राज करने वाले मर चुके हैं, जो चाहिए छीन कर लेना होगा: अरुंधति

(विश्व-प्रसिद्ध लेखिका, प्रखर विचारक और एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय कोरोना महामारी के दौर में दुनिया भर के सत्ता वर्ग द्वारा रचे गए षड्यंत्रों के ख़िलाफ़ लगातार मुखर हैं। वे लगातार लिख रही हैं, बोल रही हैं और सच्चाई को सीधे दर्ज़ करने वाले किसी रिपोर्टर की तरह मार खाए लोगों के बीच सीधे पहुंचती भी रही हैं। हाल ही में, उनका एक वीडियो ज़ारी हुआ है जिसमें वे देश और दुनिया में चल रही विनाशलीला और सत्ता वर्ग की क्रूरता का अफ़सोस के साथ ज़िक्र करती हैं और इंक़लाब की ज़रूरत पर बल देती हैं। इस वीडियो का फिल्मांकन और विभिन्न जन-छवियों का संपादन-संयोजन प्रतिबद्ध फ़िल्मकार तरुण भारतीय ने किया है। आप इस वीडियो को हिन्दी सब टाइटल्स के साथ यहाँ भी देख-सुन सकते हैं। वीडियो से अरुंधति के वक्तव्य का पाठ (हिन्दी अनुवाद) भी यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है-संपादक)

यह दिल्ली से (जारी) एक छोटा सा वीडियो है। 

हम सभी यहाँ कुछ साधारण सी मांगों के लिए जमा हुए हैं – सभी के लिए स्वास्थ्य सेवाएं, सभी के लिए भोजन, सभी के लिए एक निश्चित न्यूनतम आमदनी और सभी के लिए घर व शिक्षा।

हमें अगर यह सब मांगना पड़ रहा है तो हमें लगता है कि हमारा समाज कितना अमानवीय हो गया है। कभी-कभी सोचती हूँ कि आखिर हम ये मांगें किससे मांग रहे हैं। हम किससे फरियाद कर रहे हैं? क्या कोई हमारी सुन भी रहा है? कोविड-19 एक वायरस है। लेकिन, यह एक एक्सरे भी है जिसने यह साफ़ कर दिया है कि हमने अपनी पृथ्वी के साथ क्या किया है। तबाही को हम सभ्यता कहते हैं, लालच को सुख और भयानक अन्याय को नियति। लेकिन, अब यहाँ एक दरार पड़ गई है। एक विस्फोट, मानो एक जमा हुआ विस्फोट। एक विस्फोट के चीथड़े यहाँ-वहाँ हवा में लटक रहे हैं। पता नहीं, ये कहाँ जाकर गिरेंगे? करोड़ों लोगों को लॉकडाउन में बंद कर दिया गया। मुझे नहीं पता कि इतिहास में कभी ऐसा समय आया होगा जब पूरी दुनिया में एक साथ ऐसी सत्ता स्थापित हुई हो। यह बहुत चिंता की बात है।

कुछ देशों में बीमारी बहुत ही विनाशकारी रही, कुछ में इसका `इलाज` ही विनाश ला रहा है। लाखों-करोड़ों लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी हैं। यहाँ भारत में 138 करोड़ लोगों पर केवल चार घंटों का नोटिस देकर 55 दिनों का लॉकडाउन थोप दिया गया था। लाखों कामगार शहरों में फंसे हुए थे। खाने और छत के साये के बिना। घर लौटने के साधनों के बिना। तब उन्होंने अपने घरों की ओर कूच शुरू किया, अपने गाँवों की तरफ़ एक लंबा मार्च। रास्ते में बहुत से थकान से चल बसे, बहुत से गर्मी और भूख से। बहुत से सड़क हादसों में मारे गए। बहुतों पर जानवरों की तरह पकड़ कर ब्लीच स्प्रे किया गया। पुलिस ने उनकी पिटाई की और इस तरह कइयों को पुलिस ने पीट-पीट कर मार डाला। अपने गाँवों को लौट रहे इन लोगों का इंतज़ार वहाँ भी भूख और बेरोज़गारी कर रही है। यह मानवता के ख़िलाफ़ किया गया अपराध है। हमें इसका हिसाब चाहिए। 

लेकिन, आसमान तो साफ़ हो गया है। फ़िज़ा में चिड़ियों की चहचहाट है। जंगली जानवर शहर की सड़कों पर दिखने लगे हैं। धरती हमें याद दिला रही है कि उसके पास ख़ुद अपने उपचार के तरीक़े मौजूद हैं। यह महामारी दो दुनियाओं के बीच का दरवाज़ा है। सवाल है कि हम इस दरवाज़े के पार कैसे जाएंगे। क्या हम मर रहे हैं? या नया जन्म ले रहे हैं? बतौर एक इंसान, हम ज़िंदगी और मौत तो तय नहीं कर सकते। लेकिन, शायद मानव प्रजाति के तौर पर हम कुछ तो कर ही सकते हैं।

अगर हम एक नया जन्म ले रहे हैं या जन्म लेने की इच्छा रखते हैं तो हमें अपने गुस्से को विद्रोह का रूप देना होगा। उसे इंक़लाब तक ले जाना होगा। दान-दक्षिणा और परोपकार से काम नहीं चलेगा। चैरिटी ठीक है लेकिन वह आक्रोश को दया में बदल देती है। चैरिटी, लेने वाले को कमतर बना देती है और देने वाले में ताक़त का अभिमान पैदा करती है जो कि नहीं होना चाहिए। चैरिटी, सामाजिक ढांचे को जस का तस क़ायम रखती है।

हमारी फ़रियादें सुनने वाला कोई नहीं है। हम पर राज़ करने वाले मर्द कब के मर चुके हैं। उनके जबड़े भिंचे हुए हैं। हमें जो चाहिए, छीन कर लेना होगा या फिर लड़ते-लड़ते मर जाना होगा।   

अरुंधति रॉय
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अरुंधति रॉय