मीडिया संस्थानों पर छापेमारी के भारी विरोध के बीच संकीर्णता की कुछ आवाजें

गुरुवार की सुबह, दैनिक भास्कर समूह के दफ्तरों और उसके मालिकों के घरों पर सरकारी एजेंसियों की छापेमारी की खबर सुनकर मेरी सुबह की चाय का मजा ही बिगड़ गया। कुछ ही समय बाद पता चला कि लखनऊ (यूपी) से संचालित एक चर्चित न्यूज चैनल-भारत समाचार के संपादक, निदेशक और कुछेक अन्य संपादकीय कर्मियों के घरों पर भी छापेमारी चल रही है। हाल के दिनों में मीडिया प्रतिष्ठानों पर आयकर और अन्य सरकारी एजेंसियों की छापेमारी का सिलसिला न्यूजक्लिक नामक एक प्रतिष्ठित न्यूज पोर्टल से शुरू हुआ। इस क्रम में अब तक तीन प्रतिष्ठानों पर छापेमारी हो चुकी है। आगे न जाने कहां-क्या होगा? अगर ध्यान से देखें तो छापे की इन घटनाओं में एक निश्चित पैटर्न दिखता है।

हाल तक ऐसे छापे आमतौर पर राजनीतिक विरोधियों या प्रतिस्पर्धियों के खिलाफ डाले जाते थे। लेकिन राजनीति-प्रेरित छापेमारियों की जद में वह मीडिया में भी आ गया है, जिसके कामकाज, लेखन, रिपोर्टिंग या विश्लेषण से हमारे मौजूदा सत्ताधारी असहज महसूस करने लगे हैं। हालांकि ऐसा मीडिया हमारे देश में उंगली पर गिनने लायक है। पहले पत्रकारों या संपादकों को विभिन्न मामलों में फंसाने, उनके विरूद्ध एफआईआर आदि दर्ज कराने जैसे कदम उठाये गये। कुछ पत्रकारों को जेल भी भेजा गया ताकि दूसरे अन्य पत्रकारों को डराया जा सके। लेकिन अब बड़े, छोटे या मझोले मीडिया संस्थानों और कम निवेश वाले न्यूज पोर्टल्स आदि पर आयकर या ईडी के छापों के जरिये मौजूदा सत्ताधारी देश में प्रेस की आजादी का एक छोटा कोना भी नहीं छोड़ना चाहते।

सवाल उठता है, सत्ताधारियों के इन खतरनाक हमलों को कैसे देखा जाना चाहिए? यह सवाल इसलिए उठा रहा हूं कि गुरुवार की सुबह डाले इन छापों की जहां पत्रकारों और पत्रकार संगठनों के बड़े हिस्से ने जमकर निंदा और आलोचना की वहीं अपने आपको बहुजनवादी मानने वाले कुछ पत्रकारों, बौद्धिकों और सोशल मीडिया एक्टिविस्टों ने इन हमलों के खतरों को लगभग नजरंदाज किया। इनकी नाराजगी दैनिक भास्कर की उस पूर्वाग्रही पत्रकारिता और कुछ ऐसे विवादास्पद कदमों को लेकर थी, जिन्हें कुछ साल पहले यूपी-बिहार में बड़े पैमाने पर देखा गया। उन दिनों दैनिक भास्कर ने भाजपा को खुश करने वाले और समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को अपमानित करने वाले पोस्टर और होर्डिंग लगवाये थे। इनका पोस्टरों-होर्डिंगों का स्वर और अर्थ निश्चय ही बेहद फूहड़, पूर्वाग्रही और गैर-पत्रकारीय था।

बीते कई सालों से सपा और बसपा, दोनों के शीर्ष नेतृत्व की वैचारिक स्तर पर लगातार आलोचना करने वाले इन पंक्तियों के लेखक को भी इस बात में कोई संदेह नहीं कि जिस किसी ने भास्कर समूह को इन पोस्टरों-होर्डिंगों का विचार दिया होगा, निश्चय ही वह जाहिल, जातिवादी और एक दल-विशेष का घोर पक्षधर रहा होगा! वह पत्रकारिता या प्रबंधन में भी गैर-पेशेवर किस्म का चरित्र रहा होगा। लेकिन भास्कर समूह के उस गैर-पेशेवर और गैर-पत्रकारीय आचरण के लिए क्या आज के दौर में उस अखबार-समूह पर होने वाले सत्ता के निरंकुश हमलों को लेकर नागरिकों या समाज को उदासीन या उन हमलों के पक्ष में हो जाना चाहिए? क्या य़ह सोचना सही होगा कि उस अखबार को कुछ वर्ष पहले के उसके गुनाहों की प्रकारांतर से सजा मिल रही है? मुझे लगता है, अपने को बहुजनवादी बौद्धिक समझने वाले कुछ लोगों की यह सोच न सिर्फ निहायत संकीर्ण है अपितु इसमें हास्यास्पद किस्म का बचकानापन भी है।

