अब गांधी को बख्शा नहीं जाएगा

सर्वसेवा संघ बनारस के अस्तित्व को मिटाने की कोशिशें इनके वैचारिक क्रियाकलापों का हिस्सा है। यह कोई नई बात नहीं। नकारात्मक पूंजीवादी ताकतें शासन पर अपने एकाधिकारवाद को सुनिश्चित करने के लिए जनता को ध्रुवीकृत करने की कोशिशें करती ही रहती हैं, ताकि उनके अनैतिक कृत्यों के पुष्ट प्रतिरोध की संभावनाओं को खत्म किया जा सके। सर्वसेवा संघ वैचारिक उन्मुक्तता और सामाजिक सद्भाव के प्रसारण हेतु महत्वपूर्ण विमर्श को जनता के सामने लाने के लिए प्रतिबद्ध था। वह गांधी दर्शन और समसामयिक मुद्दों पर गंभीर लेखों का एक तरह से प्रकाशन केंद्र था। इसलिए एकाधिकारवादी ताकतों की आंखों में इसका खटकना स्वाभाविक था। ये हर उस व्यक्ति, संगठन और संस्था के विरोध में हैं जो सद्भाव की बातें करता है।

सद्भाव की राजनीति करने वाले इन्हें क्योंकर पसंद आने लगे। ये विभाजनकारी नीतियों के द्वारा जनता को उलझाए रखना चाहते हैं। सांप्रदायिक राजनीति इस दृष्टि से इनको ज्यादा फायदेमंद लगती है। एक जाति/धर्म के प्रति श्रेष्ठता की भावना अलगाववाद को पुष्ट आधार देती है। उलझा और बंटा हुआ मन कभी भी मुद्दों को गहराई से नहीं समझ सकता। पूंजीवादी ताकतें यूं ही नहीं सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लेती हैं। वे लोगों को गैरजरूरी मुद्दों में उलझाकर अपने मार्ग को निष्कंटक बनाना चाहती हैं। पूंजीवादी ताकतों और सांप्रदायिक ताकतों के गठजोड़ के गहरे निहितार्थ हैं।

गांधी और नेहरू इनके निशाने पर हमेशा से रहे हैं, क्योंकि वे समन्वयवादी समाज के आकांक्षी हैं। बस फर्क इतना है कि जो खेल नेहरू के साथ खुले तौर पर खेला जाता है, वही खेल महात्मा गांधी के साथ लुक-छिपकर। अर्थात जहां राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बात-बात पर नेहरू को खरी-खोटी सुनाई जाती है, वहीं गांधी को मौका देखकर। गांधी अभी भी दो अक्टूबर जैसे अवसरों पर याद कर लिए जाते हैं।

कहने का मतलब गांधी पर हमले यदा-कदा होते हैं, पर नेहरू पर खुलकर और प्रायः रोज ही। वजह यह कि गांधी पर हमले का कोई वैचारिक आधार नहीं मिल पाता है इन लोगों को। आखिर दलीय सीमाओं से परे उनके व्यक्तित्व पर आक्रमण हो भी तो कैसे हो। उनकी हत्या के बाद उसके दुष्परिणामों ने इनको अत्यधिक सतर्क कर दिया है। विरोधियों की दिक्कत यह भी है कि वे उन पर सत्तावादी होने का आरोप भी नहीं मढ़ सकते। इसलिए ले देकर वह गांधी पर मुस्लिम तुष्टिकरण का मिथ्या आरोप लगाते हैं। साथ ही ब्रह्मचर्य को लेकर भी गांधी का चरित्र हनन करते हैं। चर्चा चलने पर गांधी को अन्य राष्ट्रवादियों को फंसाने, उभरने न देने, उनके योगदान को खारिज करने वाले षड्यंत्रकारी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। 

बावजूद इन सबके इन कथित हिंदूवादी नव राष्ट्रवादियों की विवशता यह है कि विदेशों में उन्हें न चाहते हुए भी अपने इस चिर शत्रु के सामने सर झुकाना पड़ता है। लेकिन यह विवशता अपनी धरती पर उस मात्रा में नहीं है, जितनी विदेशी धरती पर है। यहां वे थोड़ी छूट ले ही लेते हैं। अब उनके पास अंधसमर्थकों की लंबी-चौड़ी फौज भी है, जो उनके द्वारा प्रचारित अफवाहों को वेदवाक्य मान श्रद्धा से ग्रहण करती है। सो यहां उन्होंने अपने कारिंदों को गांधी के चरित्र हनन के लिए लगा रखा है। मामला ज्यादा तूल पकड़ने पर सहज भाव से अपने प्रिय पात्र को दिल से न माफ़ करने की घोषणा भी कर दी जाती है।

