प्रो. बराथी नक्कीरन का लेख: उच्च शिक्षा संस्थानों में किस-किस तरह से होता है, एससी-एसटी छात्रों का उत्पीड़न

मद्रास इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट स्टडीज के एक एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. लक्ष्मणन ने उच्च शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव की प्रकृति पर चर्चा करते हुए बताया कि “लोग सोचते हैं कि जातिवाद केवल पीटने या बुरा व्यवहार करने के रूप में सामने आता है, लेकिन आजकल, यह सूक्ष्म इशारों के रूप में भी सामने आ रहा है।”  एन. सुकुमार ने भी अपनी किताब, ‘कास्ट डिस्क्रिमिनेशन एंड एक्सक्लूज़न इन इंडियन यूनिवर्सिटीज़: ए क्रिटिकल रिफ्लेक्शन’ में जातिगत भेदभाव की अलग-अलग अभिव्यक्तियों के बारे में लिखा है।

वे बताते हैं कि कैसे प्रोफेसर, दलित छात्रों की हाजिरी में कटौती करने की धमकी देते हैं और उन्हें परिपाटी के तहत घरेलू काम करने के लिए मजबूर करते हैं, जो हमेशा जातिगत भेदभाव साबित नहीं हो सकते। यह अदृश्य सी यातना एक ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति गढ़ती है, जिसमें दलित छात्रों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया जाता है कि उनका संघर्ष सच्चा है और ये संस्थाएं इतनी आधुनिक हैं कि उनकी दीवारों के भीतर जातिवाद जैसी प्रतिगामी चीज मौजूद नहीं है। इसकी आड़ में उनकी सामूहिकता को छीन लिया जाता है, और जाति-आधारित संरचनात्मक असमानताओं को व्यक्तिगत अनुभवों के रूप में छिपा दिया जाता है।

आरक्षण की आंख से जाति को देखना 

उच्च शिक्षा संस्थानों को अक्सर जाति से मुक्त होने के रूप में चित्रित किया जाता है। उच्च-जाति के छात्रों और शिक्षकों को उनकी आधुनिकता के आधार पर जातिविहीन माना जाता है। लेकिन जातिवाद ने योग्यता की भाषा के माध्यम से बड़े हिस्से में खुद को फिर से स्थापित किया है। 

योग्यता के सामाजिक तर्क को इस तरह व्यवस्थित किया गया है कि लोगों के वही समूह इससे लाभान्वित होते हैं जो पहले से ही जाति व्यवस्था द्वारा मजबूत हैं। अजंता सुब्रमण्यन ने अपनी पुस्तक ‘द कास्ट ऑफ मेरिट’ आईआईटी मद्रास के एक अध्ययन में लिखा है कि व्यक्तिगत योग्यता और जाति नेटवर्क के बीच के संबंध पर अक्सर किसी का ध्यान नहीं जाता है।

इस संदर्भ में वे लिखती हैं, आईआईटी जैसे संस्थानों में आरक्षण का विरोध जाति के नाम पर नहीं, बल्कि योग्यता को बनाए रखने के नाम पर किया जाता है। मेरिट जाति को एक नया रास्ता प्रदान करती है, जिसके कारण जाति को केवल आरक्षण के माध्यम से देखा जाता है, जबकि प्रमुख जातियों के पास जो विशेषाधिकार है, उसे पूंजी के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है।

अधिवक्ता अभिनव चंद्रचूड़ ने हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ दीज सीट ऑफ रिजर्व्ड’ में आरक्षण को बेमिसाल कानूनी प्रावधानों के रूप में वर्णित किया है जो भारत के सामाजिक संदर्भ से उभरा है। वह आरक्षण की जरूरत के इतिहास और इन कानूनी प्रावधानों के सामाजिक जीवन में कारणों के बारे में बताती है।

वे इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि भारतीय संविधान सभा में आरक्षण का विरोध मुख्य रूप से दो आधारों पर था। पहला कि यह योग्यात के खिलाफ काम करता है और दूसरा यह कहना प्रतिगामी बात है कि एक स्वतंत्र, आधुनिक राष्ट्र में जाति अभी भी मौजूद है। ये दोनों तर्क अतीत की बात नहीं बने हैं, आज भी आरक्षण के फायदे और आवश्यकता को चुनौती देने के लिए इन तर्कों का इस्तेमाल किया जाता है। 

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (TISS) में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूजन एंड इनक्लूसिव पॉलिसी के प्रोफेसर अवती रमैया कहते हैं कि आरक्षण के बिना ये तथाकथित प्रगतिशील संस्थान खाली स्थान को केवल उच्च जाति के छात्र ही भरेंगे।