अपने को बहुजनवादी बुद्धिजीवी मानने वालों तक ही यह सोच सीमित नहीं है। मैंने देखा कि मुस्लिम समुदाय के अधिकारों की मुखर आवाज उठाने वाले कुछ बौद्धिक कार्यकर्ताओं ने भी भास्कर समूह के ‘गैर-सेक्युलर विचारों’ की पुरानी कथा बांचते हुए उसके विरूद्ध सत्ता के मौजूदा दमनात्मक रवैये पर अपनी उदासीनता बरती है या उसका विरोध करने से परहेज किया है। मजे की बात है, ये दोनों तरह के लोग अपने-अपने समुदाय के लोगों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध अक्सर आवाज उठाते रहते हैं। लेकिन इनके बीच आपस में न तो खास समन्वय है और न किसी तरह की ठोस एकजुटता दिखती है। यानी इन्होंने अपने-अपने समुदायों के अलग-अलग झंडे उठा रखे हैं। इन दोनों तरह के लोगों के कुतर्क का सबसे बड़ा खतरा ये है कि मुख्यधारा मीडिया की कुछ सार्थक आवाजों पर हो रहे निरंकुश हमलों को लेकर अगर बहुजनवादी और अल्पसंख्य़क समुदाय के कुछ अति-उत्साही समूह उदासीन रहते हैं तो प्रकारांतर से वे निरंकुशता-विरोधी अपनी लड़ाई को ही कमजोर कर रहे हैं।

आज जिस तरह का राजनैतिक-प्रशासनिक परिदृश्य नजर आता है, उसमें आम आदमी, बुद्धिजीवी या पत्रकार किसी मीडिया संस्थान या प्रतिष्ठान को किस तरह देखें और आंके? बहुजनवादी बौद्धिकों का समूह हो या मुस्लिम समुदाय पर होने वाले हमलों के विरोध में आवाज उठाने वाला अल्पसंख्यक समाज का बौद्धिक खेमा हो, क्या ये मीडिया को अपने-अपने सांचे में रखकर आंकना चाहते हैं? क्या ये दमन और अत्य़ाचार के विरोध का अपना-अपना दाय़रा तय कर रहे हैं? भास्कर समूह ने निकट अतीत में या लंबे समय तक जो कुछ किया था या जिस तरह उसके मालिकों, सपादकों या प्रबंधकों ने सोचा था, उनके किये और सोचे में आज बड़ा और साफ-साफ दिखाई देने वाला फर्क न आया होता तो सरकारी एजेंसियां इस ताबड़तोड़ ढंग से उनके प्रतिष्ठानों पर छापेमारी क्यों कर रही होंतीं?

अगर सपा या बसपा का पक्ष लेने वाला कोई स्वयंभू बहुजनवादी ये सोचे कि न्यूजक्लिक की पत्रकारिता में तो कुछ वामपंथी रुझान दिखता है, इसलिए उसके ऊपर होने वाले निरंकुश हमलों पर वह क्यों बोले या यूपी के भारत समाचार चैनल का संचालन करने वाले तो सवर्ण हैं, फिर उनकी वह क्यों चिंता करे? क्या ऐसे सोच से बहुजन का पक्ष मजबूत होगा? मुझे लगता है, इस तरह की सोच न सिर्फ संकीर्ण और विचारहीन है अपितु सत्ता की निरंकुशता के लिए मुफीद भी है। दुनिया की हर निरंकुश सत्ता यही चाहती है कि लोग आपस में बंटते रहें और वे इसका फायदा उठाकर असहमति और आलोचना की आवाजों को आसानी से मटियामेट करते रहें। इससे उन्हें अनंतकाल तक अपना निरंकुश-राज कायम रखने में मदद मिलेगी!

