किसान आंदोलन पर तीन जजों की पीठ का निर्णय क्या दो जजों की पीठ अमान्य कर सकती है ?

उच्चतम न्यायालय ने किसान महापंचायत बनाम भारत संघ मामले में सोमवार को सवाल उठाया कि क्या जो लोग केंद्र के कृषि कानूनों के खिलाफ हैं, वे कानूनों को चुनौती देने के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाने के बाद विरोध के अधिकार का दावा कर सकते हैं। जस्टिस खानविलकर और सीटी रविकुमार की पीठ ने किसान महापंचायत द्वारा जंतर-मंतर पर सत्याग्रह करने की अनुमति देने के लिए दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए सोमवार को आदेश दिया कि कि कोर्ट इस मुद्दे की जांच करेगा कि क्या मामला सब ज्यूडिस होने पर विरोध प्रदर्शन की अनुमति दी जा सकती है। सवाल यहाँ यह है कि किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान उच्चतम न्यायालय ने इसका संज्ञान लिया था न कि उच्चतम न्यायालय के स्टे के बाद किसान आंदोलन शुरू हुआ था , फिर उच्चतम न्यायालय ने तब किसान आंदोलन पर न्यायिक रोक भी नहीं लगायी थी।

न्यायालय इस मुद्दे की जांच करेगा कि क्या विरोध का अधिकार एक पूर्ण अधिकार है और क्या एक रिट याचिकाकर्ता ने पहले से ही कृषि कानूनों के खिलाफ रिट याचिका दायर करके कानूनी उपाय का आह्वान किया है, उसी मामले में विरोध का सहारा लेने की अनुमति दी जानी चाहिए जो सब ज्यूडिस है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सुप्रीम कोर्ट इस बात की जांच करना चाहती है कि क्या विरोध का अधिकार और कानून की वैधता को चुनौती देने का अधिकार परस्पर अनन्य प्रकृति का है। विशिष्ट मुद्दा संवैधानिक रूप से संरक्षित विरोध के अधिकार के दायरे और उसकी रूपरेखा और सीमाओं के महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है।

दरअसल दिल्ली की सीमाओं पर तीन कृषि-क़ानूनों के खिलाफ़ प्रदर्शन कर रहे किसान एक बार फिर उच्चतम न्यायालय की नाराज़गी के निशाने पर हैं । 30 सितंबर को मोनिका अग्रवाल इस शिकायत पर आधारित याचिका की सुनवाई करते हुए कि नोएडा जाने में उसे 20 मिनट की जगह 2 घंटे लग जाते हैं, उच्चतम न्यायालय के जस्टिस कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने कहा कि सार्वजनिक सड़कें और उच्च मार्ग हमेशा के लिए ब्लॉक नहीं किये जा सकते। इसके अगले ही दिन उच्चतम न्यायालय की जस्टिस खानविलकर और सीटी रविकुमार की पीठ ने किसानों के खिलाफ़ और भी तीखी राय व्यक्त की। इस पीठ के सामने याचिकाकर्ता के रूप में, जंतर मंतर पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन की इजाज़त मांगती किसान महापंचायत थी। पीठ ने कहा कि आप जब अदालत आ चुके हैं तब विरोध प्रदर्शन करने का कोई सवाल ही नहीं रह गया। आपने पूरे शहर का गला घोंट रखा है, और अब आप शहर में घुसना और यहाँ प्रदर्शन करना चाहते हैं।

दोनों पीठों की राय उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन चीफ जस्टिस एसए बोबडे,जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी रामासुब्रमण्यन की तीन-न्यायाधीश की पीठ की उस राय से बिल्कुल अलग है जब 17 दिसम्बर 2020 को इस पीठ ने कहा था कि किसानों को तब तक अपना विरोध जारी रखने का संवैधानिक अधिकार है जब तक उनकी असहमति हिंसा का रूप नहीं ले लेती। पीठ ने यह भी स्पष्ट किया था कि उच्चतम न्यायालय विचाराधीन विरोध-प्रदर्शन में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा ।

