आकस्मिक घटना नहीं है महाराष्ट्र का सियासी भूचाल

जुलाई, 2023 के पहले रविवार को महाराष्ट्र में आया सियासी-भूचाल आकस्मिक घटना नहीं है। यह चलताऊ या पारम्परिक क़िस्म का दलबदल भी नहीं है। इसके पीछे सिर्फ़ कुर्सी हासिल करने की लिप्सा नहीं है, जैसा पिछले दशकों में हम हरियाणा, बिहार, आंध्र प्रदेश या देश के दूसरे प्रदेशों में देखा करते थे। दरअसल, यह ‘न्यू इंडिया’ में हो रहे दल-बदल के सियासी भूचालों में अब तक का सबसे बड़ा भूचाल है, जिसे प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह की रहनुमाई वाली ‘न्यू बीजेपी’ ने बहुत सुनियोजित ढंग से अंजाम दिया।

अचरज की बात यह है कि जिन ‘मराठा-महाबली’ कहे जाने वाले शरद पवार की पार्टी-एनसीपी इस भूचाल से बुरी तरह दरक गई, उन्होंने इस घटना पर बहुत संयत, सर्द और शांत भाव से अपनी प्रतिक्रिया दी। उनकी सुपुत्री और पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सुप्रिया सुले की प्रतिक्रिया तो राजनीतिक से ज़्यादा घरेलू क़िस्म की थी, जब उन्होंने कहा कि दादा यानी पार्टी को तोड़ने वाले अजित पवार के साथ उनके बहन-भाई के रिश्ते कभी प्रभावित नहीं होंगे।

अब से चालीस साल पहले जब हम पत्रकारिता में आये तो हमारे एक संपादक अक्सर हमें बताया करते थे कि जिस स्टोरी में पॉलिटिक्स, क्राइम, कैश और सेक्स हो; उसे पहले पेज पर जाने से कोई रोक नहीं सकता। स्टोरी प्रांतीय या राष्ट्रीय फलक की है तो वह अख़बार की लीड स्टोरी भी बन सकती है। लेकिन महाराष्ट्र की मौजूदा स्टोरी में सेक्स, क्राइम या कैश का कोई सीधा पहलू भले न हो पर वह पॉलिटिक्स के साथ कॉरपोरेट के जुड़ने से बहुत बड़ी स्टोरी यानी सुपर लीड बन गई है।

पर यह स्टोरी चालीस साल बाद की है, इसलिए रविवार दोपहर से रात तक जो कुछ टेलीविज़न पर दिखाया गया, उसमें कॉरपोरेट की कहीं चर्चा तक नहीं थी। सोमवार के ज़्यादातर अख़बारों में भी मैंने इसका ज़िक्र कहीं नहीं देखा। पर यकीनन इसमें जितनी दलीय-राजनीति है, उससे कहीं ज़्यादा कॉरपोरेट का सियासी खेल है।

संयोग देखिये, पिछले साल एकनाथ शिंदे की अगुवाई में शिवसेना का भाजपा-प्रेरित बहुचर्चित दल-बदल भी जुलाई महीने में ही हुआ था। कई दिन चले सियासी ड्रामे के बाद मुंबई में नयी सरकार का शपथ ग्रहण हुआ। भाजपा-शिवसेना (शिंदे) की शिंदे-फडणवीस सरकार को अपनी स्थिरता या निरंतरता के लिए किसी अन्य दल या विधायकों के समूह की ज़रूरत नहीं थी। फिर भी जुलाई, 2023 में ऐसा बड़ा दल-बदल प्रायोजित हुआ।

दरअसल, यह सिर्फ़ महाराष्ट्र के लिए नहीं, पूरे देश की सत्ता-राजनीति के वास्ते किया-कराया गया। महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन पिछले साल सत्ता से बाहर ज़रूर हुआ था पर ज़मीनी स्तर पर कांग्रेस-शिवसेना (उद्धव)-एनसीपी के महाराष्ट्र विकास अघाड़ी का आधार बहुत मज़बूत था। अगर अपने उसी रूप में यह गठबंधन संसदीय चुनाव में भाजपा को चुनौती देता तो महाराष्ट्र में भाजपा अपने निकटतम प्रतिद्वन्द्वी महाराष्ट्र विकास अघाड़ी से बहुत पीछे रह जाती।

