-23.9% विकास दर के साथ मुंह के बल गिरी जीडीपी! क्या है इस अर्थशास्त्र के पीछे का गणित?

नई दिल्ली। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय जब वित्त वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रैल, मई और जून का जीडीपी डाटा रिलीज करने जा रहा था तो यह माना जा रहा था कि जीडीपी में बड़े स्तर पर गिरावट आएगी। लेकिन इस एक बात को लेकर सहमति थी कि यह संकुचन 20 फीसदी से कम नहीं होगा। लेकिन यह 24 फीसदी हो गया है। 

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इस साल अप्रैल, मई और जून के दौरान भारत में पैदा हुए कुल सामानों और उत्पादों का मूल्य पिछले साल के इन्हीं महीनों में पैदा हुए सामानों और उत्पादों के मूल्य से 24 फीसदी कम है।

अर्थव्यवस्था के विकास के सभी संकेतकों में यह सीमेंट का उत्पादन हो या कि स्टील की खपत सब में गहरा संकुचन है। यहां तक कि टेलीफोन के कुल उपभोक्ताओं में भी इस तिमाही में गिरावट दर्ज की गयी है।

और इसमें भी सबसे खास बात यह है कि लॉकडाउन के चलते डाटा की गुणवत्ता भी उतनी श्रेष्ठ नहीं है और ज्यादातर जानकारों का कहना है कि संशोधित डाटा के बाद की तस्वीर और भी बुरी होगी।

इसका निहितार्थ क्या है?

जानकार जीडीपी में जितनी गिरावट की अपेक्षा कर रहे थे उससे ज्यादा गिर गयी है तो इसका मतलब है कि पूरे साल भर की जीडीपी बड़े स्तर पर प्रभावित होने जा रही है। और इसके बहुत बुरे होने के आसार हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक इसके पूरे वित्तीय वर्ष में 7 फीसदी तक के संकुचन या फिर कहिए गिरावट की आशंका है।

और अगर पूरे उदारीकरण के दौर के साथ इसको जोड़कर देखा जाए तो 1990 के दशक के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था में औसत के हिसाब से 7 फीसदी की जीडीपी विकास दर रही है। लेकिन इस साल यही 7 फीसदी बिल्कुल उल्टा होने जा रहा है। यानी 7 फीसदी की ही गिरावट दर्ज की जाएगी।

सारे क्षेत्रों पर अलग-अलग नजर दौड़ाने पर जो बात सामने आयी है उसमें कृषि को छोड़कर जिसका सकल मूल्य 3.4 फीसदी है, बाकी सारे सेक्टर में बड़े स्तर पर गिरावट दर्ज की गयी है।

सबसे ज्यादा निर्माण का क्षेत्र (-50%) प्रभावित हुआ है। व्यापार, होटल और दूसरी सेवाएं (-47%), मैनुफैक्चरिंग यानी विनिर्माण में यह -39% और खनन में यह गिरावट -23% की है। यहां यह बात ध्यान देने की है कि यही सेक्टर हैं जो देश में सबसे ज्यादा रोजगार पैदा करते हैं। एक ऐसी हालत में जबकि इनमें से प्रत्येक सेक्टर में इतनी तेजी से संकुचन हो रहा है- मतलब इनके उत्पादन और आय दोनों में गिरावट- दर्ज की जा रही है। ऐसे में यह ज्यादा से ज्यादा लोगों के रोजगार खोने का रास्ता साफ करेगा। इसका मतलब है कि पुराने रोजगार जाएंगे और नये लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा।

वह क्या कारण है जो जीडीपी के इस संकुचन के लिए जिम्मेदार है? और सरकार इसे कम कर पाने में सफल क्यों नहीं हुई? 

किसी भी अर्थव्यवस्था में सामानों और सेवाओं की कुल और सबसे बड़ी मांग- यही जीडीपी होती है-विकास के चार इंजनों में से एक से पैदा होता है।

सबसे बड़ा इंजन उपभोग की मांग है जिसे आप जैसे व्यक्तिगत लोगों द्वारा पैदा की जाती है। आइये इसे C का नाम देते हैं। और भारतीय अर्थव्यवस्था में इस तिमाही के पहले इसकी मात्रा जीडीपी में 56.4 फीसदी थी

दूसरा सबसे बड़ा इंजन प्राइवेट सेक्टर के व्यवसायों द्वारा पैदा की गयी मांग है। इसे I का नाम देते हैं। और यह अब से पहले भारत में जीडीपी के 32% का निर्माण करती थी। 

तीसरा इंजन सरकार द्वारा पैदा किए गए सामानों और सेवाओं की मांग का है। इसको G नाम देते हैं। यह भारत के जीडीपी के 11 फीसदी का निर्माण करती है।

