इजराइल-फिलिस्तीन पर ओपी जिंदल विश्वविद्यालय में दिए अपने व्याख्यान पर कायम हैं प्रोफेसर अचिन वनायक

नई दिल्ली। 7 अक्टूबर 2023 के दिन इजराइल पर हमास के आत्मघाती हमले की आतंकी कार्रवाई के बाद से इजरायली सेना द्वारा गाजापट्टी को नेस्तनाबूद करने का जो अभियान अगले दिन से शुरू हुआ था, वह आज भी जारी है। जाहिर है कि इस विषय पर भारत ही नहीं सारी दुनिया में बहस हो रही है, लेकिन भारत में पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान भाजपा सरकार की विदेश नीति में बड़े पैमाने पर बदलाव का असर देश के भीतर भी इजराइल-फिलिस्तीन विवाद और उससे जुड़े पहलुओं पर पड़ रहा है।

7 अक्टूबर की शाम तक पीएम मोदी का जो बयान आया था, वह खुले शब्दों में इजराइल का पक्षपोषण करने वाला था, लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने कई दिन रुककर संभलकर प्रतिक्रिया दी थी। लेकिन हाल ही में जी-20 ग्लोबल साउथ की बैठक को ऑनलाइन संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने हमास और इजराइल दोनों के द्वारा निर्दोष नागरिकों की हत्या की कड़े शब्दों में निंदा की है।

इस प्रकार कह सकते हैं कि भारत की वर्तमान विदेश नीति अभी भी लगातार खुद में बदलाव ला रही है, और खुद को यथास्थिति के हिसाब से ढालने में लगी है। लेकिन घरेलू मोर्चे पर पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं, आरएसएस प्रचारकों सहित आईटी सेल को इजराइल के अंध समर्थन में झोंक दिया है।

इसका उदाहरण हमें सोशल मीडिया पर हर तरफ तो दिखाई ही देता है, लेकिन इसका असर अब देश में मौजूद चंद नामी-गिरामी निजी विश्वविद्यालयों पर भी पड़ता दिख रहा है, और वहां के फैकल्टी को लगातार अपनी स्वतंत्र सोच और समझ के लिए सफाई देनी पड़ रही है।

इस सिलसिले में 1 नवंबर 2023 को हरियाणा में सोनीपत में स्थित ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में दिल्ली के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर अचिन वनायक का “मौजूदा फिलिस्तीन का इतिहास और राजनीति” विषय पर लेक्चर अब एक बड़े विवाद का विषय बनता जा रहा है।

हालांकि लेक्चर के अगले ही दिन सोशल मीडिया सहित गोदी मीडिया में प्रोफेसर अचिन वनायक के भाषण को लेकर विवाद पैदा करने की कोशिश की गई थी, क्योंकि उनके लेक्चर के वीडियो को सोशल मीडिया में जारी करने के बाद दक्षिणपंथी एकोसिस्टम में हंगामा मच गया था। पूरे दो घंटे के सत्र में से चुनिंदा हिस्से के वीडियो को वायरल कराकर यह साबित करने की कोशिश की गई कि देश के कुछ विश्वविद्यालय आज भी हिंदू विरोधी एजेंडे को चला रहे हैं, और वामपंथी नैरेटिव में देश विरोधी छवि को तैयार किया जा रहा है।

टाइम्स नाउ ने अगले ही दिन 2 नवंबर को भाजपा मुंबई के प्रवक्ता सुरेश नाखुआ के X प्लेटफार्म पर मौजूद एक ट्वीट को आधार बनाकर एक लेख तक जारी कर दिया था। सुरेश नाखुआ के इस ट्वीट से ही जानकारी मिलती है कि इस लेक्चर से पहले ही कैंपस में इजराइल-फिलिस्तीन विवाद को लेकर दो समानांतर खेमे बन चुके थे। एक हिस्से में विश्वविद्यालय के अधिकांश फैकल्टी सदस्य थे तो दूसरे धड़े में कुछ छात्र, लेकिन उनके पीछे धुर दक्षिणपंथी राजनीतिक संरक्षण था, जो कैंपस की स्वस्थ बहस को एक एजेंडे के तौर पर आगे बढ़ा रहा था। यही वजह है कि फैकल्टी की ओर से इस बारे में कोई सफाई या टिप्पणी नहीं की गई।

इसके बाद प्रोफेसर अचिन वनायक को आईआईटी मुंबई में भी इसी विषय पर बोलने के लिए आमंत्रण दिया गया था, लेकिन बाद में उसे रद्द कर दिया गया। जाहिर है, इसमें ओपी जिंदल विश्वविद्यालय में उठे विवाद की सूचना ने महत्वपूर्ण योगदान दिया होगा। यह बात भी आई गई हो गई। लेकिन इजराइली दूतावास की ओर से भी जब ओपी जिंदल विश्वविद्यालय को लिखित शिकायत दी गई तो प्रशासन के सामने स्पष्टतया संकट खड़ा हो गया और उसके द्वारा इस बाबत प्रोफेसर अचिन वनायक से जवाब-तलब किया गया, और उन्हें खेद व्यक्त करने के लिए कहा गया।

इस बारे में द हिंदू से अपनी बातचीत में प्रोफेसर वनायक ने सूचित किया है कि उन्होंने व्याख्यान में जो बातें रखी हैं, वे उस पर अडिग हैं, लेकिन उनके लेक्चर की गलत व्याख्या और उसके चलते जिस प्रकार से भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई है, उस पर उन्हें खेद है।  

बता दें कि प्रोफेसर अचिन वनायक के 1 नवंबर को दिए गये व्याख्यान पर भारत में इजरायली राजदूत नाओर गिलोन ने ओपी जिंदल विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति सी. राज कुमार को संबोधित करते हुए एक पत्र में व्याख्यान की आलोचना की। राजदूत ने अपने पत्र में लिखा कि “मुझे समझ में नहीं आ रहा कि आपके विश्वविद्यालय में इजराइल राज्य को अवैध ठहराने वाला आयोजन क्यों कर हो गया?

