अंग्रेजों के बनाए कानूनों से मुक्ति के नाम पर सरकार ने पेश किए उनसे भी ज्यादा कड़े कानून

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नई दिल्ली। 11 अगस्त 2023 तक मानसून सत्र का संध्याकाल आ गया था। मणिपुर पर विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर 3 दिन की चर्चा के बाद पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और महिला एवं बाल कल्याण मंत्री स्मृति ईरानी ने लगभग एक तिहाई समय तक अपना वक्तव्य रखा और सरकार के दो कार्यकाल की उपलब्धियां दुहरा डालीं, लेकिन मणिपुर राज्य और वहां के लोगों के लिए न्याय और आशा की उम्मीद नहीं आई। विपक्ष देश के सामने मोदी सरकार की जैसी छवि दिखाना चाहता था, संभवतः उसमें कामयाब रहा।

लेकिन सरकार भी जो चाहती थी, उसे हासिल करने में कामयाब रही। न सिर्फ सफल रही बल्कि उसे अभूतपूर्व सफलता हासिल हुई है। ऐसे-ऐसे बिलों को मानसून सत्र में पेश किया गया, जिन पर घमासान होना तय था, और सरकार को इन्हें पारित करा पाने में काफी पसीना बहाना पड़ता। लेकिन संसदीय परंपराओं और गंभीर विषयों पर चर्चा और 140 करोड़ नागरिकों को इंसान समझने की संवेदना शायद अब उस सर्वोच्च जन-अदालत में नहीं रही, जिसे स्वयं हर 5 वर्ष में वह चुनकर भेजती आई है।

लेकिन अविश्वास प्रस्ताव के तीसरे दिन और सत्र के अवसान के दिन सरकार ने अचानक से 4 नए बिल सदन में पेश कर सारे देश को चौंका दिया।

मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें एवं कार्यकाल की अवधि) विधेयक 2023 को 10 अगस्त 2023 को राज्यसभा में पेश किया गया। इस विधेयक को पेश कर मोदी सरकार ने विपक्षी दलों को पूरी तरह से हक्का-बक्का कर दिया। अभी तक विपक्षी दल और देश का मीडिया अविश्वास मत की बहसों में उलझा हुआ था, और देश हिसाब लगा रहा था कि किस दल और किस नेता ने मणिपुर के मसले को कितनी गंभीरता से उठाया है और अविश्वास प्रस्ताव पर सत्तापक्ष ने कैसे अपना बचाव या बहस को दूसरी दिशा मोड़ने में सफलता हासिल की या नहीं की है।

ये आकलन पूरा होता उससे पहले ही उन्हें एक झटका देते हुए सरकार ने चयन प्रक्रिया से देश के मुख्य न्यायाधीश को बाहर कर, प्रधानमंत्री, पीएम द्वारा मनोनीत एक केंद्रीय मंत्री और मुख्य विपक्षी दल के नेता के साथ कुल 3 वोट के आधार पर सीईसी की नियुक्ति वाला विधेयक सदन में पेश कर दिया। प्रस्तावित विधेयक 2:1 के फैसले से हर हार हाल में सरकारी नुमाइंदे को ही सीईसी के रूप में नियुक्ति के प्रयोजन को पूरा करता है। 

चुनाव आयोग: संविधान के अनुच्छेद 324 के मुतबिक, चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) सहित उतने ही अन्य चुनाव आयुक्तों (ईसी) का प्रावधान है, जितना राष्ट्रपति तय कर सकते हैं। सीईसी एवं अन्य ईसी की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। विधेयक चुनाव आयोग की समान संरचना को निर्दिष्ट करता है, जिसमें कहा गया है कि सीईसी एवं अन्य ईसी की नियुक्ति चयन समिति की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। सीईसी की चयन समिति में (i) अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री, (ii) सदस्य के रूप में लोकसभा में विपक्ष के नेता और (iii) प्रधानमंत्री द्वारा सदस्य के रूप में नामित एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री होंगे। यदि लोकसभा में विपक्ष के नेता को मान्यता नहीं दी गई है, तो लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता यह भूमिका निभाएगा।

सर्च कमेटी: इस कमेटी का काम चयन समिति के सामने पांच व्यक्तियों का एक पैनल रखने का होगा। सर्च कमेटी की अध्यक्षता कैबिनेट सचिव करेंगे। इसमें केंद्र सरकार के सचिव स्तर तक के दो अन्य सदस्य होंगे, जिनके पास चुनाव से संबंधित मामलों का ज्ञान और अनुभव होगा। सीईसी और ईसी की पात्रता के लिए केंद्र सरकार के सचिव के पद के बराबर पद रह चुके व्यक्ति का होना आवश्यक है। ऐसे व्यक्तियों को चुनाव प्रबंधन और उसके संचालन में विशेषज्ञता होनी चाहिए।

लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं होती। इस नई सिलेक्शन कमेटी के पास उन अभ्यर्थियों की भी नियुक्ति करने का अधिकार है, जिन्हें सर्च कमेटी द्वारा तैयार पैनल में शामिल नहीं किया गया है। इसका अर्थ है पीएम, विपक्षी नेता और केंद्रीय मंत्री वाली इस चयन समिति को पैनल के सबसे योग्य, अनुभवी और सचिव स्तर के प्रशासनिक अधिकारी पसंद न आयें तो वे बाहर से भी अपने मनपसंद व्यक्ति को मुख्य चुनाव आयुक्त अथवा चुनाव आयुक्त चुन सकते हैं। अब दो वोट सरकार के और एक विपक्ष का होगा, नतीजा बताने की जरूरत नहीं है।

कहना न होगा कि सरकार ने अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं। अभी तक सीईसी की नियुक्ति के लिए प्रावधान था कि प्रधानमंत्री, विपक्षी दल के नेता के अलावा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पैनल को इसका अख्तियार था। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि जब तक सरकार बिल पारित नहीं कराती, तब तक इसी आधार पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होगी। सरकार ने कहा ठीक है, और मोदी सरकार विधेयक ले आई। सरकार को इस बात की जरा भी परवाह नहीं रही कि यह साफ़-साफ़ अलोकतांत्रिक फैसला होगा।

दुनिया में लोकतंत्र को बहाल रखने के लिए पहली शर्त ही यही होती है कि निष्पक्ष और स्वतंत्र ढंग से चुनाव कराये जायें। यह तभी संभव है जब चुनाव संपन्न कराने वाले अधिकारी को लेकर पक्ष-विपक्ष दोनों के मन में कोई संशय न हो। एक बार को मान भी लिया जाए कि मुख्य न्यायाधीश को इसमें शामिल नहीं किया गया है तो कोई बात नहीं, लेकिन सीईसी की नियुक्ति 2:1 के बजाय हर हाल में सर्वसम्मति से की जानी चाहिए। वरना यह तो बंदर के हाथ में रोटी बराबर-बराबर बांटने वाली बात हो जायेगी, जिसका अंत भारतीय लोकतंत्र के सर्वनाश पर ही जाकर खत्म होगा।

लेकिन बात यही तक सीमित रहती तो भी गनीमत थी। 11 अगस्त को फिर एक बार सदन खत्म होने से पहले लोकसभा में गृहमंत्री अमित शाह ने तीन बिल 1- भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) विधेयक, 2023, 2- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) विधेयक, 2023; और 3- भारतीय साक्ष्य (बीएस) विधेयक, 2023  पेश किये। इन्हें फिलहाल स्टैंडिंग कमेटी में भेज दिया गया है, और उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार 2024 चुनाव से पहले इन सभी विधेयकों को दोनों सदनों से पास कराकर क़ानूनी शक्ल दे देगी। इसके फायदा-नुकसान का आकलन तो असल में लागू होने पर ही पता चलेगा, लेकिन कानून के कुछ जानकारों की टिप्पणी इस विषय में जानना जरूरी है। 

पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने प्रस्तावित भारतीय न्याय संहिता विधेयक, जिसे औपनिवेशिक काल के भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का स्थानापन्न बताया जा रहा है, पर अपनी टिप्पणी में कहा है कि यह विधेयक “राजनीतिक उद्देश्यों के लिए क्रूर पुलिस शक्तियों” के उपयोग की अनुमति प्रदान करता है। कपिल सिब्बल ने यह भी दावा किया है कि ऐसे कानून लाने के पीछे सरकार का एजेंडा अपने “विरोधियों को चुप कराना” है।

केंद्र ने शुक्रवार को लोकसभा में आईपीसी, आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को बदलने के लिए जिन तीन विधेयकों को पेश किया है, उनमें अन्य बातों के अलावा राजद्रोह कानून को निरस्त करने और अपराध की व्यापक परिभाषा के साथ नए प्रावधानों को प्रस्तावित किया गया है।

