यूपी की तस्वीर-3: आज्ञापालक नागरिक, विभाजित समाज और डण्डे का लोकतंत्र

प्रदेश में राजनीति और लोकतंत्र की संस्कृति को बदलना होगा। यहां भी मुख्य विपक्षी दल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन सूत्र एक चालक अनुवर्तिता यानी एक नेता के अधिनायकत्व में चलते हैं। इसकी जगह सामूहिकता की संगठन संस्कृति और राजनीति को विकसित करना होगा। 1990 के बाद की अर्थनीति ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया, नौकरशाही और ताकतवर हुई, लोकतांत्रिक अधिकारों का दायरा सिमटता चला गया। सार्वजनिक सम्पत्ति जैसे चीनी मिल व सीमेंट उद्योग आदि को भारी कमीशन लेकर औने पौने दाम पर निजी पूंजीपतियों को बेच दिया गया। क्रमशः लोकतांत्रिक अधिकारों का क्षरण होता चला गया। 2017 के बाद स्थिति और बदतर हुई है। आज के दौर में सरकार की हर सम्भव कोशिश है कि नागरिकों को आज्ञापालक बनाया जाए, समाज में साम्प्रदायिक जहर घोला जाए और कानून के राज की जगह ‘ठोक दो’की प्रशासनिक संस्कृति विकसित की जाए।

अमूमन राजनीतिक गतिविधियों को ठप कर दिया गया है। शांतिपूर्ण धरने, प्रदर्शन, यात्रा और सम्मेलन तक की गतिविधियों पर किसी न किसी बहाने प्रतिबंध लगा दिया जाता है। संविधान के मूल तत्व न्याय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए पहल लेना सरकार की नजर में असंवैधानिक हो गया है।

साम्प्रदायिक राजनीति का सबसे बड़ा शिकार लोकतंत्र ही हुआ है। लोग राजनीतिक, सामाजिक कर्म से विमुख हो जाएं इसके लिए कठोर कानून बना दिए गए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अधिनियम 2020 है। यदि आप सरकार के आलोचक हैं तो आपको किसी आंदोलन में शरीक न होते हुए भी आंदोलन खड़ा करने के षडयंत्र के अभियुक्त के बतौर आईपीसी की धारा 120 बी के तहत गिरफ्तार कर महीनों जेल में रखा जा सकता है। शारीरिक प्रताड़ना और सार्वजनिक रूप से बदनाम करने के साथ ही आपकी सम्पत्ति को जब्त करने की कार्यवाही इस वसूली अधिनियम के तहत हो सकती है।

स्वतंत्र भारत में आंदोलन के दमन का यह एक नया हथियार है। इस तरह के कानून से नागरिक आमतौर पर भयभीत है। जिसका प्रभाव उनकी राजनीतिक सामाजिक गतिविधियों पर पड़ रहा है। रासुका, गुण्डा एक्ट, गैंगस्टर एक्ट जैसे काले कानूनों का भारी पैमाने पर दुरूपयोग हो रहा है। याद रहे नागरिकता आंदोलन के दौर में ऐसे नागरिकों को जिन्हें सरकार ने अभियुक्त घोषित कर दिया था, के फोटो सार्वजनिक स्थानों पर लगा दिए गए थे। जिसे उच्च न्यायालय ने भी अनुचित मानते हुए हटा देने का आदेश दिया था लेकिन न्यायालय के आदेश के बावजूद योगी आदित्यनाथ की सरकार ने उन्हें नहीं हटाया।

इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं और नागरिक अधिकारों के बारे में इस सरकार का क्या रूख है। लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करके और नागरिक अधिकारों की रक्षा करके ही प्रदेश में समावेशी विकास की गारंटी हो सकती है।

सामाजिक न्याय और पंचायती राज

सामाजिक न्याय के क्षेत्र में दो समुदाय आदिवासी और अति पिछड़ों का प्रतिनिधित्व अभी कम दिखता है। यदि कोल जाति को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल कर लिया जाए तो आदिवासियों की आबादी प्रदेश में लगभग 25 लाख हो जायेगी। यह विडम्बना है कि साढ़े सात लाख की आबादी वाले आदिवासी कोल को अभी तक जनजाति की सूची में शामिल नहीं किया गया। जिसकी वजह से संसद में प्रदेश से किसी भी आदिवासी का प्रतिनिधित्व नहीं है। नगर पंचायतों में इन्हें महज एक सीट दी गई है वह भी इटावा जिले के बकेवर नगर पंचायत में जहां एक भी आदिवासी नहीं है। दूसरी बड़ी आबादी अति पिछड़ों की है उनका भी प्रतिनिधित्व आबादी के हिसाब से नौकरियों और पंचायतों में कम है। उन्हें उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। पंचायतों में उनकी हिस्सेदारी की व्यवस्था बिहार माडल पर हो सकती है जिसमें अति पिछड़ों और महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व है। जातीय जनगणना प्रदेश सरकार को भी कराना चाहिए।