कोई अगर ये सोचता है कि भास्कर का टोन एंटी-मुस्लिम था या है और आगे भी रहेगा तो यह उसकी स्वतंत्रता है और इसे पूरी गलत भी मैं नहीं कह सकता। पर इस तरह की सोच में किसी ‘भविष्य वक्ता’ का टोन नहीं महसूस होता? भास्कर समूह, उसके मालिकों, उसके संपादकों या पत्रकारों की तरफ से मैं या कोई भी कुछ नहीं कह सकता कि वह कल क्या करेंगे! पर मेरा मानना है कि भास्कर या हाल के दिनों में अन्य मीडिया संस्थानों के विरूद्ध जो छापेमारी हुई है, एक पत्रकार या नागरिक के रूप में उस पर हमारा विरोध किसी अगर-मगर से निर्धारित नहीं होना चाहिए। भास्कर, न्यूजक्लिक हो या भारत समाचार, इन तीनों से सत्ता की नाराजगी के ठोस कारण रहे होंगे। वह इनकी पत्रकारिता से जुड़े कारण हैं। अगर पेगासस जासूसी कांड पर भास्कर और दिव्य भास्कर के बीते तीन दिनों का कवरेज देखें तो इसे समझना कठिन नहीं है।

ये तीनों अलग-अलग ढंग और मिजाज के मीडिया संस्थान हैं। पर तीनों में कुछ तो ऐसा है, जिससे मौजूदा सत्ता को आपत्ति थी। कोरोना दौर में भास्कर और दिव्य भास्कर की नियमित रिपोर्टिंग ही नहीं, उसके संपादकीय अग्रलेख, विश्लेषण और कुछ बेहतरीन खोजपरक खबरें सत्ताधारियों के लिए चिंता जगाने वाली रही हैं। कोलकाता से छपने वाला द टेलीग्राफ हो या अमेरिका से छपने वाला वाशिंगटन पोस्ट या इंग्लैंड का गार्डियन हो, हमारे निरंकुश सत्ताधारियों के बारे में इनमें छपे तमाम एक्सक्लूसिव लेख और रिपोर्ताज भी देश के बड़े हिस्से, खासकर हिंदी भाषी क्षेत्रों के आम लोगों पर वह प्रभाव नहीं छोड़ सकते थे, जो हाल के दिनों में भास्कर की खबरों ने छोड़ा। भास्कर हिंदी का अखबार है, जिस भाषा को समझने और बोलने वालों के बीच हमारे सत्ताधारियों ने बड़े नियोजित ढंग से टीवीपुरम् और अन्य़ हिंदी अखबारों के जरिये अज्ञान का विशाल आनंदलोक खड़ा कर रखा है। संयोगवश, सत्ताधारियों का सबसे बड़ा सामाजिक आधार आज यही क्षेत्र है। यह भी कम बड़ा संयोग नहीं कि कुछ ही महीने बाद देश के सबसे बड़े सूबे-यूपी का चुनाव होना है। भास्कर छापे से डर कर अगर टीवीपुरम का प्रिन्ट संस्करण बनने को राजी हो जाता है तो सत्ताधारियों की यह बड़ी कामयाबी होगी। इसका मतलब कि उनकी योजना सफल हुई!  

कम या अधिक यही बात भारत समाचार सहित सभी अन्य मीडिया संस्थानों पर लागू होती है जो आज सत्ता के निशाने पर हैं। सबसे बड़ी बात है, इन हमलों और छापों से हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, बांग्ला या तेलुगू-देश भर के मीडिया संस्थानों के संचालकों को डराने की कोशिश दिखती है।पेगासस जैसे अभूतपूर्व जासूसी कांड के मौजूदा भारतीय दौर में भास्कर जैसा अखबार हिंदी क्षेत्र में सरकार के लिए कितनी मुश्किलें खड़ी कर रहा था, इसका अंदाज बहुत सारे अंग्रेजी पत्रकारों को भी नहीं होगा। वह जासूसी कांड से सम्बन्धित खबरों के अलावा अतीत के कुछ रहस्यमय और पेंचीदे जासूसी कांडों की भी खबर सामने ला रहा था। ऐसे में सरकार उससे कुछ ज्यादा नाराज हो गई। इसीलिए ये छापे पूरी तरह राजनीति-प्रेरित हैं और सेंसरशिप या इमरजेंसी की आधिकारिक घोषणा के बगैर निकृष्ट किस्म की तानाशाही है। इन्हें इसी रूप में देखा जाना चाहिए।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं और आप ने कई चर्चित किताबें लिखी हैं।)

उर्मिलेश
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