एक ट्वीट में, राज्यसभा सांसद सिब्बल ने कहा, “भारतीय न्याय संहिता (2023) (बीएनएस) राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कठोर पुलिस शक्तियों का उपयोग करने की अनुमति देता है। प्रस्तावित विधेयक 15 से 60 या 90 दिनों तक की पुलिस हिरासत की अनुमति देता है। राज्य की सुरक्षा को खतरा पहुंचाने वाले व्यक्तियों पर मुकदमा चलाने के लिए नए-नए अपराध की खोज। जबकि एजेंडा: विरोधियों को खामोश कराना।”

भारतीय न्याय संहिता (2023) (बीएनएस) और आईपीसी में कई साम्य हैं, लेकिन धाराओं को बदल दिया गया है। दक्षिण के राज्यों से भी आवाज आ रही है कि तीनों विधेयकों को हिंदी पहचान के साथ पेश किया गया है, जिसे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री सहित कई लोग ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ की संज्ञा दे रहे हैं।

डीएमके से राज्यसभा सांसद और सीनियर वकील पी.विल्सन ने अपने ट्वीट में कहा है, “नए आईपीसी, सीआरपीसी और साक्ष्य अधिनियम के नाम हिंदी में देखकर चौंक गया। शायद माननीय केंद्रीय गृहमंत्री ने भारत के संविधान की धारा 348 नहीं देखी? विधेयकों एवं अधिनियमों के नाम अंग्रेजी में होने चाहिए। यह हिंदी थोपने का एक और तरीका है। दक्षिण भारत के वकील इन नामों का उच्चारण करने में ही अपना अधिकांश समय अदालतों में व्यर्थ कर देते हैं।”

विल्सन ने कहा कि “इससे पहले, जब केंद्र सरकार ने संसद में हिंदी नाम के साथ एक कानून पेश करने की कोशिश की थी, तो मैंने उसका और माननीय मंत्री का विरोध किया था। केंद्रीय वित्तमंत्री ने स्पष्ट किया था कि विधेयक का नाम केवल अंग्रेजी में था लेकिन हिंदी भाग कोष्ठक में होना चाहिए। अब इन 3 विधेयकों के मामले में नाम पूरी तरह से हिंदी में है। इसे तुरंत ठीक किया जाना चाहिए।”

भारतीय न्याय संहिता (2023) विधेयक में मानहानि और आत्महत्या के प्रयास सहित मौजूदा प्रावधानों में कुछ बदलावों का प्रावधान किया गया है, और यह महिलाओं के साथ “धोखाधड़ी कर” यौन संबंध बनाने से संबंधित अपराधों के दायरे का विस्तार करता है। आईपीसी की धारा 499 मानहानि से संबंधित है, जिसके तहत गुजरात की एक अदालत ने राहुल गांधी को दोषी करार देकर दो साल की जेल की सजा सुनाई थी। मानहानि को इस प्रकार परिभाषित करता है:

प्रस्तावित नई संहिता में धारा 499 नहीं है। मानहानि का अपराध नई संहिता की धारा 354 (1) के अंतर्गत आता है। प्रस्तावित संहिता की धारा 354(2) मानहानि के लिए दंड का वर्णन करती है, और इसमें “सामुदायिक सेवा” भी शामिल है। इसमें कहा गया है: “जो कोई भी दूसरे की मानहानि करेगा, उसे साधारण कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसे दो साल तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माना, या दोनों या सामुदायिक सेवा से दंडित किया जा सकता है।”

इसी तरह आईपीसी की विभिन्न धाराओं में प्रचलित दफा को बदलकर सिर्फ पुरानी बोतल में नई शराब उड़ेली गई है, मूल स्वरूप जस का तस या कुछ मामलों में और सख्त बनाया गया है। आईपीसी की धाराओं में हत्या के लिए “दफा 302”, धोखाधड़ी के लिए “420”, या बलात्कार के लिए “376” जो इन अपराधों के लिए लागू थीं, अब प्रस्तावित विधेयक में इन्हें अलग धाराओं से जाना जायेगा।

आईपीसी की धारा 420 (“धोखाधड़ी और बेईमानी से संपत्ति हासिल करना) जिसके लिए दंड का प्रावधान था, जिसमें अधिकतम सात साल तक की सजा और जुर्माना लगाने का प्रावधान है, को अपराध की धारा 316 के अंतर्गत कर दिया गया है।