पिछले दिनों कुछ मराठी अख़बारों ने जो सर्वे कराये थे, उनमें अघाड़ी को भाजपा-शिंदे सेना गठबंधन से बहुत आगे दिखाया गया था। एक सर्वे ने बताया कि आज अगर लोकसभा चुनाव होते हैं तो भाजपा-शिंदे सेना गठबंधन को 38 फीसदी और कांग्रेस-उद्धव सेना-एनसीपी के अघाड़ी को 45 फ़ीसदी वोट मिलेंगे।

इसी तरह का आकलन और अंदाज भाजपा के थिंक टैंक का भी था। इसके मद्देनज़र भाजपा काफ़ी समय से 48 संसदीय सीटों वाले महाराष्ट्र में कुछ करने-कराने पर विचार कर रही थी। समझा जाता है कि इसके लिए निकट अतीत के दो-तीन राजनीतिक प्रयोगों को आज़माया गया। पहला प्रयोग था- शिवसेना में पिछले साल के दलबदल का और दूसरा था- सन 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और उनके परिवार में राजनीतिक-विभाजन का।

यूपी और महाराष्ट्र के दोनों नेताओं- क्रमशः मुलायम सिंह यादव और शरद पवार के बीच कई साम्य भी हैं। अगर (दिवंगत) मुलायम सिंह यादव का सैफ़ई कुनबा अपने राजनीतिक-आर्थिक दबदबे के कारण प्रभावी और विवादास्पद रहा है तो महाराष्ट्र में पवार का ख़ानदान भी अपने सियासी और अकूत आर्थिक दबदबे के कारण जितना प्रभावशाली रहा उससे कुछ कम विवादास्पद भी नहीं रहा। मुलायम सिंह के जीवन काल में ही उनके छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव ने जिस तरह 2017 में एक प्रायोजित विद्रोह किया, वह जितना नाटकीय था, उससे कहीं ज़्यादा अविश्वसनीय था।

समाजवादी पार्टी के अनेक ‘इनसाइडर’ बताते हैं कि शिवपाल सपने में भी अपने बड़े भाई मुलायम के ख़िलाफ़ कोई कदम उठाने के बारे में नहीं सोच सकते थे। लेकिन उन्होंने बाक़ायदा ‘विद्रोह’ किया और अपना अलग गुट बना लिया। सपा ने जिस तरह चुनाव लड़ा, वह देखने लायक़ था। लगता था, वह पहले से ही हारने का मन बना चुकी है। भाजपा ने सपा को आसानी से हराकर 2017 में प्रदेश की सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाया और 2019 के संसदीय चुनाव में भी उसे अभूतपूर्व कामयाबी मिली। यूपी की कुल 80 सीटों में उसे 62 सीटें हासिल हुईं।

यह महज संयोग नहीं कि विपक्षी खेमे में बैठने और शुमार किये जाने वाले मुलायम सिंह यादव ने संसदीय चुनाव से कुछ ही महीने पहले लोकसभा के सत्र में प्रधानमंत्री मोदी को 2019 के चुनाव में जीतने और फिर से देश का प्रधानमंत्री बनने की बधाई दी थी। राजनीतिक व्यक्तित्व और कॉरपोरेट से निकटता के मामले में शरद पवार और मुलायम सिंह के बीच काफ़ी समानता है। महाराष्ट्र की राजनीति के दिग्गज होने के नाते कॉरपोरेट घरानों से उनकी निकटता मुलायम सिंह से कई गुना ज़्यादा है। यह कोई छुपी बात नहीं।