बेचारे नेहरू को तो इतनी भी रियायत हासिल नहीं है। पूरे स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव से नेहरू को बाहर रखा गया। उनके बाल दिवस की स्मृति को धूमिल करने की नीयत से गुरु गोंविद सिंह के वीर पुत्रों की शहादत की स्मृति में “वीर बाल दिवस” के नाम से नए दिवस की घोषणा की गई। बेशक इनकी शहादत अविस्मरणीय है और भारत की गौरवपूर्ण बलिदानी परंपरा का स्वर्णिम अध्याय भी। उनकी याद में दिवस रखना स्वागतयोग्य है, पर सच बताएं तो द्वेष भावना से रखे गए इस नाम में उन वीर बालकों के त्याग-बलिदान का वह सर्वोच्च भाव ध्वनित ही नहीं हो पा रहा है, जिसके वे स्वाभाविक अधिकारी हैं। इस नाम में उनकी शहादत की स्मृति तो कौंधती ही नहीं। बालकों के सर्वोच्च बलिदान की स्मृति में सार्थक नामों की तलाश की जानी चाहिए थी।

ख़ैर, नेहरू चूंकि सत्ता के केंद्र में रहे हैं और स्वतंत्रता बाद कांग्रेस की वैचारिकी के मुख्य स्तम्भ भी, इसलिए स्वाभाविक है कि वे इनके मुख्य निशाने पर रहेंगे ही।

लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना कि कथित हिंदुत्ववादी संगठन गांधी के प्रति उदारमना हैं तो यह भारी भूल है।

वे गांधी को विवशता में पूजते हैं। भारी मन से गांधी की मूर्ति के सामने बैठकर चरखा चलाने का अभिनय करते हैं। जब वे भरी संसद में यह कहते हैं कि अगर गांधी पर कोई कायदे की मूवी बन जाती तो गांधी भी विश्व के लिए अपरिचित न होते। मने वे प्रकारांतर से यह बताना चाहते हैं कि गांधी की विश्व में उतनी प्रतिष्ठा नहीं है, जितनी कि लोग समझते हैं।

इसमें गांधी की वैश्विक प्रतिष्ठा को जानबूझकर अस्वीकार करने का भाव है। इस विचार सम्प्रदाय के लोग उनको राष्ट्रपिता कहने पर भी आपत्ति करते हैं। वे गांधी-नेहरू के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर स्थापित सुभाष बाबू की तो खूब प्रशंसा करते हैं, लेकिन सुभाष बाबू के द्वारा ही दिए गए नाम राष्ट्रपिता से उन्हें चिढ़ है। हालांकि प्रतिद्वंद्विता की स्थापना भी शरारतपूर्ण है। सही अर्थों में यह प्रतिद्वन्द्विता नहीं बल्कि वैचारिक स्वतंत्रता थी। वैचारिक विरोध को दुश्मनी की शक्ल देकर आसानी से अपने एजेंडे को सेट किया जा सकता है। इसीलिए भिन्न वैचारिकी के प्रतीक के रूप में इन्हें सुभाष और भगत सिंह प्रिय हैं अन्यथा वैचारिकी के स्तर पर तो ये सुभाष व भगत सिंह के भी धुर विरोधी हैं।

इनकी दिली इच्छा तो यह है कि ये किसी तरह गांधी को स्वतंत्रता आंदोलन का खलनायक सिद्ध कर सकें। यह अपनी उस नकारात्मक भूमिका से उपजे हीनभाव को छुपाने का भी उपक्रम है, जो खुद उनके संगठन द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन में निभाई गयी थी।

इन्हीं प्रवृत्तियों के चलते वे समय-समय पर ऐसा कुछ करते रहते हैं, जो गांधी-नेहरू की विरासत को चोट पहुंचा सके। अभी हाल ही में सर्व सेवा संघ को बुलडोज करना इसी प्रतिगामी सोच का परिणाम है। बताया गया कि यह इमारत रेलवे की जमीन का अतिक्रमण करके बनाई गई थी। इस इमारत से विनोबा भावे, जेपी और राजेंद्र प्रसाद की सदभावनाएं भी जुड़ी थीं। क्या रेलवे के लिए यह गौरव की बात नहीं थी कि वह एक राष्ट्रीय प्रतीक से जुड़ा है।

अफ्रीका के जिस स्टेशन पर गोरों ने गांधी को ट्रेन से बाहर फेंका था, वह स्टेशन आज गांधी की स्मृति को गर्व से संजोए है, पर गांधी के देश में गांधी से जुड़े प्रतिष्ठान को अतिक्रमण के रूप में देखा जाता है। और हम लोगों की नैतिक चेतना इतनी मर चुकी है कि हमें यह घटना झकझोरती ही नहीं। विडंबना है कि राम की भावभूमि पर रामराज्य की संकल्पना को जीने वाले एक महात्मा से जुड़े हर व्यक्ति, हर संस्थान को बख्शा नहीं जाता।

सर्वसेवा संघ, बनारस को बुलडोज करने के लिए उसे जबरन खाली करवा लिया गया। गांधी जी की मूर्ति, उनसे जुड़ी चीजें और गांधी दर्शन से सम्बंधित तमाम किताबें खुले आसमान के नीचे भारत की वर्तमान संतति के नए व्यवहार की साक्षी बन रही हैं। सर्वसेवा संघ की किताबें उसी तिरस्कृत व्यवहार का फिर से साक्षात्कार कर रही हैं जो कभी नालंदा पुस्तकालय की किताबों ने किया था, बस जलाना ही शेष रह गया था। बुद्ध के देश में असहिष्णुता का यह दौर… ईश्वर सद्बुद्धि दे!!!

(संजीव शुक्ल का लेख।)

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