आज भी आरक्षण के इर्द-गिर्द ज्यादा ध्यान जाति व्यवस्था द्वारा कायम ऐतिहासिक गलतियों के बजाय एक ‘योग्य’ उम्मीदवार की धारणा के इर्द-गिर्द बना हुआ है। एक प्रोफेसर के रूप में जिन्होंने दो दशकों से अधिक समय तक TISS में पढ़ाया है, डॉ. रमैया ने दलित छात्रों की पीढ़ियों को कई तरह के अनुभवों के साथ आते-जाते देखा है। 

उनका कहना है कि उच्च जाति पृष्ठभूमि के बच्चे गंभीर जातिवादी धारणाओं के साथ आते हैं जो उनके परिवारों ने उनमें डाल दी हैं। जिसे वे अपने दलित सहपाठियों पर थोपने की कोशिश करते हैं। यह एक जटिल सामाजिक समस्या है जिसका अकेले आरक्षण से समाधान नहीं हो सकता है।

मौखिक ताने आम बात हैं 

यह धारणा कि आरक्षण योग्यता को कम कर देता है, अक्सर छात्रों को उनके साथियों के बीच ताना मारने वाले चुटकुले, गॉसिप, और अलगाव की ओर ले जाता है। मौजूदा कानूनी उपाय अक्सर इन पेचीदगियों का जवाब नहीं दे सकते। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनिवार्य तौर बनाए गए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ अक्सर निष्क्रिय हो जाते हैं, जहां वे मौजूद हैं, वे शिकायतों का जवाब नहीं दे रहे हैं।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 के प्रावधानों जैसे उपचारों तक पहुंच बनाना चुनौतीपूर्ण है। मैंने जिन वकीलों से बात की, उन्होंने कहा कि अदालत में जातिगत भेदभाव को साबित करना मुश्किल है क्योंकि अदालत का रजिस्टर अक्सर इन तथाकथित प्रगतिशील जगहों में होने वाले जातिवाद की सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रकृति को नहीं पहचान सकता है। इसके अलावा कानूनी व्यवस्था में जाति के प्रति सर्तक लोग उतने ही दुर्लभ हैं जितने शैक्षणिक संस्थानों में।

क्या है, समाधान

जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए ऐसे उपायों की जरूरत है जो न केवल बाहरी हिंसा, बल्कि आंतरिक आघात, कुचले हुए अकेलेपन, और जातिवाद से पैदा होने वाले आत्म-सम्मान के नुकसान के प्रति चौकस हों। उदाहरण के लिए डॉ. लक्ष्मणन दोस्तों के एक सर्किल जैसे जगह के जरूरत की ओर इशारा करते हैं जो केवल विरोध के बारे में ही नहीं बल्कि दलित छात्रों के लिए अपनी समस्याओं को साझा करने के लिए एक सुरक्षित जगह है।

वास्तविक बदलाव के लिए, ‘अपराधियों को भी संवेदनशील बनाना होगा, न कि केवल पीड़ितों और भुक्तभोगियों को।‘TISS में, सभी प्रथम वर्ष के छात्रों को मूलभूत पाठ्यक्रमों में भाग लेना चाहिए जो जाति और लैंगिक भेदभाव के पहलुओं को छूते हैं। डॉ. रमैया कई वर्षों से इन कक्षाओं में पढ़ा रहे हैं, और उनका कहना है कि इस तरह की सावधानीपूर्वक कक्षाओं में चलाई गई चर्चाओं का उच्च-जाति के छात्रों को उनके जातिवादी विचारों को छोड़ने में मदद करने में बहुत मददगार होता।

कई शिक्षाविद जोर देते हैं कि जाति-जागरूक संस्थागत स्थान बनाने के लिए पाठ्यक्रम में बदलाव अहम हैं। 

हालांकि परिसर में जातिगत भेदभाव से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदाय के सदस्यों के व्यक्तिगत संकाय सदस्यों पर अत्यधिक निर्भरता है। ये उपाय पहले से ही हाशिए पर पड़े लोगों पर बोझ नहीं होने चाहिए। उन्हें संस्थागत रूप देना चाहिए और उन्हें इस तरह से संचालित करना चाहिए कि वे उच्च शिक्षा के लिए भीतर की चीज बन जाएं और असमानता अकल्पनीय हो जाए।

( बराथी नक्कीरन का यह लेख ‘द हिंदू’ में ‘How caste discrimination permeates the language of meritocracy on campus’ शीर्षक से प्रकाशित 31 मार्च को प्रकाशित हुआ था। अनुवाद- कुमुद प्रसाद)

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