अब सवाल है कि जब तीन सदस्यीय पीठ ने कोई व्यवस्था दिया है तो दो जजों की पीठ को उससे संबंधित मामले को सुना ही नहीं जाना चाहिए और संबंधित मामलों को तीन सदस्यीय पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए चीफ जस्टिस एनवी रमना को संदर्भित कर दिया जाना चाहिए। निस्संदेह, विरोध का अधिकार मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है, और पब्लिक ऑर्डर/ सार्वजनिक सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए इस अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय स्वयं कई मामलों में व्यवस्था दे चुका है कि जो काम प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता उसे अप्रत्यक्ष रूप से भी नहीं किया जा सकता। इसलिए जब तीन जजों की पीठ ने यह स्पष्ट किया था कि उच्चतम न्यायालय विचाराधीन विरोध-प्रदर्शन में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा तो दो जजों की पीठ उच्चतम न्यायालय की किस परम्परा का पालन करते हुए अलग-अलग आवाजों में बोल रही है?

किसी ने यह आरोप नहीं लगाया है कि किसान सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा हैं। हरियाणा सरकार ने हरियाणा-दिल्ली बॉर्डर पर बैरिकेड्स लगाकर, उच्च मार्ग पर गड्ढे खोदकर और आँसू गैस, वाटर कैनन आदि के जरिए बल-प्रयोग करते हुए किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के प्रयास किये। संयुक्त किसान मोर्चा का दावा है कि विरोध शुरू होने के महज़ 87 दिनों के भीतर 248 किसानों की जानें गयीं। कुछ अपुष्ट रिपोर्ट्स में इनकी संख्या 600 से ऊपर बताई गई है। किसानों के हाथों मारे गए पुलिसकर्मी कितने हैं? खुशकिस्मती से, एक भी नहीं। यह दिखाता है कि किसानों का विरोध-प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहा है।

आज़ादी की लड़ाई के समय से सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शन और धरने की परंपरा रही है। निकट अतीत में अन्ना हज़ारे के इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन को जंतर मंतर के लिए इजाजत दी गई। रामदेव को रामलीला मैदान में धरने की इजाज़त मिली। किसान भी रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर इकट्ठा होने की इजाजत माँगते रहे हैं, लेकिन आज तक वह नहीं मिली। किसानों के साथ यह अलग बरताव क्यों? उन्हें क्या हवा में प्रदर्शन और मार्च करना चाहिए?

जहां तक रोड ब्लॉक की बात है तो किसानों ने बार-बार कहा है वे लोगों के लिए कोई असुविधा खड़ी करना नहीं चाहते। उनका आरोप है कि वह पुलिस है जो आंदोलन की छवि खराब करने के लिए कई जगहों पर घुसने और निकलने के पॉइंट्स को ब्लॉक कर रही है। क्या सर्वोच्च अदालत ने किसानों पर दोषारोपण करने से पहले इसकी जाँच की?

किसान आंदोलन से जुड़े योगेंद्र यादव ने उच्चतम न्यायालय की अप्रसन्नता पर स्पष्ट किया है कि गाजियाबाद में, सिंघु बॉर्डर पर, टीकरी में जाम के लिए जिम्मेदार कौन है? आप बॉर्डर पर जाकर देख लीजिए कि क्या किसानों ने बॉर्डर बंद किया है या पुलिस ने? ये सवाल मैंने नहीं जस्टिस बोबडे ने किया था । सिंघु बॉर्डर पर आकर देखिए एक नहीं तीन-तीन बैरीकेड्स हैं, खुदाई की हुई है, कीलें लगाई हैं, क्या ये किसानों ने किया है? हम मांग करते हैं कि पुलिस बैरीकेड्स खोल दे, क्यों नहीं पुलिस बैरीकेड्स खोल देती। सिंघु बॉर्डर पर दोनों तरफ नेशनल हाईवे हैं, दोनों तरफ सड़क खुली हुई है, लेकिन समस्या ये है कि वो सड़क टूटी हुई है, वहां केवल ट्रैक्टर ही चल सकते हैं, क्या इसके लिए भी किसान जिम्मेदार हैं? क्यों नहीं हरियाणा सरकार सड़क रिपेयर करवाती, वो सड़क दिल्ली में खुलनी चाहिए, वहां पुलिस ने क्यों बैरीकेड लगवाए हुए हैं? दिल्ली पुलिस कह रही है कि किसानों ने रास्ता रोका है, यदि दिल्ली पुलिस बैरीकेड्स खोल दे तो हमें कोई एतराज नहीं है।