आखिरी इंजन भारत के निर्यात से आयात को घटाने के बाद जो बचता है वह जीडीपी की नेट मांग है। इसे NX नाम देते हैं। भारत के मामले में यह सबसे छोटा इंजन है क्योंकि भारत निर्यात से ज्यादा आयात करता है। यह जीडीपी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

तो फिर इस तरह से कुल जीडीपी= C+I+G+NX

अब आप नीचे दिए गए चार्ट को देखिये। यह दिखाता है कि पहली तिमाही में इन सभी इंजनों के साथ क्या हुआ है।

भारतीय अर्थव्यवस्था को संचालित करने के लिए सबसे बड़े इंजन का काम करने वाले निजी उपभोग में 27% की गिरावट दर्ज की गयी है। पैसे के हिसाब से पिछले साल की उसी तिमाही के मुकाबले 531803 करोड़ रुपये की गिरावट है।

व्यवसायों में निवेश का दूसरा सबसे बड़ा इंजन बुरी तरीके से प्रभावित हुआ है। यह पिछले साल के मुकाबले बिल्कुल आधा हो गया है। पैसे के पैमाने पर इसमें 533003 करोड़ रुपये का संकुचन हुआ है।

इस तरह से दो सबसे बड़े इंजन जो कुल जीडीपी के 88% का निर्माण करते हैं उनमें पहली तिमाही में भीषण संकुचन दर्ज किया गया है।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस दौरान NX यानी नेट एक्सपोर्ट डिमांड सकारात्मक है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि निर्यात के मुकाबले भारत का आयात बिल्कुल ध्वस्त हो गया। और इस तरह से पेपर पर इसने अपने तरीके से जीडीपी को उछाल दे दी। 

और इस मामले में विकास के आखिरी इंजन सरकार ने भी वही काम किया। जैसा कि डाटा दिखाता है सरकार का खर्च 16 फीसदी तक बढ़ गया लेकिन यह दूसरे क्षेत्रों में मांग के घाटे की भरपायी नहीं कर पाया।

इस तरह से अगर पूरी तस्वीर को एक साथ देखी जाए तो C और I में कुल 1064803 करोड़ की गिरावट दर्ज की गयी और सरकार के खर्चे में केवल 68387 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी हुई। दूसरे शब्दों में सरकार का खर्च तो बढ़ा लेकिन यह इतना कम था कि लोगों और व्यवसायों द्वारा मांग में कमी के घाटे के महज 6 फीसदी को पूरा कर पाया।

इसका कुल नतीजा यह हुआ कि पेपर पर जीडीपी में सरकार के खर्चे की हिस्सेदारी 11% से 18% बढ़ गयी लेकिन सच्चाई यह है कि कुल जीडीपी में 24% की गिरावट दर्ज की गयी। कुल जीडीपी के सबसे नीचे चले जाने से ऐसा लग रहा है कि सरकार विकास का सबसे बड़ा इंजन बन गयी है।

अब रास्ता क्या है?

जब आय में बहुत तेजी से गिरावट आती है तो निजी लोग अपने उपभोग में कटौती कर देते हैं। जब निजी उपभोग में बहुत तेजी से गिरावट आती है तब व्यवसायी निवेश रोक देते हैं। और चूंकि दोनों के बिल्कुल स्वैच्छिक निर्णय होते हैं और लोगों पर उपभोग को बढ़ाने के लिए दबाव डालने का कोई तरीका नहीं है या फिर मौजूदा हालात में व्यवसायियों पर और ज्यादा निवेश के लिए भी जोर नहीं डाला जा सकता है। यही तर्क आयात और निर्यात पर भी लागू होता है।

इन परिस्थितियों में केवल एक इंजन है जिससे जीडीपी में उछाल लाया जा सकता है वह है सरकार (G)। जब सरकार और ज्यादा खर्च करेगी- यह सड़कों का निर्माण हो या कि पुलों का या फिर लोगों को वेतन देना हो या सीधे लोगों के हाथ में पैसा- आदि के जरिये तत्काल, मध्य और दीर्घकालीन दौर में अर्थव्यवस्था को फिर से दुरुस्त किया जा सकता है। अगर सरकार पर्याप्त मात्रा में खर्चे नहीं करती है तो अर्थव्यवस्था को रिकवर होने में लंबा समय लगेगा।

क्या चीज है जो सरकार को खर्च करने से रोक रही है?

यहां तक कि कोविड संकट से पहले सरकार का खर्चा बहुत बढ़ गया था। दूसरे शब्दों में वह न केवल उधार ले रही थी बल्कि उससे ज्यादा उधार ले रही थी जितना इसे लेना चाहिए था। उसका नतीजा यह हुआ कि इसके पास उतना पैसा ही नहीं है।

लिहाजा संसाधनों को पैदा करने के लिए इसे कुछ अभिनव उपायों के बारे में सोचना होगा।  

(इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट का अनुवाद।)

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