पीएम मोदी का ताजा जुमला- ‘हम किसानों को उद्यमी बनाना चाहते हैं’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व केंद्रीय मंत्री बालासाहेब विखे पाटिल की आत्मकथा का विमोचन करते हुए कहा है कि, “उनकी सरकार आज किसानों को अन्नदाता की भूमिका से आगे ले जाकर ‘उद्यमी’ बनाने की ओर प्रयास कर रही है।” वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए आयोजित इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने विखे पाटिल का उल्लेख करते हुए, अपने संबोधन में कहा कि,” गांव, गरीब, किसान का जीवन आसान बनाना, उनके दुख, उनकी तकलीफ कम करना विखे पाटिल के जीवन का मूलमंत्र रहा। विखे पाटिल ने सत्ता और राजनीति के जरिए हमेशा समाज की भलाई का प्रयास किया।उन्होंने हमेशा इसी बात पर बल दिया कि राजनीति को समाज के सार्थक बदलाव का माध्यम कैसे बनाया जाए, गांव और गरीब की समस्याओं का समाधान कैसे हो।” 

किसान ‘अन्नदाता’ से ‘उद्यमी’ बनेंगे कैसे, इसका खुलासा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि, “उत्पादकता की चिंता में सरकारों का ध्यान किसानों के फायदे की ओर गया ही नहीं। उसकी आमदनी लोग भूल ही गए। लेकिन पहली बार इस सोच को बदला गया है। देश ने पहली बार किसान की आय की चिंता की है और उसकी आय बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयास किया है। “आगे वे कहते हैं, ” चाहे वह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लागू करने की बात हो या उसे बढ़ाने का फैसला, यूरिया की नीम कोटिंग हो या बेहतर फसल बीमा, सरकार ने किसानों की हर छोटी-छोटी परेशानियों को दूर करने की कोशिश की है। आज खेती को, किसान को अन्नदाता की भूमिका से आगे बढ़ाते हुए उसको उद्यमी बनाने की तरफ ले जाने के लिए अवसर तैयार किए जा रहे हैं। कोल्ड चेन, मेगा फ़ूड पार्क और एग्रो प्रोसेसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर पर भी अभूतपूर्व काम हुआ है। गांव के हाटों से लेकर बड़ी मंडियों के आधुनिकीकरण से भी किसानों को लाभ होने वाला है। “

हालांकि प्रधानमंत्री ने जिन-जिन बिन्दुओं का उल्लेख किया है अगर उन बिन्दुओं की गहन समीक्षा की जाए तो सरकार की नाकामी, चाहे वह फसल बीमा का वादा हो या मेगा फूड पार्क का या कोल्ड चेन का या एग्रो प्रोसेसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर का हर बिंदु में मिलेगी। इन पर अलग से समीक्षा की जाएगी। 

उनके हर भाषण की तरह यह विमोचन भाषण भी कर्ण प्रिय था। पर तीन किसान बिलों पर जिसका किसान विरोध कर रहे हैं, का उन्होंने कोई उल्लेख अपने भाषण में नहीं किया। या तो उन्होंने इन आंदोलनों और किसानों की व्यथा को गंभीरता से नहीं लिया या इसका कोई दलगत राजनीतिक कारण है, यह मैं स्पष्ट नहीं बता पाऊंगा। इन्हीं कानूनों में जमाखोरी को कैसे कानूनन वैधता दी गई, सरकारी मंडियों की तुलना में कैसे बड़े कॉरपोरेट और कंपनियों को अपनी मण्डियां बनाने की खुली छूट और अपनी मनमर्जी से किसानों से उनका उत्पाद खरीदने की स्वतंत्रता और कांट्रेक्ट फार्मिंग में कोई विवाद होने पर कैसे सरकार ने न्यायालय का रास्ता ही बंद कर दिया है, इस पर उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। सरकार के पिछले वादों का ट्रैक रिकॉर्ड यह बताता है कि यह भाषण भी काला धन लाने और अन्य जुमलों की फेहरिस्त में शुमार होकर अंततः ठंडे बस्ते में दफन होकर रह जायेगा। 