इजरायली राजदूत के पत्र की भाषा अमेरकी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में बड़ी मात्रा में चंदा देने वाले उन अमेरिकी यहूदी अरबपतियों सरीखी लगती है, जिन्होंने कैंपस में फिलिस्तीन के समर्थन में भाषण, नारेबाजी और प्रदर्शन आयोजित किये थे। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को ग्रांट्स की राशि खत्म करने की धमकी कई हलकों से आई थी, जिससे कि युवाओं और फैकल्टी के बीच में गाजा में मारे जा रहे हजारों फिलिस्तीनी बच्चों, महिलाओं और घायलों के लिए समर्थन विश्व्यापी न हो जाये।

लेकिन ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी जैसे निजी विश्वविद्यालयों को भी आज किसी देश के राजदूत के द्वारा कैंपस में खुली लोकतांत्रिक बहस करने पर आपत्ति है, और प्रशासन उससे चिंतित हो उठता है तो समझा जा सकता है कि देश में हमारे शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता का स्तर क्या है।

बहरहाल 13 नवंबर को विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार दबिरू श्रीधर पटनायक की ओर से प्रोफेसर वनायक से जवाब-तलब करते हुए पूछा गया कि उनके द्वारा “हिंदुत्व को मुस्लिम विरोधी” बताने वाली टिप्पणी अनावश्यक और आपत्तिजनक थी। इसके प्रतिउत्तर में प्रोफेसर वनायक का कहना है कि-

“यह मैं ही नहीं बहुत से लोग हैं जो इस बात को कहते हैं, क्योंकि हिंदुत्व खुद को क्लूसिविस्ट (विशिष्टतावादी) मानता है। यह भेदभावपूर्ण है या नहीं, इसकी व्याख्या की जा सकती है। जब आप किसी एक विशेष समुदाय को प्राथमिकता देते हैं तो राष्ट्रवाद की किसी अन्य अवधारणा के विपरीत में जाकर खड़े हो जाते हैं, जो भारत में समग्र राष्ट्रीयवाद के रूप में विद्यमान है।”

इसके साथ ही प्रोफेसर वनायक का यह भी कहना था कि “इस बारे में उपस्थित कई समूहों एवं व्यक्तियों द्वारा भी इज़राइल को उपनिवेशवादी, औपनिवेशिक, रंगभेदी राज्य के रूप में चित्रित किया गया था।”

रजिस्ट्रार ने पटनायक को लिखे पत्र में यह भी कहा था- “आपकी टिप्पणियों में सुसाइड बॉम्बर और आतंकियों की प्रेरणा को यह बताने की कोशिश की गई है कि उनके लिए हत्या के बजाय अपने उद्येश्य के लिए जान देने की प्रेरणा काम करती है, जो कि उनकी निंदा करने के बजाय उनके प्रति सहानुभूति की अभिव्यक्ति के रूप में सामने आ रही है।”

इस पर प्रोफेसर वनायक ने द हिंदू को कहा है कि, “व्याख्यान के दौरान बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति थी, और उनमें से कइयों ने मेरे भाषण के कुछ हिस्सों को रिकॉर्ड कर ऑनलाइन जारी भी किया है। यह कहना कि मैं आतंकवाद का समर्थक हूं, पूर्णतया बकवास है। मेरे शब्दों को बिल्कुल ही संदर्भ से काटकर दिखाया जा रहा है।”

उन्होंने स्पष्ट किया, “मैं इस बात को स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं हमास की कार्रवाई को एक आतंकी कृत्य मानता हूं और इसकी निंदा करता हूं। लेकिन आतंकवाद एक ऐसी चीज है जिसे व्यक्तियों, समूहों और राज्यों के तंत्र द्वारा भी अंजाम दिया जाता है, और हमें निष्पक्ष और सार्वभौमिक तौर पर इस बात की परवाह किये बगैर कि यह किसके द्वारा अंजाम दिया जा रहा है, की निंदा करनी चाहिए। इसे एक साधन या एक तरीके के संदर्भ के तौर पर समझा जाना चाहिए।”

हाल के वर्षों में लेखकों, शिक्षाविदों और अब उदारवादी लोकतंत्र की पौध को मजबूत करने के तौर पर जाने जाने वाले विश्वविद्यालय परिसरों के भीतर भी दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक-वर्चस्ववादी विचार का आक्रमण लगातार बढ़ा है। केंद्रीय एवं राज्य विश्वविद्यालयों में उपकुलपतियों की नियुक्ति से लेकर नई शिक्षा नीति के हमले के बीच अब चंद निजी विश्वविद्यालयों में भी लिबरल सोच पर बढ़ती सख्ती बचे-खुचे विद्यार्थियों एवं फैकल्टी को भी पश्चिमी देशों की शिक्षण संस्थाओं और समाजों को ही मजबूत करने का काम करने के लिए बाध्य करेगी।

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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