आईपीसी की धारा 124ए में कहा गया है: “जो कोई भी शब्दों के माध्यम से, मौखिक या लिखित, या संकेतों के माध्यम से, या दृश्य प्रतिनिधित्व के द्वारा, या किसी अन्य माध्यम से घृणा या अवमानना लाता है या लाने का प्रयास करता है, या उत्तेजित करता है या उसके प्रति असंतोष भड़काने का प्रयास करता है आजीवन कारावास से दंडित किया जाएगा। जिसमें जुर्माना या कारावास, जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है, लगाया जाएगा।”

लेकिन प्रस्तावित बीएनएस, 2023 में धारा 124 गलत तरीके से रोकने के अपराध से संबंधित है। इस संहिता में राजद्रोह शब्द मौजूद नहीं है। लेकिन आईपीसी में “देशद्रोह” के रूप में परिभाषित अपराध को अब प्रस्तावित संहिता की धारा 150 में “भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्य” के रूप में शामिल कर दिया गया है। बताया जा रहा है कि प्रस्तावित कानून आईपीसी की धारा 124ए से भी अधिक विस्तृत प्रावधान लिए हुए है। इसका अर्थ हुआ कि अंग्रेजों के काले कानून ‘राजद्रोह’ को असल में और भी कठोर तरीके से लागू किये जाने का रास्ता निकाला गया है।

प्रस्तावित संहिता की धारा 150 कहती है: “जो कोई, जानबूझकर या शब्दों द्वारा, बोले गए या लिखित, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या इलेक्ट्रॉनिक संचार द्वारा या वित्तीय साधनों के उपयोग से, या अन्यथा, उत्तेजित करता है या उत्तेजना का प्रयास करता है, अलगाव या सशस्त्र विद्रोह या विध्वंसक गतिविधियों, या अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करने या भारत की संप्रभुता एवं एकता और अखंडता को खतरे में डालने; या ऐसे किसी भी कार्य में शामिल होता है या करता है तो उसे आजीवन कारावास या कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।

आईपीसी की धारा 302 में हत्या के लिए सज़ा निर्धारित की गई है: “जो कोई भी हत्या करेगा उसे मौत या आजीवन कारावास की सज़ा दी जाएगी, और वह जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा।” लेकिन अब इसे धारा 99 के अंतर्गत शामिल किया गया है, जिसमें गैर इरादतन हत्या और हत्या के बीच अंतर किया गया है।

हत्या की सजा धारा 101 में निर्धारित की गई है, जिसमें दो उपधाराएं हैं। धारा 101(1) कहती है: “जो कोई भी हत्या करेगा उसे मौत या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी, और जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा।” प्रस्तावित संहिता की धारा 101(2) कहती है: “जब पांच या अधिक व्यक्तियों का समूह एक साथ मिलकर नस्ल, जाति या समुदाय, लिंग, जन्म स्थान, भाषा, व्यक्तिगत विश्वास या किसी अन्य आधार पर हत्या करता है।” ऐसे समूह के सदस्य को मृत्युदंड या आजीवन कारावास या सात वर्ष से कम अवधि के कारावास से दंडित किया जाएगा, और जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा।

यह दूसरा उप-भाग एक समूह द्वारा हत्या को संदर्भित करता है, जिसमें लिंचिंग भी शामिल होगी।

आईपीसी धारा 307 को हत्या के प्रयास का अपराध माना गया, जिसके लिए सजा का प्रावधान है, जिसे बढ़ाकर दस वर्ष तक किया जा सकता है, और जुर्माना भी लगाया जा सकता है; और यदि इस तरह के कृत्य से किसी व्यक्ति को चोट पहुंचती है, तो अपराधी आजीवन कारावास का भागी होगा। लेकिन प्रस्तावित संहिता में धारा 307 के तहत डकैती के अपराध और उसके लिए सजा का वर्णन है।

इसी प्रकार आईपीसी की धारा 375 बलात्कार के अपराध को परिभाषित करती है। इसमें “वैवाहिक बलात्कार” के लिए मुख्य अपवाद शामिल है: “किसी व्यक्ति द्वारा अपनी ही पत्नी, जिसकी अठारह वर्ष से कम उम्र न हो, के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य बलात्कार नहीं है।” आईपीसी की धारा 376 में बलात्कार के लिए सज़ा तय की गई है, जो सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक है, जिसमें कुछ प्रकार के दोषियों के लिए अलग, कठोर सज़ाएं शामिल हैं।