अब यह माननीय न्यायाधीशों को तय करना है कि उनकी नज़र में एक यात्री की असुविधा को लेकर चिंता है पर किसानों को लेकर नहीं। किसानों के साथ उनकी कोई सहानुभूति क्यों नहीं है ? जबकि किसान लगभग एक साल से भयानक गर्मी, हड्डियों तक चुभती ठंड, बारिश, आंधी और तूफ़ान को झेल रहे हैं? सरकार ने किसानों को लावारिस छोड़ दिया है ।
उच्चतम न्यायालय का कहना है कि जब किसान अदालत में पहुँच चुके हैं तो विरोध-प्रदर्शन का औचित्य ही कहाँ है? किसान नवंबर 2020 से आन्दोलनरत हैं, और इसे राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय चर्चा मिली है।

लेकिन उच्चतम न्यायालय ने तीन कृषि क़ानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई में कोई तत्परता क्यों नहीं दिखाई है? कहते हैं कि उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित कमेटी ने मार्च 2021 में अपनी रिपोर्ट मुहरबंद लिफ़ाफ़े में उन्हें सौंप दी है। लेकिन उच्चतम न्यायालय की फाइलों ने वह रिपोर्ट दबी हुयी है? इसका संज्ञान उच्चतम न्यायालय क्यों नहीं ले रहा है?

गौरतलब है कि भारत का संविधान अनुच्छेद 19 के तहत शांतिपूर्ण विरोध के अधिकार की गारंटी देता है। यद्यपि ‘विरोध’ शब्द का संविधान में कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। 19 (1) (ए) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। 19 (1) (बी) शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार 19 (1) (सी) एसोसिएशन और यूनियन बनाने का अधिकार। एक साथ पढ़ें तो ये धाराएं ‘विरोध के अधिकार’ की रक्षा करती हैं। हालांकि, जैसा कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के कई निर्णयों में स्पष्ट किया गया है, यह सुरक्षा केवल शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों तक है। हिम्मतलाल के शाह बनाम पुलिस आयुक्त, (1973) 1 एससीसी 277 के ऐतिहासिक मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि सरकार कानून द्वारा हर सार्वजनिक सड़क या सार्वजनिक स्थान पर सभा को प्रतिबंधित करके विधानसभा के अधिकार को कम नहीं कर सकती है।रे रामलीला मैदान घटना बनाम गृह सचिव, भारत संघ और अन्य में, (20 12 )5 एससीसी 1 में उच्चतम न्यायालय ने माना कि नागरिकों को सभा और शांतिपूर्ण विरोध का मौलिक अधिकार है जिसे मनमाने ढंग से कार्यकारी या विधायी कार्रवाई से हटाया नहीं जा सकता है।

हालांकि, अन्य मौलिक अधिकारों की तरह, विरोध का अधिकार प्रकृति में पूर्ण नहीं है। यह कुछ “उचित प्रतिबंधों” के अधीन है। संविधान की धारा 19 (2) और (3) सरकार को भारत की संप्रभुता और अखंडता के हित, राज्य की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के आधार पर प्रतिबंध लगाने के लिए अधिकृत करती है। अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिए उकसाने के संबंध में।हाल ही में, अमित साहनी बनाम पुलिस आयुक्त, (2020) 10 एससीसी 439। (‘शाहीन बाग केस’) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना था कि सार्वजनिक स्थानों पर विरोध करने का अधिकार प्रकृति में पूर्ण नहीं है और सार्वजनिक स्थानों पर अनिश्चित काल तक कब्जा नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने आगे कहा कि “जबकि लोकतंत्र और असंतोष साथ-साथ चलते हैं, असहमति व्यक्त करने वाले प्रदर्शन अकेले निर्दिष्ट स्थान पर होने चाहिए”।

इस प्रकार, न्यायालयों ने, कई निर्णयों के माध्यम से, संविधान के तहत विरोध करने के अधिकार के दायरे और सीमा को चित्रित किया है। इसके बावजूद विरोध के मौलिक अधिकार के लिए उचित प्रतिबंध के रूप में सब ज्यूडिस शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

जेपी सिंह
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