सत्ता का विकेन्द्रीकरण भी एक प्रमुख जनवादी मांग रही है। पंचायती राज व्यवस्था प्रदेश में जरूर कायम है लेकिन ये लोकतांत्रिक संस्थाएं नौकरशाही के भारी दबाव में हैं। जिला पंचायतों के अध्यक्ष और ब्लाक प्रमुखों के चुनाव में भारी पैमाने पर खरीद फरोख्त होती है। यहां भी सीधे मतदान हो और लोग चुने जाएं। पंचायतों का जनतंत्रीकरण और चुने हुए प्रतिनिधियों की संस्थाओं का पूर्ण वित्तीय अधिकार सुनिश्चित करना होगा।

बड़ी संख्या में अदालतों में मुकदमें लम्बित हैं और बिना ट्रायल के ढेर सारे लोग जेलों में बंद हैं। त्वरित और सस्ते न्याय के लिए न्यायिक व्यवस्था पंचायतों तक विकसित करना होगा और यदि मुकदमों का निस्तारण निचले स्तर पर न्यायिक पंचायतों से हो जाए तो सबसे बेहतर होगा।

इस समय पूरे प्रदेश का सकल राज्य घरेलू उत्पाद 20.48 लाख करोड़ है। उत्तर प्रदेश सरकार की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार एक ट्रिलियन डालर यानी 80 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य लेकर काम कर रही है। सरकार कहने को तो कुछ भी कह सकती है लेकिन सच्चाई यह है कि जिस ग्लोबल निवेश का सपना प्रदेश सरकार दिखा रही है उसमें न कोई प्रदेश में बड़ा निवेश करने आ रहा है और न ही उसके बूते प्रदेश की अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकता है।

यह तथ्य नोट करने लायक है कि दुनिया में मंदी का दौर चल रहा है और हमारा प्रदेश भी उससे प्रभावित है। मंदी से निपटने के लिए जरूरी है कि लोगों की आमदनी बढ़े जिससे उनकी खरीदने की क्षमता बढ़े यानी लोगों की क्रयशक्ति और बाजार में मांग बढ़ाई जाए। अर्थशास्त्र की भाषा में कहें तो कारपोरेट को मदद देने वाली सप्लाई साइड इकोनॉमी यानी आपूर्ति आधारित अर्थव्यवस्था से सरकार पीछे हटे, आम लोगों को राहत देने वाली डिमांड साइड इकोनॉमी यानी मांग बढ़ाने वाली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिले।

इसके लिए यह जरूरी है कि प्रदेश सरकार आर्थिक विकास की दिशा बदले। प्रदेश में रिक्त पड़े 6 लाख पदों को तत्काल भरा जाए और सरकार बेरोजगार लोगों के लिए नौकरी की गारंटी करे। कृषि, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग को बढ़ावा दे, किसानों की फसलों की समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी की जाए, सब्जी के रखरखाव के लिए स्टोरेज बनाया जाए, रोजगार पैदा किया जाए, व्यापारियों के जीएसटी में कमी लाई जाए, ई-कॉमर्स के बिजनेस का सही नियमन हो, डीजल-पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाया जाए, ठेका मजदूरों व मानदेय कर्मियों को वेतनमान दिया जाए, पुरानी पेंशन व्यवस्था बहाल की जाए और स्वास्थ्य, शिक्षा पर खर्च बढ़ाया जाए तो ठहरी हुई अर्थव्यवस्था में गति आ सकती है।

साथ ही सामाजिक राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध न लगाया जाए, काले कानून उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अधिनियम 2020 को रद्द किया जाए और आईपीसी की धारा 120 बी, रासुका, गैंगस्टर व गुण्ड़ा एक्ट का दुरूपयोग रोका जाए। सर्वोपरि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भाजपा साम्प्रदायिक आधार पर समाज का विभाजन बंद करें और सदियों से लोगों में बने मैत्री भाव को नष्ट न करें। तब बेहतर लोकतांत्रिक वातावरण में उत्तर प्रदेश भी अपने अंतर्निहित क्षमताओं को विकसित कर सकता है और हर क्षेत्र में देश में अग्रणी भूमिका निभा सकता है।

(अखिलेन्द्र प्रताप सिंह आईपीएफ के संस्थापक सदस्य हैं।)

अखिलेंद्र प्रताप सिंह
Published by
अखिलेंद्र प्रताप सिंह