सरकार की मंशा अब साफ हो रही है। भारतीय जनता पार्टी, खेती किसानी के पक्ष में कभी रही ही नहीं। आज भी नहीं है। बीजेपी, खेती किसानी को जो एक समृद्ध ग्रामीण संस्कृति है, से हटा कर कृषि में उद्योगपतियों को लाना चाहती है और किसानों को मज़दूर बना कर शहरों में पटक देना चाहती है। वर्ल्ड बैंक की एक लंबी योजना है कि भारत की ग्रामीण आबादी कम हो और अधिकतर लोग शहरों में बस जाएं और वे या तो पूंजीपतियों के लिये सस्ते श्रम में बदल जाएं या दस-पंद्रह हजार रुपये के एक ऐसे मध्यवर्ग में तब्दील हो जाएं जो सुबह से लेकर शाम तक अपनी दुश्चिंताओं में ही व्यस्त रहें और किसी भी व्यापक परिवर्तन के बारे में सोच ही न सकें। 

वर्ल्ड बैंक लम्बे समय से इस एजेंडा पर काम कर रहा है। उसे यह पता है कि भारत की मरी-गिरी अर्थव्यवस्था को भारतीय कृषि की ऊर्जा और जिजीविषा, उसे पुनः खड़ी कर देती है और यही ऊर्जा देश को आत्मनिर्भर बना सकती है। अतः इस सेक्टर में अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट घुसना चाहते हैं और यह तीन किसान कानून, वर्ल्ड बैंक और कॉरपोरेट की चाल को कामयाब बनाने की ओर सरकार प्रायोजित एक कदम है। ऐसा नहीं कि वर्ल्ड बैंक का दबाव इसी सरकार पर पड़ रहा है। बल्कि यह दबाव पहले की सरकारों पर भी लगातार पड़ता रहा है। पर यह सरकार जितना अधिक आज  वर्ल्ड बैंक या अमेरिकी लॉबी के समक्ष नतमस्तक है, उतना पहले की सरकारें, कृषि सेक्टर के मामलों में नहीं रही हैं। 

आज किसान, जिसके पास थोड़ी बहुत ज़मीन भी है वह ज़मीन से जुड़े आत्मसम्मान पर गर्व करता है।1954 में जब ज़मींदारी उन्मूलन किया गया तो काश्तकार अपने भूमि के स्वामी हो गए और जो भी ज़मीन उनके हिस्से में आयी उससे वे जो भी अनाज या अन्य कोई कृषि उत्पाद, उपजा सकते हैं, उपजा रहे हैं। यह बात सही है कि खेती एक लाभदायक कार्य नहीं है पर केवल इसी एक तर्क पर तो खेती छोड़ कर किसान शहर में जाकर रिक्शा तो नहीं चलाने लगेगा। 

सरकार ने आज़ादी के बाद खेती किसानी के लिये बहुत से कार्य किये। तरह-तरह के कृषि विज्ञान से जुड़े संस्थान खोले गए, कृषि विश्वविद्यालय खुले, कृषि विज्ञान केन्दों की श्रृंखला खोली गयी, एक-एक उपज जैसे गन्ना, चावल, आलू, दलहन, शाकभाजी आदि के लिये अलग-अलग शोध केंद्र खोले गए और 1971 में हुई हरित क्रांति ने भारत के कृषि क्षेत्र की तकदीर बदल कर रख दी। न केवल अनाज बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी देश का उत्पादन बढ़ा और हरित क्रांति के बाद भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया। 

सरकार ने किसानों को प्रोत्साहन देने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रथा शुरू की। इसके लिये डॉ. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया जिसने एमएसपी के लिये एक तार्किक फॉर्मूला सरकार के समक्ष रखा। सभी सरकारों ने इस फॉर्मूले से सहमति प्रगट की और उसे लागू करने का आश्वासन भी दिया। पर इन सिफारिशों को लागू, किसी भी सरकार ने नहीं किया। न तो कांग्रेस की यूपीए सरकार ने और न ही भाजपा की एनडीए सरकार ने।