प्रस्तावित संहिता में धारा 376 नहीं है। प्रस्तावित संहिता की धारा 63 के तहत बलात्कार के अपराध को परिभाषित किया गया है। प्रस्तावित संहिता में जबरन यौन संबंध की सात शर्तों को बरकरार रखा गया है, जो आईपीसी के तहत बलात्कार का अपराध है। वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को भी बरकरार रखा गया है: “किसी व्यक्ति द्वारा अपनी ही पत्नी, जिसकी अठारह वर्ष से कम उम्र न हो, के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य बलात्कार नहीं है।”

हत्या का प्रयास प्रस्तावित संहिता की धारा 107 के अंतर्गत आता है, जो अपराध के लिए सजा भी निर्धारित करता है।

आईपीसी की धारा 120बी में आपराधिक साजिश के लिए सजा का प्रावधान है, जबकि प्रस्तावित बीएनएस, 2023 में धारा 120 “उकसाने पर जानबूझकर चोट पहुंचाने या गंभीर चोट पहुंचाने” जैसे अपराध से संबंधित है। आपराधिक षडयंत्र को धारा 61(1) के अंतर्गत लाया गया है: “जब दो या दो से अधिक व्यक्ति – (ए) एक अवैध कार्य करने या करवाने के लिए सहमत हैं; या (बी) एक कार्य जो अवैध तरीकों से अवैध नहीं है, ऐसे समझौते को एक आपराधिक साजिश नामित किया गया है”। प्रस्तावित संहिता की धारा 61(2) आपराधिक साजिश के लिए सजा का प्रावधान करती है।

आईपीसी धारा 505 के तहत “सार्वजनिक उत्पात को बढ़ावा देने वाले बयानों” और वर्गों के बीच शत्रुता, घृणा या दुर्भावना पैदा करने या बढ़ावा देने वाले बयानों को संदर्भित करती है। इसमें उप-धारा (2) के तहत पूजा स्थल, धार्मिक समारोह आदि में किए गए अपराध (शत्रुता पैदा करना या बढ़ावा देना) को भी शामिल किया गया है। इसके स्थान पर प्रस्तावित संहिता की धारा 194 में “धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना और सद्भाव बनाए रखने के लिए प्रतिकूल कार्य करना” के अपराध का वर्णन किया गया है।

आईपीसी धारा 153ए “धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना और सद्भाव बनाए रखने के लिए प्रतिकूल कार्य करना” के अपराध को शामिल करता है, और इसमें एक स्थान पर किए गए अपराध भी शामिल हैं। प्रस्तावित संहिता में इस अपराध को धारा 194 के अंतर्गत उल्लिखित किया गया है, जबकि धारा 153 में अब युद्ध या लूटपाट द्वारा ली गई संपत्ति प्राप्त करने के अपराध का वर्णन किया गया है।

पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने अपने ट्वीट में टिप्पणी करते हुए कहा है, “गृहमंत्री अमित शाह का लोकसभा का बयान बताता है कि आईपीसी की धारा 124 के तहत मौजूदा राजद्रोह कानून को ‘पूरी तरह से’ निरस्त कर दिया जाएगा। लेकिन संसद में पेश किए गए नए भारतीय संहिता सुरक्षा विधेयक की धारा 150 ‘देशद्रोह’ जैसे मामलों को आगे बढ़ाने की पर्याप्त गुंजाइश प्रदान करती है। क्या यह SC के परीक्षण में सफल होगा? हालांकि, सुधार की शुरुआत सबसे पहले पुलिस रिफार्म से होनी चाहिए, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में ही अनिवार्य कर दिया था: अगर कानून लागू करने वाले ही नहीं बदलेंगे तो कानून में बदलाव का क्या फायदा?”

गुजरात की मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड के अनुसार, “आपातकाल के काले दिनों के दौरान वकीलों, न्यायविदों ने दमन के खिलाफ एक मजबूत प्रतिरोध किया। अब चुप्पी क्यों? अन्याय के ख़िलाफ़? ईंट से ईंट बजाकर संविधान को ख़त्म करने के लिए संसद का इस्तेमाल किया जा रहा है? बेहद दुखद, यह मिलियन डॉलर का सवाल हैl”

मानसून सत्र में प्रस्तावित विधेयकों और पारित कराए जा चुके बिलों के साथ मोदी सरकार अपने एजेंडे को स्पष्ट कर चुकी है। भारतीय विपक्ष, जन-सामान्य, बुद्धिजीवी और संविधान-प्रेमी फिलहाल प्रस्तावित कानूनों को समझने और उसमें छिपे अर्थ की तलाश में जुटे हैं। आजादी के 75 वर्ष की बेला में आजादी के सही मायने खोजने का वक्त शायद यही है, इसके बाद समय मिले न मिले। 

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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