में बाहर से लोगों को बसाने के जरिये घाटी में कश्मीरियों को अल्पसंख्यक स्थिति में लाने का उसका लक्ष्य उसी मॉडल से प्रेरित है। यह सब कुछ तो अभी भविष्य की बात है। लेकिन उससे पहले खुद जम्मू-कश्मीर के भीतर से ही सरकार की इन नीतियों के खिलाफ आवाज उठनी शुरू हो गयी है। असल सच्चाई यह है कि अभी बाहर से कोई सूबे में बसना भी चाहेगा तो वह घाटी की जगह ज्यादा शांत इलाका जम्मू को प्राथमिकता देगा। और वह न केवल जमीन लेगा बल्कि भविष्य में सूबे की नौकरियों पर भी दावा करेगा।

जिसकी आशंका जम्मू क्षेत्र के लोगों को होने लगी है। तमाम दूसरे दलों पैंथर्स पार्टी और कांग्रेस की बात तो छोड़ दीजिए बीजेपी के नेता और सूबे के उपमुख्यंमत्री निर्मल सिंह तक ने इसके लिए केंद्र से अलग से प्रावधान करने की गुहार लगायी है। अनायास नहीं जब पूरा देश कथित जश्न में डूबा था तो जम्मू में उसका उतना असर नहीं दिखा। लिहाजा आने वाले दिनों में अगर बीजेपी और उसके इस फैसले के खिलाफ घाटी की मुख्यधारा की लोकतांत्रिक पार्टियों मसलन पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, शाह फैसल और लोन की पार्टियां, कांग्रेस, पैंथर्स पार्टी समेत दूसरे दलों के साथ मिलकर इसके खिलाफ अभियान चलाते हैं तो बीजेपी को लेने के देने पड़ सकते हैं।

मोदी सरकार के इस फैसले ने केवल घाटी या फिर उससे जुड़े तमाम इलाकों को ही नहीं परेशान किया है। देश के दूसरे हिस्से भी सकते में हैं। दरअसल इसने पूरी संघीय व्यवस्था को ही तार-तार कर दिया है। जिससे दूसरे सूबे भी परेशान हैं। इसमें सबसे पहले जिन हिस्सों पर असर पड़ने वाला है वो उत्तर-पूर्व के राज्य और विशेष दर्जा हासिल करने वाले हिमाचल और सिक्किम समेत कई सूबे हैं। यहां तक कि दक्षिण के सारे राज्य भविष्य की तमाम आशंकाओं को लेकर गुणा-गणित में जुट गए हैं। क्योंकि उन्हें इस बात का अहसास होने लगा है कि बीजेपी-संघ के नेतृत्व में जो हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का कारवां आगे बढ़ रहा है उसमें उनकी कोई जगह नहीं है। और एक दिन इसका सबसे बुरा असर दक्षिण के राज्यों पर पड़ेगा।

सैनिकों के साथ सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल।

ऐसा नहीं है कि देश की विपक्षी पार्टियां और उसके नेता इन सब चीजों से अनभिज्ञ हैं। लेकिन देश में जिस तरह का उन्माद खड़ा किया जा चुका है उसमें कांग्रेस से लेकर तमाम दल भयभीत हैं। इस मामले में लेफ्ट ने एक बार फिर न केवल सैद्धांतिक बल्कि व्यवहारिक तौर पर भी आगे आने का काम किया है। दरअसल लेफ्ट के लिए यह एक ऐसा मौका है जिसमें वह अपने संकटों से उबकर भारतीय राजनीति में छलांग लगा सकता है और कहीं चूका तो फिर उसके लिए कुछ बचेगा भी नहीं। अभी जो उन्माद दिख रहा है उसके पार भी चीजों को देखे जाने की जरूरत है। इस मामले में जम्मू-कश्मीर के लोगों का साथ आना तो तय ही है। बहुसंख्यक वर्चस्व की आशंका से भयभीत पूरा सिख समुदाय उसका नया सहारा बन सकता है।

उत्तर-पूर्व के लोग जो कमोवेश कश्मीर जैसी स्थितियों में रहने के लिए मजबूर हैं उसके पहले सहयोगी बनेंगे। हिमाचल से लेकर उत्तराखंड तक इस मुहिम में शामिल हो सकते हैं। इसके साथ ही दक्षिण भारत के लोग इसकी सबसे मजबूत नींव का काम करेंगे। लेकिन इसके लिए जरूरी होगा एक ऐसा व्यापक लोकतांत्रिक मोर्चा जिस पर इस तरह की सभी पार्टियां, संगठन, आंदोलन और व्यक्ति खड़ा हो सकें और अपने लिए भविष्य की संभावना तलाश सकें। भाजपा-संघ विरोधी यह मोर्चा देश में आने वाले दिनों का नया पोलिटिकल वेहिकल साबित हो सकता है। लेकिन सवाल यही है कि उसके लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है क्या लेफ्ट का नेतृत्व उसको देने के लिए तैयार है।

ऐसे में अगर कश्मीर का आंदोलन देश के व्यापक लोकतांत्रिक आंदोलन से नहीं जुड़ता है और वह स्थानीय स्तर तक सिमट कर रह जाता है तो आने वाले दिनों में उसके कोसवो, ईस्ट तिमोर और फिलीस्तीन की तरफ बढ़ने की गति तेज हो जाएगी। जिसमें पहले से ही नाक घुसेड़ने की कोशिश कर रहे ट्रंप और अमेरिका को नया मौका मिल जाएगा। चूंकि चीन का सीधा हित शामिल है ऐसे में भला वह कैसे पीछे रह सकता है? पाकिस्तान का तो आर्गेनिक रिश्ता है जिसे भारत भी मानता है। और फिर कश्मीर जो कि अभी महज दो देशों भारत औऱ पाकिस्तान के बीच का समला था वह अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के राजनीतिक खेल का नया मंच बन जाएगा।

अमेरिका, इजराइल और भारत की धुरी बनाने वालों को यह बात जरूर सोचनी चाहिए कि अमेरिका किसी का सगा नहीं है। और जहां भी गया जिसको मित्र बनाया फिर उसी को तबाह भी किया। यही उसका इतिहास है। ऐसे में अगर एक बार फिर अमेरिका की किसी भी स्तर पर हम दखलंदाजी मान लेते हैं तो उसकी कीमत इतनी भारी पड़ेगी जिसे चुका पाना पूरे देश के लिए मुश्किल होगा। और इस धुरी को बनाने की कड़ी में हम कहीं अपने सबसे विश्वसनीय और परंपरागत मित्र रूस को भी न खो दें जो हर मुसीबत के मौके पर आंख मूंद कर हमारा साथ देता रहा है। लेकिन मोदी सरकार की बेरुखी का ही नतीजा है कि उसे पाकिस्तान के साथ रफ्त-जफ्त करनी पड़ रही है। और यह सिलसिला अगर आगे बढ़ा तो यूएन में हमारे पक्ष में कोई खड़ा होने वाला नहीं मिलेगा।

महेंद्र मिश्र
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महेंद्र मिश्र