सरकारों की इसी वादाखिलाफी से आज किसान सशंकित हैं और इसीलिए जब प्रधानमंत्री बार-बार यह कह कर उन्हें आश्वस्त कर रहे हैं कि मण्डिया रहेंगी और एमएसपी पर खरीद जारी रहेगी तो वे इस पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं और वे सड़कों पर हैं तथा यह मांग कर रहे हैं कि इन आश्वासनों को एक संशोधन के ज़रिए उन कानूनों में जोड़ा जाए। सरकार ज़ुबानी तो कह रही है पर कानून में जोड़ने के नाम पर आनाकानी कर रही है। 

1991 के बाद सरकार की प्राथमिकताएं बदल गयीं। सरकार को कृषि पर मिलने वाली सब्सिडी फिजूलखर्ची लगने लगी। खुली अर्थव्यवस्था और वित्तीय सुधारों के नाम पर कृषि प्राथमिकता में नीचे होने लगी। खुली अर्थव्यवस्था और उदारीकरण पर आधारित वित्तीय सुधारों का लाभ भी हुआ और समृद्धि भी आई। पर यह विकास नगर केन्द्रित रहा और कृषि कर्म उपेक्षित होता गया। इसका एक बड़ा कारण उद्योगपतियों की बढ़ती संख्या और धनबल ने उन्हें एक सशक्त दबाव ग्रुप में बदल दिया और किसान, अनेक संगठनों के बावजूद असंगठित बने रहे। जनप्रतिनिधियों ने भी पूंजीपतियों का दामन थामा और किसान महज अन्नदाता का झुनझुना लिये पड़ा रहा। 

औद्योगीकरण ज़रूरी है पर वह कृषि की तुलना में कृषि से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था की एक मजबूत रीढ़ खेती है। इसीलिए यदि एक साल भी मानसून का क्रम बिगड़ता है तो वित्त मंत्रालय चिंता में पड़ आता है। आज जिस मांग की कमी सरकार महसूस कर रही है और एलटीसी के रूप में दस हज़ार रुपए अग्रिम देने का झांसा जिन शर्तों पर दे रही है उससे सरकार की बदहवासी साफ जाहिर है। आज बिगड़ी हुई अर्थव्यवस्था को सरकार भले ही कोरोना के मत्थे डाल दे पर वास्तविकता यह है कि 2016 की 8 नवम्बर को 8 बजे प्रधानमंत्री ने जिस नोटबन्दी के कदम की घोषणा की थी वह आज आर्थिक दुरवस्था के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार है। 

नोटबन्दी, अर्थव्यवस्था के पतन काल का वह प्रारंभ था। उस अभूतपूर्व मूर्खता भरे कदम के लिए सरकार का जो भी मंत्री या अफसर जिम्मेदार है उसे इतिहास में देश को पतनोन्मुख होने वाली अर्थव्यवस्था के लिये जिम्मेदार माना जायेगा। उसके बाद तो फिर अन्य गलतियां भी होती गईं। जैसे जीएसटी का बेहद अकुशल क्रियान्वयन, बिना सोचे समझे लॉकडाउन का निर्णय, जब कोरोना देश मे फैलने लगा था तब नमस्ते ट्रम्प का तमाशा हर योजना के केंद्र में केवल कुछ चुने हुए पूंजीपति घराने और आर्थिक नीति के नाम पर सरकारी सम्पदा का अतार्किक निजीकरण, कहने का आशय यह है कि आज आईएमएफ ने भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी बांग्लादेश से भी कम का आंकड़ा जारी किया है। 

2014 में सरकार जब से आयी है उसके चेतन में गिरोहबंद पूंजीवाद और अवचेतन में पाकिस्तान बसा हुआ है। गौरक्षा, लव जिहाद, धार्मिक मसले तो सरकार की प्राथमिकता में थे पर आर्थिक मसलों को सरकार ने कभी भी गवर्नेंस की प्राथमिकता में रखा ही नहीं। सिवाय इस भाषण के कि 2025 तक 5 ट्रिलियन की आर्थिकी हो जाएगी और 2022 तक किसानों की आय दुगुनी हो जाएगी। और आज कहा जा रहा है कि किसानों को सरकार उद्यमी बनाना चाहती है। जबकि हालत यह है कि किसान अपनी संस्कृति और ज़मीन बचा सकें तो यही बहुत है। 

बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार के अनुसार भारत दक्षिण एशिया में तीसरा सबसे गरीब देश होगा।

2020 में भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी बांग्लादेश से भी कम होगी। आईएमएफ के वर्ल्ड इकॉनोमिक आउटलुक (WEO) के अनुसार बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी डॉलर के मूल्य के अनुसार 2020 में 4% बढ़ कर 1,888 डॉलर हो जाएगी। भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी 10.5% नीचे गिर कर 1,877 डॉलर रह जायेगी। यह गिरावट पिछले चार साल में सबसे अधिक है। दोनो देशों के ये आंकड़े उनके चालू बाजार भाव के आधार पर निकाले गए हैं। इन आंकड़ों के अनुसार भारत दक्षिण एशिया में पाकिस्तान और नेपाल के बाद तीसरा सबसे गरीब देश हो जायेगा जबकि बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और मालदीव आर्थिक क्षेत्र में भारत से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। 

डब्ल्यूईओ (WEO) के आंकड़ों के अनुसार कोरोना महामारी का असर श्रीलंका के बाद सबसे अधिक भारत पर पड़ा है। इस वित्तीय वर्ष में श्रीलंका की प्रति व्यक्ति जीडीपी भी 4 % से नीचे गिरेगी। इसकी तुलना में नेपाल और भूटान की अर्थव्यवस्था में इस साल सुधार आएगा। WEO ने पाकिस्तान से जुड़े आंकड़े अभी जारी नहीं किये हैं। हालांकि अच्छी खबर यह भी है कि आईएमएफ ने 2021 में भारत की आर्थिकी में तेजी से वृद्धि की संभावना भी जताई है। 2021 में भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी बांग्लादेश से थोड़ी ऊपर हो सकती है। 

डॉलर के मूल्य के अनुसार 2021 में भारत की जीडीपी दर 8.2% बढ़ सकने की संभावना है। इसी अवधि में बांग्लादेश की जीडीपी दर के 5.4% होने की संभावना व्यक्त की गयी है। इस सम्भावित वृद्धि से भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी 2,030 डॉलर होगी जबकि बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी, 1990 डॉलर रहेगी। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, आईएमएफ ने कहा है कि 2020 में भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी, बांग्लादेश से भी नीचे जा सकती है। आईएमएफ की इस चेतावनी को गम्भीरता से लिया जाना चाहिए। 

सरकार अपनी आर्थिक नीतियों में बुरी तरह विफल हो रही है। फिलहाल सरकार के पास न तो कोई आर्थिक सोच है और न ही कोई ऐसी योजना है, जिससे तरक़्क़ी की राह दिखे। ऐसी आलमे बदहवासी में हर आर्थिक दुरवस्था का एक ही उपाय सरकार की समझ मे आता है, निजीकरण यानी देश की संपदा को अपने चहेते गिरोही पूंजीपतियों को औने-पौने दाम पर बेच देना और जब विरोध के स्वर उठें तो विभाजनकारी एजेंडे पर आ जाना। सरकार को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि को ऐसे दबाव और पूंजीवादी गिरोहबंदी से बचा कर रखना होगा अन्यथा देश आर्थिक रूप से अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट का ग़ुलाम बन कर रह जायेगा। भारतीय कॉरपोरेट भले ही आज सामने दिखे, पर अंततः व्यापार में बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को निगलने का सिद्धांत पूंजीवाद का मूल चरित्र है। सरकार को अपनी आर्थिक नीतियों, श्रम कानून, औद्योगिक नीतियों और कृषि नीतियों की समीक्षा करनी होगी अन्यथा हम अंतर्राष्ट्रीय कॉरपोरेट के लिये एक चारागाह बन कर रह जाएंगे। 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

विजय शंकर सिंह
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