अभी पिछले ही दिनों देश के सर्वाधिक विवादास्पद और प्रधानमंत्री मोदी के अत्यंत निकटस्थ कॉरपोरेट-पति माने जाने वाले गौतम अडानी ने पवार से उनके मुंबई स्थित बंगले सिल्वर ओक आकर लंबी मुलाक़ात की थी। तभी से अटकलें लगने लगी थीं कि देश या प्रदेश की राजनीति में कुछ न कुछ ज़रूर घटने वाला है। इसके कुछ ही समय बाद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर भतीजे अजित पवार को पार्टी के अंदर लगभग ‘पावर-लेस’ कर दिया। कौन जाने यह सब कुछ वास्तविक था या किसी अन्य बड़ी घटना को अंजाम देने का ज़रिया भर था।

नाराज़ चल रहे अजित पवार ने अंततः 2 जुलाई को शिंदे-फडणवीस सरकार में उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यही नहीं, शरद पवार के बेहद नज़दीकी तीन नेताओं- प्रफुल पटेल और छगन भुजबल के साथ बैठकर अजित पवार ने प्रेस कांफ्रेंस की। जो 9 एनसीपी नेता मंत्री बने हैं, उनमें भुजबल के अलावा दिलीप वल्से पाटिल जैसे शरद पवार के अति-निकटस्थ नेता भी शामिल हैं। हो सकता है, प्रफुल पटेल केंद्र में मंत्री बनें। एनसीपी के 9 मंत्रियों में 4 पर ईडी या करप्शन ब्यूरो के मामले लंबित हैं। इनमें एक नवनियुक्त मंत्री हसन मुशरिफ तो कुछ दिन पहले तक अपनी गिरफ़्तारी से बचाने की कोशिश में जुटे हुए थे।

भाजपा और केंद्र सरकार के नेतृत्व ने 48 संसदीय सीटों वाले महाराष्ट्र में दल-बदल या पार्टी-हड़प के इस ख़ास राजनीतिक प्रयोग से अपना सिरदर्द काफ़ी कुछ कम किया है। कुछ महीने के अंदर महाराष्ट्र में एनसीपी को फिर से पुनर्गठित कर पाना 82 वर्षीय शरद पवार के लिए आसान नहीं होगा। सुप्रिया सुले उनकी अच्छी बेटी हैं पर राजनीतिक स्तर पर वह महाराष्ट्र में अच्छी संगठक नहीं मानी जाती हैं। उनके पास शरद या अजित पवार जैसा कौशल नहीं है। वैसे भी राजनीतिक दल में नया नेतृत्व विकसित करने में वक़्त लगता है।

अचरज की बात है कि 2 जुलाई को अपने चाचा की पार्टी में बग़ावत का झंडा फहराने वाले और मंत्री पद की शपथ वाले अजित पवार के घर पर उस दिन सुबह पार्टी नेताओं की जो बैठक हुई थी, उसमें सुले भी कुछ समय तक मौजूद रहीं। क्या उन्हें अपने चचेरे भाई की राजनीतिक योजना का पता नहीं था? क्या शरद पवार जैसे घाघ मराठा-महाबली को भी इसका अंदाज नहीं था कि उनकी पार्टी में क्या कुछ होने वाला है।

फिलहाल, अजित पवार ने एनसीपी के 40 विधायकों के समर्थन का दावा करके अपने चाचा को एक और चुनौती दे डाली है। ऐसे में शरद पवार अपनी पार्टी का नाम और निशान अपने पास कैसे रख पायेंगे? पवार परिवार में शक्ति के दो केंद्र हो गये हैं। शरद पवार के पास विधायकों की कितनी संख्या बचती है; इसका पता दो-तीन दिन में चल जायेगा। देर-सबेर अजित की विद्रोह-कथा की असलियत और परिवार की भावी रणनीति भी पता चल जायेगी। इस पर तर्क-वितर्क चलते रहेंगे पर मोदी-शाह ने जिस तरह महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य और चुनावी समीकरणों को अपने एक ही दांव से पलट डाला है, विपक्ष के पास फ़िलहाल उसकी कोई काट नहीं नज़र आ रही है।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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